एक बहुत पुरानी कहावत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। लेकिन नूतन आविष्कार वही लोग कर पाते हैं, जो कल्पनाशील होते हैं। ऐसे लोग अपने मौलिक इनोवेटिव आइडियाज को आकार देने में जुटे रहते हैं। भारत में देशी जुगाड़ का अपना पूरा विज्ञान और ज्ञान परंपरा के बावजूद इन्हें मान्यता कम ही मिल पाती है। कुछ लोग अपनी तात्कालिक जरूरत की पूर्ति के लिए अनेक नए आविष्कारों को अंजाम देते हैं, लेकिन वे आविष्कार पूरी तरह से विकसित रूप धारण नहीं कर पाते हैं।
तमाम देशज उपलब्धियों से पता चलता है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, परन्तु स्कूली शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की विवशता के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ही ज्ञानी और परंपरागत ज्ञान आधारित कार्य प्रणाली में कौशल दक्षता रखने वाले शिल्पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल माना जाता है। यही कारण है कि हम देशज तकनीक व स्थानीय संसाधनों से तैयार उन आविष्कारों और आविष्कारकों को नकार दिया जाता है,जो ऊर्जा,सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणालियों से जुड़े होते हैं।
जबकि ये नवाचारी उद्यमी की श्रेणी में आने चाहिए। इसका एक कारण यह भी है कि हम देशी कुशलता आधारित ज्ञान से अधिक प्राथमिकता व महत्व विदेशों से हासिल कुशलता आधारित ज्ञान को देते हैं। आजादी के पहले हमने प्रतिकूल परिस्थितियां होने के बावजूद रामानुजम, जगदीशचंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस जैसे गणितज्ञ और विज्ञानी दिए, लेकिन आजादी के बाद मौलिक आविष्कार करने वाला अंतरराष्ट्रीय ख्याति का एक भी विज्ञानी नहीं दे पाए, जबकि इस बीच हमारे संस्थान नई खोजों के लिए संसाधन व तकनीक के स्तर पर समृद्ध हुए हैं। इससे जाहिर होता है कि हमारी ज्ञान-पद्धति में कहीं न कहीं खोट है।
कर्नाटक के अनपढ़ किसान गणपति ने पेड़ पर चढ़ जाने वाली बाइक बनाकर देश के उच्च शिक्षित वैज्ञानिक और तमाम वैज्ञानिक अनुसंधान में लगी संस्थाओं को हैरानी में डाल दिया है। ऐसा नहीं है कि अनपढ़ गणपति जैसे नवाचारी पहली बार सामने आए हों। इसके पहले भी ऐसे कई नवाचारी सामने आए हैं, लेकिन डिग्रीधारी नहीं होने के कारण उन्हें मान्यता नहीं मिली। उत्तर प्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है। उसने यह जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को भी दी। किंतु उसे कोई मदद नहीं मिली। लेकिन रामपाल राजमिस्त्री इतने में ही नहींरुका। रामपाल राजमिस्त्री ने अपना घर गिरवी रखकर नाले के पानी से बिजली पैदा करके दिखाई। बिहार के मोतिहारी में रहने वाले सइदुल्लाह ने पानी की सतह पर चलने वाली साइकिल बनाने का कारनामा कर दिखाया था। उनके इस मौलिक सोच की उपज यह थी कि उनका गांव हर साल बाढ़ की चपेट में आता है। ऐसे में पानी पर चलने वाली साइकिल का निर्माण सइदुल्लाह ने कर दिखाया। सइदुल्लाह द्वारा साइकिल का सफल प्रदर्शन पटना की गंगा नदी में और यहां तक कि वर्ष 2005 में अहमदाबाद में भी कर चुके हैं। लेकिन उनके नवाचार को मान्यता इसलिए नहीं मिली क्योंकि उनके पास अपेक्षित डिग्री नहीं थी। नवाचार के इन प्रयोगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। इन्हीं देशज विज्ञानसम्मत तकनीक की मदद से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुए हैं।
देखा जाए तो देश में इस तरह के नवाचारों के माध्यम से कुछ नया और अनोखा निर्माण करने वालों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता दिलाने की राह में प्रमुख बाधा है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में भी बदलाव की जरूरत है। चूंकि हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने,सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग व विश्लेषण की छूट के बजाय तथ्यों, आंकड़ों और सूचनाओं की घुट्टी पिलाई जा रही है, जो वैज्ञानिक चेतना व दृष्टि विकसित करने की राह में रोड़ा है। ऐसे में विज्ञान के विद्यार्थी की रटने-रटाने और अंग्रेजी में दक्षता ग्रहण करने के दबाव में मौलिक कल्पनाशक्ति कुंठित हो जाती है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिभाओं को अवसर देने की दृष्टि से स्टार्टअप इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम नवाचारियों की उद्यमिता विकास के लिए आरंभ किए। लेकिन इनकी बहुत कम ही उपलब्धियां दिख रही हैं। उद्यमिता विकास के लिए कार्य-संस्कृति में बड़े बदलाव लाने होंगे। युवाओं को सरकारी या कॉरपोरेट की नौकरी का मोह छोड़ना होगा। तभी युवा उद्यमियों की सोचने-विचारने की मेधा प्रखर होगी और किसी आविष्कार को साकार रूप देने के लिए कल्पना-शक्ति विकसित होगी। विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद शैक्षिक उपाधि से नवाजने व सीधे वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान भी जरूरी हैं। शैक्षिक अवसर की समानता से दूर ऐसे माहौल में उन बालकों को सबसे ज्यादा परेशानी से जूझना होता है, जो शिक्षित और मजबूत आर्थिक हैसियत वाले परिवारों से नहीं आते हैं। समान शिक्षा का दावा करने वाले एक लोकतांत्रिक देश में यह एक गंभीर समस्या है, जिसका समाधान तलाशने की जरूरत है। अन्यथा हमारे देश में 900 से अधिक विज्ञान संस्थानों और देश के सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञान व तकनीक के अनुसंधान का काम होता है, इसके बावजूद कोई भी संस्थान स्थानीय संसाधनों से ऊर्जा के सरल उपकरण बनाने का दावा करता दिखाई नहीं देता। हां, तकनीक हस्तांतरण के लिए कुछ देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से करीब बीस हजार ऐसे समझौते जरूर किए हैं,जो शोध के मौलिक प्रयासों को ठेंगा दिखाने वाले हैं। इसलिए शिक्षा को संस्थागत ढांचे और किताबी ज्ञान से भी उबारने की जरूरत है, ताकि नवोन्मेषी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन व सम्मान मिल सके। विज्ञानी और अभियंता पैदा करने की दृष्टि से दुनिया में भारत का तीसरा स्थान माना जाता है। लेकिन अधिकांश विज्ञान संबंधी उपलब्धियां पाश्चात्य देशों के विद्वानों के खातों में दर्ज हैं। पश्चिमी देशों के आविष्कारों से ही विज्ञान का समूचा साहित्य भरा पड़ा है। इस साहित्य में न तो हमारे विज्ञानियों की चर्चा है और न ही आविष्कारों की। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि हम स्वयं न तो अपने आविष्कारकों को प्रोत्साहित करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। समय आ गया है कि देशज नवाचारों को भी प्रोत्साहित किया जाए ताकि अपने कौशल ज्ञान के बूते आगे बढ़ सकें।