कमल किशोर डुकलान, रुड़की (हरिद्वार)
दीपावली का पर्व प्रत्येक भारतीय के लिए उल्लास,उमंग का महापर्व है। दीपावली धार्मिक,आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं भौतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के साथ यह पर्व अयोध्यावासियों का प्रकाश पर्व, तंत्रोपासना एवं शक्ति की आराधक मां काली की उपासना, धन की देवी महालक्ष्मी की आराधना, ऋद्धि-सिद्धि, श्री- समृद्धि, वात्स्यायन का श्रृंगारोत्सव एवं ज्योति से ज्योति जलाने का आनन्दोत्सव का प्रतीक है…….
दीपावली का पावन प्रकाश पर्व भारतीय सनातन संस्कृति, सभ्यता एवं गौरव-गाथा का प्रतीक है। यह पर्व प्रत्येक मानव के अन्तर्मन का अन्धकार को ममता मयी प्रकाश में परावर्तन का प्रकाश पर्व है।
दीपावली का पर्व हमारे आंतरिक अंधकार पर सद्विचार रुपी उजाला फैलाने का पर्व ही नहीं है। अपितु हमारे अंतस में सद्बुद्धि,ज्ञान और विवेक का पर्व भी हैं।
दीपक को प्रकाश का प्रतीक माना गया है जो तमस(अंधकार) को दूर करता है। यही दीपक हमारे जीवन में प्रकाश के अलावा जीवन निर्वाह करने का साधन भी है। दीया भले मिट्टी का बना हो,परन्तु वह हमारे जीने का आदर्श,जीवन की नई दिशा,संस्कारों की सीख,संकल्प की प्रेरणा एवं लक्ष्य तक पहुंचने का श्रेष्ठ माध्यम है।
प्रतिवर्ष दीपावली के पावन प्रकाश पर्व को मनाने की सार्थकता तभी है,जब हमारे अंत:कारण का अंधकार दूर हो।अंधकार जीवन की समस्या और प्रकाश उसका समाधान है। जीवन जीने के लिए सहज प्रकाश की आवश्यकता होती है। मनुष्य की प्रारंभ से ही प्रकाश पाने की लालसा रही है।
दीपावली पर्व का प्रत्येक भारतीय उल्लास एवं उमंग का पावन पर्व है। यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।अपितु आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं भौतिक दृष्टि से भी अति महत्व है। दीपावली का पर्व जैन मत के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का आसुरी शक्तियों पर विजय के पश्चात अयोध्या आगमन पर अयोध्यावासियों का प्रकाश पर्व,तंत्रोपासना एवं शक्ति की आराधक मां काली की उपासना, धन की देवी महालक्ष्मी की आराधना,ऋद्धि-सिद्धि, श्री- समृद्धि,वात्स्यायन का श्रृंगारोत्सव एवं ज्योति से ज्योति जलाने का आनन्दोत्सव का प्रतीक है।
दीपावली प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाई जाती है। उस दिन हमें चंद्रमा की शीतल रोशनी नहीं मिल पाती है। इसलिए हम रात के घुप्प अंधेरे को खत्म करने के प्रयास में असंख्य दीप ही दीप प्रकाशित करते हैं। दरअसल इसके पीछे का एक सकारात्मक संदेश यह छिपा है कि हमारे मन में लोभ,मोह,काम-क्रोध रूपी अंधकार की गहरी जड़े जमी रहती हैं। इस पर्व से हमें यही संदेश मिलता है कि हमें यहीं संदेश मिलता है कि मन के लोभ,मोह,काम-क्रोध अंधकार रुपी दुर्गुणों से भरे मन में सद्विचारों की ज्योति प्रज्जवलित करें। जिससे हमारे मन के अंधकार बुरे विचार जड़ से समाप्त हो जाएं।
मनुष्य का रुझान हमेशा से ही प्रकाश पाने की ओर रहा है।अंधकार को उसने न कभी चाहा और न ही कभी मांगा है।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’
अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलने की इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने एक खोज शुरू की। अंधकार से घिरा हुआ मानव दिशाहीन होता है वह जितनी भी गति करें वह कभी सार्थक नहीं हुआ करती।ज्ञान को आचरण से पूर्व सम्यक्त्व आवश्यक माना गया है। ज्ञान जीवन में प्रकाश देने वाला होता है। शास्त्रों में भी कहा गया:- ‘नाणं पयासयरं’ अर्थात ज्ञान ही प्रकाशकर है। अंधकार हमारे अज्ञान,दुराचरण,दुष्ट प्रवृत्ति,आलस्य- प्रमाद,बैर-विनाश, क्रोध-कुंठा,राग-द्वेष,हिंसा-कदाग्रह आदि हमारी अंधकार रुपी हमारी राक्षसी मनोवृत्तियों के प्रतीक हैं।
जब मनुष्य के अंदर असद् प्रवृत्ति का जन्म होता है,तब उसके चारों ओर के वातावरण में कालिमा व्याप्त होने के कारण उसे अंधकार ही अंधकार नजर आने लगता है। जिस कारण मनुष्य हाहाकार करने लगता है। मानवता चीत्कार उठती है। अंधकार में भटके मानव का क्रंदन सुनकर करुणा की देवी का हृदय पिघल जाता है। ऐसे समय में मनुष्य को सन्मार्ग दिखा सके,ऐसा प्रकाश स्तंभ चाहिए। इन स्थितियों में हर मानव का यही स्वर होता है कि-‘हे प्रभो,हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, बुराइयों से अच्छाइयों की ओर,मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो…।’ इस प्रकार हम दीपावली में प्रकाश,सदाचार,अमरत्व के प्रति अपनी निष्ठा और आदर्श जीवन जीने का संकल्प करते हैं।
एक प्रकार से प्रकाश हमारी सद्प्रवृत्ति,सद्ज्ञान,संवेदना,करुणा,प्रेम,भाईचारे,त्याग,सहिष्णुता,सुख- शांति,ऋद्धि-समृद्धि,शुभ-लाभ,श्री-सिद्धि अर्थात ये सभी दैवीय गुणों के प्रतीक है। यही प्रकाश जब मनुष्य की अंतरचेतना से जागृत होता है,तभी इस धरती पर एक प्रकार से सतयुग का अवतरण होने का आभास होने लगता है।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है लेकिन वे बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक दैदीप्यमान एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदास जी ने कहा है:-
‘बाहर से तो कुछ न दीसे,
भीतर जल रही जोत’।
दीपावली का पर्व ज्योति से ज्योति जलाने का पर्व है।यह पर्व पुरुषार्थ और आत्म-साक्षात्कार तथा मन के अन्त:करण की सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। एक प्रकार से यह पर्व हमारे आभामंडल को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है।
आज हम देखते हैं कि अलगाववाद,आतंकवाद,भय,हिंसा, प्रदूषण,अनैतिकता,ओजोन परत का नष्ट होना आदि वर्तमान समय में अनेकों ऐसी समस्याएं 21वीं सदी के मनुष्य के सामने एक चुनौती बनकर खड़ी हैं। आखिर इन समस्याओं का जनक भी मनुष्य ही तो है, क्योंकि किसी पशु अथवा जानवर के लिए ऐसा करना संभव नहीं है। अनावश्यक हिंसा का जघन्य कृत्य भी मनुष्य के सिवाय दूसरा कौन कर सकता है? आतंकवाद की समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता,जब तक कि मनुष्य अनावश्यक हिंसा को छोड़ने का प्रण नहीं करता।
आज आवश्यकता मोह के अंधकार को भगाकर धर्म के दीपक को जलाने की है। जहां धर्म के सूर्य का उदय हो हुआ वहीं अंधकार का नाश हुआ है। यद्यपि दीपावली एक लौकिक पर्व है। फिर भी यह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं,बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह और मूर्छा के अंधकार को दूर कर सकते हैं।
दीपावली पर्व की सार्थकता के लिए जरूरी है कि दीये बाहर के ही नहीं,भीतर के दीये भी जलने चाहिए,क्योंकि दीया कहीं भी जले, प्रकाश ही देता है। दीया हमें यही संदेश देता है कि हम जीवन से कभी पलायन न करें उसको परिवर्तन दें,क्योंकि पलायन से मनुष्य में बुजदिली का धब्बा लगता है,जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएं जीवन की सार्थक दिशाएं खोज लेती हैं।दीपावली का पर्व लोकमानस में एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना-प्रसंगों से इस पर्व की महत्ता से जुड़ी है,वे अध्यात्म जगत के शिखर-पुरुष थे। इस दृष्टि से दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अनूठा पर्व है।