नए भारत के निर्माण में भारतीय संविधान न केवल एक विधिक दस्तावेज है, अपितु यह एक ऐसा महत्वपूर्ण साधन है, जो प्रत्येक नागरिक को समता का अधिकार देने के साथ ही राष्ट्र को प्रगति और समृद्धि के पथ पर ले जाने के लिए कृतसंकल्पित है। भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति होना होगा सजग…….
स्वतंत्र भारत के भविष्य का आधार संविधान को अंगीकृत करने वाली महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना की आज 71वीं वर्षगांठ है। भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में तमाम दिग्गज शामिल रहे। विश्व के प्रमुख संविधानों के अध्ययन और व्यापक विचार-विमर्श के बाद संविधान को 26 नवम्बर,1949 को आकार दिया गया था। संविधान निर्माण के लिए हुए मंथन की गहनता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि संविधान की प्रारूप समिति के स्वतंत्र भारत के संविधान का मूल प्रारूप तैयार करने का संपन्न हुआ।
मूल संविधान से लेकर अब तक इन पिचहतर वर्षों में देश ने एक लंबी यात्रा तय की है और इस दौरान संविधान में अनेकों परिवर्तन भी किए गए हैं। आज हमारे संविधान में 12 अनुसूचियों सहित 400 से अधिक अनुच्छेद हैं, जो इस बात के प्रमाण हैं कि देश के नागरिकों की बढ़ती आकांक्षाओं को समायोजित करने के लिए शासन के दायरे का किस प्रकार समयानुकूल विस्तार किया जाए। यदि आज भारतीय लोकतंत्र समय की अनेक चुनौतियों से टकराते हुए न केवल मजबूती से खड़ा है, अपितु विश्व पटल पर भी उसकी एक विशिष्ट पहचान है तो इसका प्रमुख श्रेय हमारे संविधान द्वारा र्निमित सुदृढ़ ढांचे और संस्थागत रूपरेखा को जाता है। भारत के संविधान में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लोकतंत्र के लिए एक संरचना तैयार की गई है। इसमें शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से विभिन्न राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने और उन्हें प्राप्त करने के प्रति भारत के लोगों की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया गया है।
भारतीय संविधान न केवल एक विधिक दस्तावेज है, अपितु यह एक ऐसा महत्वपूर्ण साधन है भी जो समाज के सभी वर्गों की स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए जाति,वंश, लिंग, क्षेत्र, पंथ या भाषा के आधार पर भेदभाव किए बिना प्रत्येक नागरिक को समता का अधिकार देता है, साथ ही राष्ट्र को प्रगति और समृद्धि के पथ पर ले जाने के लिए कृतसंकल्पित दिखता है। यह हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं का भारतीय राष्ट्रवाद में अमिट विश्वास था। इस संविधान के साथ चलते हुए विगत सात दशकों में भारतीयों ने जो ढेरों उपलब्धियों के साथ विश्व के सबसे बड़े और सफल लोकतंत्र होने का गौरव भी प्राप्त किया है।
मतदाताओं की बड़ी संख्या और निरंतर चुनावों के बावजूद हमारा लोकतंत्र कभी अस्थिरता का शिकार नहीं हुआ, चुनावों के सफल आयोजनों ने संसदीय लोकतंत्र को समय की कसौटी पर स्वयं को सिद्ध किया है। सात दशकों की इस लोकतांत्रिक यात्रा के दौरान देश में लोकसभा के सत्रह और राज्य विधानसभाओं के तीन सौ से अधिक चुनाव अब तक हो चुके हैं, जिनमें मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी हमारे लोकतंत्र की सफलता को ही दर्शाती है। भारतीय लोकतंत्र ने विश्व को दिखाया है कि राजनीतिक शक्ति का शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके हस्तांतरण किस प्रकार किया जा सकता है।
भारतीय संविधान ने राज्य व्यवस्था के घटकों के बीच शक्तियों के विभाजन की जो व्यवस्था भी की है वह बहुत ही सुसंगत ढंग से की है। संविधान द्वारा राज्य के तीनों अंगों विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने-अपने क्षेत्रों में पृथक, विशिष्ट और सार्वभौम रखा गया है, ताकि ये एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न कर सकें। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमारी भारतीय संसद ही सर्वोपरि है,परंतु उसकी भी सीमाएं हैं। संसदीय प्रणाली का कार्य-व्यवहार संविधान की मूल भावना के अनुरूप ही होता है। संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, मगर वह उसके मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। अंगीकृत किए जाने से लेकर अब तक हमारे संविधान में आवश्यकतानुसार सौ से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं, परंतु इसके बावजूद इसकी मूल भावना अक्षुण्ण बनी हुई है।