जद-यू और भाजपा के लिए बिहार विधानसभा का जो चुनाव आसान प्रारंभ में नजर आ रहा था, वह यदि अंतिम क्षणों में कांटे के मुकाबले में तब्दील हो गया तो इसका श्रेय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार में शामिल घटक लोक जनशक्ति पार्टी को भी जाता है। भले ही बिहार में लोजपा ने भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार खड़े न किए हों, लेकिन बिहार सरकार का मुख्य घटक राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जद-यू के प्रदर्शन को चिराग पासवान ने विशेष रूप से प्रभावित करने का काम किया। नि:संदेह जद-यू को उम्मीद से कहीं कम सीटें मिलीं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बिहार में जद-यू के नेतृत्व वाली नीतीश सरकार सत्ता विरोधी प्रभाव का सामना कर रही थी। अगर भाजपा के सहयोग से उसने इस प्रभाव को सीमित करने में सफलता हासिल की तो यह एक उपलब्धि ही है। इसलिए और भी, क्योंकि नीतीश कुमार लगातार चौथी बार सत्ता संभालने जा रहे हैं। ऐसा पश्चिम बंगाल के ज्योति बसु और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के बिहार में नीतीश कुमार ही दोहरा रहे हैं। इस जनादेश ने यह बताया कि जहां तेजस्वी यादव एक सक्षम नेता के तौर पर उभर सकते हैं, वहीं यह भी रेखांकित किया कि बिहारवासी लालू प्रसाद यादव के जंगलराज को भूले नहीं हैं।
बिहार का जनादेश केवल राज्य तक ही सीमित नहीं है। बल्कि राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर डालने वाला है। पिछले वर्ष महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा सत्ता गंवाने के बाद बिहार में सरकार बचाने में न केवल सफल रही, बल्कि उसने पिछली बार के मुकाबले अपने कुशल चुनाव प्रबंधन एवं रणनीति के तहत कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। वास्तव में इसी प्रदर्शन ने राजद की सत्ता सुरक्षित की। बिहार की जीत जद-यू को एक बड़ी राहत देने एवं भाजपा का मनोबल बढ़ाने वाली भी है। यह बढ़ा हुआ मनोबल कुछ समय बाद बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में वैसे ही अप्रत्याशित नतीजे दे सकता है, जैसे लोकसभा चुनाव के समय दिए थे।
बिहार का जनादेश जहां भाजपा की राजनीतिक ताकत के साथ पार्टी के प्रति लोगों के भरोसे को बयां कर रहा है, वहीं कांग्रेस किस तरह अपने नकारात्मक रवैये के कारण लगातार ढलान की ओर जा रही है। बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन अगर कांटे की लड़ाई में कहीं पिछड़ गया तो इसका मुख्य कारण ढलान की ओर जाती कांग्रेस भी है,जो बिहार में 110 सीटों पर लड़ने के बाद भी केवल 19 सीटों पर ही सिमटी दिखी। विडंबना यह है कि कांग्रेस अभी भी जरूरी सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है।