✍️ सुभाष चन्द्र जोशी ©

‘दीनू’ हाँफता हुआ नीचे वाले चौक पर पहुँचा और जोर-जोर से चिल्लाने लगा। ‘‘बाबा। दादा। ताऊ। काका। आओ देखो पहाड़ टूट गया।’’ चिल्लाने की आवाज इतने जोर की थी कि जिस किसी ने सुनीं, वह दौड़ा-दौड़ा चौक में आ गया था। ‘दीनू’ नीचे के चौक से आँगन में पहुँच गया था। उसका माथा और चेहरा तमतमा रहा था। उसका सारा शरीर पसीने से भीगा हुआ था। आँखों में डर और आश्चर्य पसरा हुआ था, जिससे आँखों का रंग गहरा लाल दिखाई दे रहा था। ‘दीनू’ के बाबा, माँ दौड़े-दौड़े उसके पास पहुँचे और आश्चर्य से पूछने लगे ‘‘दीनू बेटा क्या हुआ ? तू इतनी जोर से क्यों चिल्ला रहा है ? इतनी प्रातः क्या टूट गया ? उसकी साँस फूल रही थी, होंठ नर्म हो रहे थे। आवाज लड़खड़ा रही थी। वह कुछ भी साफ नहीं बोल पा रहा था। एकाएक ‘दीनू’ की माँ पानी लेकर उसके पास पहुँची। उसने तेजी से पानी का बर्तन लेकर एक ही साँस में सारा पानी पी लिया। गाँव के सभी लोग धीरे-धीरे आँगन में एकत्रित हो गये। सभी के मन में उत्सुकता थी आखिर क्या बात हो गयी।
सितम्बर का माह था। सुबह के लगभग छः बज रहे थे। उस समय पहाड़ों के पीछे से सूर्य उदय हो रहा था। आसमान में काले बादल छा रहे थे। बादलों के कारण सब पहाड़ सा लग रहा था। बादलों की विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ सुन्दर और कुछ डरावनी थी। पूरब की हवा कभी बादलों को हटा देती, तो कभी बादल फिर छा जाते। बादलों के हटने से सूरज के प्रकाश की लालिमा आग की गोले के समान लग रही थी। एकाएक पहाड़ में जोर से धमाका हुआ और आँगन में खड़े लोग सहम गये। किसी के भी समझ में यह नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। ऐसा लग रहा था कि भूकम्प के झटके आ रहे होंगे। खिड़कियां, दरवाजे हर चीजें हिलने लगी। कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे और बिल्लियां म्याऊँ-म्याऊँ करने लगी। गौशाला में गाय, भैंस और भेड़ बकरियां रंभाने-मिमियाने लगी थीं। ‘दीनू’ सहज होकर सभी गाँव वालों को कुछ बताने की हिम्मत कर रहा था। लड़खडाती आवाज में वह बोलने लगा। मैं हमेशा की तरह पहाड़ पर लकड़ी लेने पहुँचा ही था। वहाँ देखा तो मैं हतप्रभ रहा गया। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। रातो-रात आखिर पहाड़ कहाँ गया। कुछ देर देखता रहा। अपनी आँखों को मलने लगा। सोचा कहीं यह मेरी आँखों का धोखा तो नहीं। बाबा पहाड़ सचमुच टूट गया था। ‘दीनू’ की माँ उसके पास आयी और बोली ‘‘बेटा तू रात में देर से सोता हैं और सुबह जल्दी उठकर निकल जाता है। इससे ही तेरी आँखों में कुछ गड़बड़ी हो गयी होगी। यह तुम्हारी आँखों का धोखा होगा।’’ गाँव के कुछ सयाने और प्रधान भी आ पहुंचे। सभी ने कहा, यहाँ पर बात करने से अच्छा है कि घर पर बैठकर शांति से बात करते हैं। गाँव से वैद्य को बुलाया गया। वैद्य ने ‘दीनू’ की आँखें भलीभांति से देखी और बोले ‘‘दीनू की आँखें तो ठीक हैं।’’ सभी लोग सच को जानने के लिए पहाड़ की ओर चल दिये। ‘दीनू’ की बात सच निकली। पूरा पहाड़ टूट गया था। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर रातोें-रात पहाड़ कैसे टूट गया। सभी गाँव वाले नदी के किनारे-किनारे पहाड़ की ओर जाने लगे। पहले वहाँ हराभरा पहाड़ था। यह पहाड़ भले ही अन्य पहाड़ों की अपेक्षा छोटा था। पर बहुत सुन्दर पहाड़ था। इस पहाड़ पर गाँव के सभी लोगों का जीवन चलता था। गाँव के लोगों की रोजी रोटी का जरिया था यह पहाड़। गाँव वालों को घास, लक़ड़ी, फल और जड़ी-बूटियाँ सहित कई प्रकार की चीजें देता था यह पहाड़। गाँव के मवेशी भी इसी पहाड़ पर चरने जाते थे। पहाड़ के टूटने से मानों गाँव वालों पर पहाड़ टूट पड़ा हो। तभी वहाँ एक युवक आया। वह गाँव वालों से पूछने लगा तुम सब गाँव वाले यहाँ क्या कर रहे हो ? गाँव के लोगों ने उससे कहा कि पहाड़ कैसे टूटा। वह युवक बोला ‘‘मैं विद्युत परियोजना का कर्मचारी हूँ और यहाँ काम करने आया हूँ। यहाँ इस नदी पर बाँध बन रहा है और बाँध के लिए पहाड़ पर सुरंग बन रही है, इसलिए पहाड़ से सभी पेड़ हटा दिये गये हैं और पहाड़ को बाँध के हिसाब से बनाया जा रहा हैं। इस पहाड़ को कम्पनी ने विस्फोट से तोड़ दिया है।’’ पहाड़ के टूटने से गाँव वाले बहुत दुखी थे। उनका गाँव तलहटी पर बसा था। जहाँ पहाड़ टूटने का खतरा हमेशा बना रहता था। विद्युत परियोजना और सड़क निर्माण के काम के कारण हर रोज डायनामाइट के धमाकों से पहाड़ टूट-टूट कर नदी में गिरते थे। नदी किनारे लोगों के चारागाह, खेत तथा अन्य साधन थे। यह सब पूरी तरह से तहस-नहस हो गये थे। नदी का साफ-सुधरा पानी पहाड़ के मलबे से मटमैला हो गया। पहाड़ के मलबे ने जैसे पूरी नदी को लील लिया हो। पहाड़ पर हो रहे धमाकों से गाँव का परिस्थितिकीय संतुलन गड़बड़ा रहा था। ‘दीनू’ पढ़-लिखा तो था ही साथ ही वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा रहता था। उसने ठान ली थी कि वह गाँव को बचायेगा। नदी पर बाँध बनाने और पहाड़ों को तोड़ने से गाँव वालों का जंगल खत्म हो रहे थे। हालत यहाँ तक खराब हो गये कि अब गाँव वालों को अन्यत्र किसी स्थान पर विस्थापित करने की नौबत आ गयी। वर्षों से रह रहे लोगों की भावनायें गाँव से जुड़ी थी। उनका सब कुछ गाँव ही था। गाँव के कुछ ही लोग नौकरी पेशे के कारण गाँव से बाहर रहते थे। अधिकतर लोग गाँव में ही रहते थे। ‘दीनू’ ने गाँव वालों के साथ मिलकर क्षेत्रीय विधायक एवं सांसद से मिलने का कार्यक्रम बनाया। ‘दीनू’ के नेतृत्व में लोग विधायक एवं संासद से मिलने गये। विधायक एवं सांसद तो विद्युत निर्माण करने वाली कम्पनी की भाषा बोल रहे थे। निराश, हताश सभी लोग वापस गाँव आ गये। कुछ दिन बाद समाचार मिला कि अब गाँव भी खाली करना पड़ेगा। गाँव को खाली करने का सरकारी नोटिस आ गया। ‘दीनू’ ने कुछ युवाओं के साथ मिलकर ‘‘गाँव बचाओ समिति’’ बनायी। ‘‘गाँव बचाओ समिति’’ ने जिला मुख्यालय से लेकर राजधानी तक बाँध के विरोध में आन्दोलन चलाया। पुलिस और प्रशासन द्वारा आन्दोलन समाप्त करने के कई प्रयास किये गये। लेकिन आन्दोलन अब और उग्र हो गया था।
एक दिन ऐसा भी आया जब बड़ी-बड़ी जेसीबी मशीनें लेकर कम्पनी और पुलिस प्रशासन के लोग गाँव आ गये। गाँव के कुछ बाहरी क्षेत्र में खाली मकानों और दीवारों को तोड़ दिया गया। लोगों के साथ जोर जबरदस्ती की गयी। कुछ को लाठी-डण्डों से भी मारा गया। ऐसा लग रहा था कि पूरा सरकारी तंत्र कम्पनी के कब्जे में है। कई लोगों को शराब पीकर हुडदंग करने, बलवा तथा नशा तस्करी के झूठे आरोप में जेल डाला गया। प्रशासन और कम्पनी ने मिलकर आन्दोलन को समाप्त करने की पूरी कोशिश की गयी। अब गाँव वालों की इस लड़ाई में पड़ोस के कई गाँव के लोग जुड़ गये। बाँध से प्रभावित सभी लोग एक मंच पर आ गये। धरना प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। प्रशासन और कम्पनी के साथ कई बैठकों हुई। अन्ततः कम्पनी और प्रशासन को झुकना पड़ा और बाँध के निर्माण में बदलाव किये गये। इस बदलाव से दीनू के गाँव को विस्थापन करने की जरूरत नहीं पड़ी और कुछ हद तक गाँव के लोगों को जंगल भी बच गये। विकास की इस अंधी दौड़ ने ‘दीनू’ के गाँव जैसे कई गाँव तबाह कर दिये। पहाड़ों में विकास के नाम पर बन रही परियोजनायें लोगों के लिए श्राप बन रही है। प्रकृति का लगातार दोहन हो रहा है। पर्यावरण को क्षति पहुँच रही है और इसके कारण ग्लेशियर भी पिघल रहे है। ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है। इन सभी बातों को समझने के लिए ‘दीनू’ कई प्रमुख पर्यावरणविदों एवं जानकारों के पास गया। उसने ठान ली थी कि पहाड़ को बचाने के लिए अब वह अपना जीवन लगा देगा। उसने एक ऐसा मंच तैयार किया जो पहाड़ में हो रहे विनाश को रोकने का प्रयास करे। कई कार्यक्रम किये गये। कार्यशालाओं का आयोजन किया गया। लोगों को जागरूक किया गया। एक दिन ऐसा भी आया जब ‘दीनू’ पहाड़ के पर्यावरण को लेकर बड़े-बड़े मंचों पर जाने लगा। उसे बहुत से पुरस्कार भी मिले, लेकिन वह इस सबसे कभी प्रभावित नहीं हुआ। वह निरन्तर अपनी लड़ाई लड़ता रहा। आज इतने लम्बे समय के बाद ‘दीनू’ की इस अलख को जलाये रखने में कई लोग जुड़ गये हैं। ‘दीनू’ के मामले में यह कहावत सटीक बैठती हैं, ‘‘जहाँ चाह है वहाँ राह है’’। ‘दीनू’ पहाड़ के लोगों के लिए एक मिशाल बन गया।