-डॉ. अरुण कुकसाल


‘गो-बैक मेलकम हैली’ ‘भारत माता की जय’
हाथ में तिरंगा उठा, नारे भी गूंज उठे,
भाग चला, लाट निज साथियों की रेल में,
जनता-पुलिस मध्य, शेर यहां घेर लिया,
वीर जयानन्द, चला पौड़ी वाली जेल में।
                              – शान्तिप्रकाश ‘प्रेम’
‘मैं वीर जयानन्द ‘भारतीय’ का शुक्रिया अदा करता हूं कि उसने मुझे जान से नहीं मारा’। सर विलियम मेलकम हैली ने ये बात पौड़ी से बच निकलने के बाद कही थी। किस्सा, देश की स्वाधीनता से पूर्व सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौर का है। इस आंदोलन के विरोध स्वरूप अंग्रेजों के पिठ्ठू संगठन ‘अमन सभा’ ने 6 सितम्बर, 1932 को पौड़ी में तत्कालीन संयुक्त प्रांत के वायसराय मेलकम हैली का सम्मान समारोह आयोजित किया था। इस कार्यक्रम के प्रति स्थानीय लोगों में गुस्सा तो था परन्तु वे सामने विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे समय में देश की आजादी के सच्चे सिपाही की भूमिका भारतीय जी ने निभाई थी। हुआ ऐसा कि इस अभिनन्दन समारोह में जैसे ही वायसराय बोलने के लिए खड़े हुए कि वीर जयानन्द ‘भारतीय’ भीड़ को चीरते और हाथ में देश की स्वाधीनता का प्रतीक तिरंगा झंडा लहराते हुए मंच पर हैली के बिल्कुल पास जाकर ‘गो-बेक मेलकम हैली, भारत माता की जय’ के नारे बुलंद आवाज में लगाने लगे। नतीजन, भगदड़ के बीच वायसराय को वहां से भागना पड़ा था। भारतीय जी और उनके साथियों पर पुलिस के डंडो की बारिश होने लगी, परन्तु उनके नारे बंद नहीं हुए। तब तक उपस्थित लोगों का दबा साहस भी बाहर आ गया था। वे भी नारे लगाते भारतीय जी के साथ पौड़ी जेल में जा पहुंचे थे। बेकाबू भीड़ को प्रशासन के आग्रह पर जेल के मुख्य फाटक पर आकर ‘भारतीय’ जी ने यह कहकर शांत कराया कि ‘आप लोग धीरज रखें हमारा मकसद पूरा हो गया है’। बाद में जयानन्द ‘भारतीय’ को इस घटना में दोषी मानते हुए एक साल की सजा हुई थी।
स्वाधीनता संग्रामी, डोला-पालकी और आर्यसमाज आन्दोलन के अग्रणी जयानंद ‘भारतीय’ का जन्म ग्राम- अरकंडाई, पट्टी- साबली (बीरोंखाल), पौड़ी (गढ़वाल) में 17 अक्टूबर, 1881 में हुआ था। पिता छविलाल और माता रैबली देवी का परिवार कृषि और पशुपालन के अलावा जागरी के काम से जुड़ा था। जयानन्द भी किशोरावस्था तक इन्हीं पैतृक कार्यों को किया करते थे। बाद में बेहतर रोजगार के लिए नैनीताल, मसूरी, हरिद्वार और देहरादून में उनका रहना हुआ। बचपन से ही अंधविश्वासों के प्रति संशय रखने वाले जयानंद सन् 1911 में आर्य समाज विचारधारा से जुडकर उसके प्रचारक बन गए। सन् 1914 से 1920 तक वे सेना में रहते हुए फ्रांस और जर्मनी भी हो आये थे। पुनः आर्यसमाज के पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए उत्तराखंड के गावों में सामाजिक जागृति के लिए कार्य करने लग गए थे। वैचारिक दासता में जकड़े उस समय के सर्वण समाज से उन्हें अनेकों बार अपमानित होना पड़ा था। परन्तु संयम, धैर्य, दूरदृष्टि और साहस के धनी भारतीय जी ने अपने प्रयासों को कमजोर और शिथिल नहीं होने दिया।
गढ़वाल में सन् 1923 से सामाजिक समानता के लिए तकरीबन 25 वर्षों तक निरंतर लड़ा गया ‘डोला-पालकी आंदोलन’ का नेतृत्व जयानन्द ‘भारतीय’ ने किया था। तब के समय में शिल्पकार परिवार की बारात में डोला-पालकी का प्रयोग करना वर्जित था। भारतीय जी ने जब इस कुप्रथा का सार्वजनिक विरोध किया तो सर्वणों ने उन्हें अनेक तरीकों से प्रताड़ित किया। जयानन्द ‘भारतीय’ ने महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय और भी अनेकों नेताओं तक यह बात पहुंचाई। साथ ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सर्वणों की इस ज्यादती के खिलाफ मुकदमा दायर किया। निर्णय भारतीय जी के पक्ष में आने के बाद सरकारी कानून के माध्यम से शिल्पकारों के लिए वर्जित डोला-पालकी प्रथा का अंत हुआ था।
देश की स्वाधीनता लड़ाई में जयानन्द भारतीय की सक्रियता हमेशा बनी रही। 28 अगस्त, 1930 को राजकीय विद्यालय, जहरीखाल में तिरंगा झंडा फहराकर उन्होने आजादी के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित किया था। तीन माह के कारावास से रिहा होकर वे फिर इन गतिविधियों में शामिल होते रहे। 1 फरवरी, 1932 को दुगड्डा में प्रतिबन्ध के बावजूद जनसभा करने के कारण उन्हें 6 माह के लिए पुनः जेल जाना पड़ा। कोटद्वार में 11 अक्टूबर, 1940 को सैनिक टुकड़ी के सम्मुख सत्याग्रह करने के आरोप में उन्हें चार माह की सजा हुई। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भाग लेने के कारण 22 अप्रैल, 1943 को ‘भारतीय’ जी को दो वर्ष का कठोर कारावास हुआ था। बरेली जेल में रहते इस सजा को ‘भारतीय’ जी स्वः अध्ययन में गुजारा था।
देश की आजादी के बाद जयानन्द ‘भारतीय’ जी पूर्णतया समाजसेवा के कार्यों को समर्पित हो गये। उनके प्रयासों से कई स्थलों में धर्मशाला, अस्पताल और विद्यालयों की स्थापना हुई थी। अत्यधिक सामाजिक सक्रियता के कारण वे अपने स्वास्थ पर समुचित ध्यान नही दे पाये। उन्होने जीवन के अतिंम समय में अपनी अस्वस्थता को जानते हुए भी गांव में रहने का फैसला लिया। अपने गांव अरकंड़ाई में 9 सितम्बर, 1952 को जयानन्द ‘भारतीय’ जी का 71 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया।
समाज के लिए जयानन्द ‘भारतीय’ जी का योगदान एक समाज सुधारक, आर्यसमाज के प्रचारक, स्वतन्त्रता संग्रामी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले जुझारू व्यक्तित्व के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा। ये बात अलग है कि उत्तराखंड के राजनेताओं और सरकारों ने ऐसी महान विभूतियों और उनके अमूल्य योगदान को नजरअदांज़ ही किया है।