आज से ग्यारह साल पहले दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के तत्वाधान में पेंगुइन बुक्स इंडिया और यात्रा बुक्स के सहयोग से अप्रैल की 2, 3 व 4 तारीख को एक तीन दिवसीय साहित्योत्सव का आयोजन हुआ। ‘दून रीडिंग्स‘ हिमालय की गूंज के नाम से यह कार्यक्रम देहरादून के होटल अकेता में आयोजित किया गया। इस साहित्योत्सव में उत्तराखण्ड के परिवेश से जुड़े रचनाकारों सहित देश के नामचीन साहित्यकारों ने षिरकत की, जिनमें नैनीताल के प्रतिभाशाली रचनाकार गिरीश तिवाडी़ ‘गिर्दा‘ भी मौजूद थे। ‘गिर्दा‘ की पहचान सिर्फ जनकवि व रंगकर्मी के रूप में ही नहीं अपितु पहाड़ की संस्कृति और साहित्य पर गहरी पकड़ रखने वाले एक जानकार व्यक्ति के रूप में भी थी । गिर्दा ज्यादातर नैनीताल से ही जुडे़ रहे पर उनके विचार व कामों का विस्तार पहाड़ के गांव कोनों तक ही नहीं वरन देश विदेश के लोगों तक भी फैला था। रोटी के जुगाड़ की खातिर मैदान में रिक्शा चलाने से लेकर नौटकीं में काम करने और क्लर्क की मामूली नौकरी करने तक न जाने उन्हें कितने पापड़ बेलने पडे़। बाद में गीत और नाटक प्रभाग की सरकारी नौकरी भी गिर्दा को रास नहीं आयी। उनके भीतर बैठे संवेदनशील व विद्रोही कवि ने उन्हें वहां की चहारदीवारी के भीतर कैद नहीं होने दिया और अन्ततः वहां से भी उन्होंने स्वैच्छिक अवकाश ले लिया और स्वतन्त्र ढंग से अपने रचना कर्म में जुट गये। इन तमाम बातों से हटकर ‘गिर्दा‘ में जो सबसे खास विशेषता थी, वह थी उनकी आत्मीयता, संवेदनशीलता और हद से भी बढ़कर फक्कड़ता। उनकी आत्मीयता का संभवतः इससे बडा़ प्रमाण और क्या हो सकता है जब स्वास्थ्य सम्बन्धी तमाम दिक्कतों के बाबजूद भी वे दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र आग्रह पर ‘दून रीडिंग्स‘ में शिरकत करने को तुरन्त राजी हो गये।
दो अप्रैल की शाम को जब इस साहित्योत्सव के उद्घाटन सत्र वाले कार्यक्रम समापन के करीब पहुंंच रहे थे तब किसी ने बताया कि गिर्दा‘ प्रो0 पुष्पेश पंत के साथ आ चुके हैं। शायद साढे़ नौ के आसपास का समय रहा होगा।‘ दिल्ली से देहरादून तक टैक्सी में सफर करने कारण गिर्दा‘ बुरी तरह थके मांदे लग रहे थे। हमने तुरन्त ही उनके मन माफिक भोजन की व्यवस्था कर उन्हें आराम के लिये उनके कमरे तक पहुंचाने में कोई भी कसर नहीं छोडी।
अगले दिन के मध्यान्ह के बाद के सत्र में शाम को उत्तराखण्ड के कवियों का शानदार काव्य पाठ हुआ।संचालन की कमान प्रो0 शेखर पाठक ने संभाल रखी थी। पहाड़ के बसंत का जिक्र आते ही इशारा गिर्दा की ओर हुआ। बस फिर देर ही किस बात की थी। गिर्दा ने माइक लपकते हीे गीत प्रारम्भ कर दिया। एक-एक कर गीतों के मोहिल सुर धीरे-धीरे हाॅल में अपना रंग बिखेरने लगे, अद्भुत लय व ताल से सारोबार इन गीतों को लोग तन्मयता से सुनने में मगन थे। गिर्दा का पहला गीत पहाड़ के बसंत पर आधारित था। गिर्दा के ही शब्दों में गीत का मुख्य भाव यह था कि ‘पहाडों पर बसंत का उल्लास छा गया है और यह बसंत लोक नायिका राजुला मालूषाही के अन्दाज में हिमालय से नीचे की ओर उतर रहा है……. धीरे… ……. धीरे……..न कि धम्म से‘।
उत्तरकाशी काली कुुुुुुमूंं तक
क्या सुन्दर छाजी रै मेरी बाडी
क्या खित्तै हंसे छ पारवती
लाल बुरांष का फूल पिछाडी़
तराई- भाबर, माल -हिमाल
फूलि जांछ ह्यूनै जसि प्यारी
रात उजाली घाम निऽमैलो
डाना- काना में केऽसिया फुूलो
षिवज्यू कै मारी मुठ्ठी रंगै की
सार हिमाल हैगो छ रंगीलो
हुलैरि ऐगे परी बसंत की
फोकिगो जा ंतां रंग पिऽंगलो
ध्यान टूटो छाऽर फोकि जोगी का
छार- भभूत तऽकै पिंगली गो
(अर्थात उŸारकाषी संे लेकर काली कुमंायू तक के इलाके में फैले खेत व क्यारियां क्या सुन्दर छज रहीं हैं। अहा देखो तो जंगल में खिले लाल बुरांश की ओट में पार्वती कैेसे खित्त करके हंस रही है। तराई- भाबर व माल से लेकर उंचे हिमालय तक यह शिशिर ऋतु अति प्यारी लग रही है। इनदिनो रात उजाली है और दिन का घाम निमैला हो रहा है।दूर डानों -कानों में केशिया फूला हुआ है।ऋतुराज बसंत हिमालय से नीचे की ओर धीरे.. धीरे उतर रहा है.। बसंत के द्वारा मुठ्ठी भर रंग भगवान शिव पर उड़ेलते ही सहसा उनका ध्यान टूट गया और उनके बदन पर पुती हुई राख व भभूत भी पीले रंग में रंग गयी। कुछ ही क्षणों में पूरा हिमालय बसंती रंग से दमक उठा )
बसंत के इस गीत के बाद गिर्दा का दूसरा महत्वपूर्ण गीत था -ओ हो रे आय हाय रे दिगौ लालि। इस गीत में बरसात ,छानी खरकों से उठता धुंआ,ब्याही हुई गाय व दूध निकालने वाली महिला का ख्ुसियों से भरा मन ,गीली लकड़ी,छोंके गये साग की निराली गंध व कांसे की थाली के समान आसमान में दिख रहे चांद का जो जीवन्त चित्रण गिर्दा ने किया वह वाकई अद्भुत था।सभागार में बैठे लोगों पर गिर्दा के गीत अपना पूरा जादुई असर दिखा रहे थे।
ओ हो रे आय हाय रे
ओे हो रे ओ दिगौ लालि।छानी खरिकों में धुंआ लगा है
ओ हो रे आय हाय रे
ओे हो रे ओ दिगौ लालि।
ठंगुले की बाखली,किलै पंगुरी है
द्विदां -द्विदां की धार छूटी है
दूहने वाली का हिया भरा है
ओ हो रे आय हाय रे
ओे हो रे ओ दिगौ लालि।
मुष्किल से आमा का चूल्हा जला है
गीली है लकड़ी, गीला ध्ुांआ है
साग क्या छौंका कि पूरा गौं महका है
ओ हो रे आय हाय रे
गन्ध निराली
कांसे की थाली सा चांद टंका है
ओ हो रे आय हाय रे शाम निराली
ओ हो रे आय हाय रे सांझ जुन्याली
जौंया मुरूली का शोर लगा है
ओ हो रे लागी कुतक्याली
ओ हो रे आय हाय रे
ओे हो रे ओ दिगौ लालि।
गिर्दा ने मात्र इन दो गीतों से नहीं बल्कि कुंछ और गीतों के माध्यम से भी पहाड़ के जनजीवन, वहां के लोगों के संधर्ष की व्यथा को श्रोताओं के सम्मुख रखा। रात केा डिनर के वक्त भी गिर्दा पूरी तरह अपनी मौज में थे। खराब स्वास्थ्य के बाबजूद भी वे मेहमानों के आग्रह पर लगातार कुमंाऊ की होलियों से लेकर फैज की पक्तियेां को सुनाते जा रहे थे। भले ही गिर्दा आज सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु दूुन पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के दून रीडिंग्स‘ में उनके गाये गीत लम्बे समय तक हम लोगांे के जुबान पर बने रहेंगे। उनका अपनापन लम्बे समय तक याद आता रहेगा ।
-चंद्रशेखर तिवारी