अब से दो महीने पहले सामाजिक स्तर पर कोरोना को लेकर जो डर मौजूद था, वह डर अब नहीं दिखाई दे रहा है। विरोधाभासी बात यह है कि एक ओर कोरोना पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ रही है और दूसरी तरफ, डर भले ही हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गया हो, लेकिन अपना प्रभाव खो बैठा है।
उम्मीद लगाई गई थी कि अब दुनिया ज्यादा चौकन्नी होगी और कोरोना इंसानी डर को इतना विस्तार देगा कि हम सैंकड़ों साल के सामाजिक तौर-तरीकों को एक झटके में बदल देंगे। यदि न भी बदलना चाहें तो सरकार बाध्य करेगी कि हम नए कायदों का पालन करें। यह सही है कि अब लोग तपाक से गले नहीं मिलते, आगे बढ़कर हाथ नहीं मिलाते, बराबर से गुजरता हुआ कोई व्यक्ति छींक दे अथवा खास दें तो उसके प्रति सतर्क हो जाते हैं। हमारे बीच के पढ़े-लिखे और जागरूक लोग सोशल डिस्टेंसिंग का भी पालन कर रहे हैं और यदि कोई बिना मास्क के दिख जाए या शारीरिक निकटता दिखाए तो उसे आसानी से टोक भी देते हैं। पर, क्या ये सब कुछ हमेशा बना रहेगा ? सरकारों ने शुरू में बहुत व्यापक स्तर पर नियम-कायदे बनाए और लागू किए, लेकिन धीरे-धीरे इन नियम-कायदों में व्यापक स्तर पर छूट दी गई और अब स्थिति यह है कि सरकार खुद व्यवहारिकता की बात कह रही है। मसलन, यदि सोशल डिस्टेंसिंग को कड़ाई से लागू किया जाए तो भारत में हवाई यात्रा आर्थिक रूप से सरवाइव नहीं कर पाएगी। एक और उदाहरण, शुरु में सभी ट्रेनों में बीच की बर्थ को खाली रखने का निर्णय लिया गया, लेकिन फिर इस निर्णय को बदल दिया गया। अब पुराने दिनों की तरह ही ट्रेन की सीट कैपेसिटी के अनुरूप लोग बैठाए जा रहे हैं। राज्यों ने अपने परिवहन निगमों से कहा कि आधी संख्या में लोगों को बैठा कर बस चलाएं, लेकिन सवाल आर्थिक वायबिलिटी का है। यदि आधी सवारियां बैठेंगी तब या तो किराया दोगुना करना पड़ेगा या बसें बन्द रहेंगी।
फिलहाल, स्कूल-कॉलेज, मॉल-सिनेमाघर, होटल-रेस्टोरेंट, शादी-ब्याह और धार्मिक उत्सवों को छोड़ दें तो जिंदगी लगभग उसी ढंग से चलने की कोशिश कर रही है जैसे कि अब से दो महीने पहले चल रही थी। संभव है कि लॉकडाउन के अगले चरण में शहरों के भीतर चलने वाला ट्रांसपोर्ट चाहे, उसमें मुंबई की लोकल हो या फिर दिल्ली मेट्रो अथवा अन्य किसी बड़े शहर का कोई अपना साधन, वे भी पुराने ढंग से ही चलने लगेंगे।
शायद यह बात सच हो कि सरकार ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है। इसलिए लोगों की जिम्मेदारी है कि खुद बचना सीखें। एक बार फिर उसी बिंदु पर लौट कर आते हैं कि समाज और व्यवस्था के भीतर जो कुछ बदलना था, क्या वह पूरी तरह बदल गया ? इसका जवाब है- शुरुआत में वह काफी तेजी से बदला और फिर धीरे-धीरे सब कुछ उसी पुराने ढर्रे पर आ गया। उदाहरण देख लीजिए आसपास के लोग अब काफी संख्या में रेस्टोरेंट्स को खाने का ऑर्डर भेज रहे हैं, ऑनलाइन कंपनियों के सामान पहुंचाने वाले कर्मचारी गली-गली, घर-घर पहुंच रहे हैं।
कुछ दिन पहले तक मीडिया के एक हिस्से में खासतौर से सोशल मीडिया में कहा जा रहा था कि अब लोगों की खान-पान की आदतें बदल जाएंगी, लोग केवल अपने घर का बना हुआ ही खाएंगे, पुराने ढंग से चौकड़ी लगाकर गप्पबाज़ी का दौर खत्म हो जाएगा, लोग एकदम सटकर बसों और ट्रेनों में नहीं बैठेंगे, बाजारों में पुराने दिनों जैसी भीड़ नहीं जुटेगी, पर यह आधा सच है। यदि आप किसी बड़े शहर में रहते हैं, चाहे वह दिल्ली हो, मुंबई हो या फिर हैदराबाद जाम लगने के पुराने सीन दोबारा सामने आने लगे हैं और केवल बड़े शहरों की बात नहीं है देहरादून या फिर इसी स्तर के अन्य शहरों में भी बाजार भीड़ से पट गए हैं।
इस वक्त जो जहां ठहरा हुआ था, वहां से निकलना चाह रहा है। इसी का परिणाम है कि एक दिन के भीतर कई लाख लोगों ने रेल यात्रा के लिए टिकट बुक कराए हैं। जैसे-जैसे सरकार ट्रेनों की संख्या बढ़ाएगी, यात्रियों की संख्या लगभग पुराने स्तर पर पहुंच जाएगी। इस दौर में जितने लोगों के परिवारों में विवाह-उत्सव को टाला गया है, वे हालात ठीक होने की बजाय इस बात की ज्यादा प्रतीक्षा कर रहे हैं कि लोगों की आवाजाही मुक्त हो जाए तो फिर वे भी अपने रिश्तेदारों और मित्रों-परिचितों को बड़ी संख्या में बुला सकें।
भले ही सामाजिक, मनोवैज्ञानिक अध्ययन यह कहते हैं कि अब सामान्य शिष्टाचार के मामले में बहुत कुछ बदल जाएगा। मसलन, दफ्तरों के भीतर काफी कुछ परिवर्तित होगा, पुराने दिनों की तरह लोग एक-दूसरे के साथ सटे हुए ढंग से बैठ कर काम नहीं करेंगे, ना ही समुद्र तटों पर मौजमस्ती के पुराने दिन होंगे और ना ही मोहल्ले की किटी पार्टियां होंगी। यह भी कहा जा रहा है कि कोरोना और लॉकडाउन ने पढ़ने पढ़ाने के तौर-तरीके भी बदल दिए हैं। अब पहली क्लास से लेकर पीएचडी तक का विद्यार्थी नए ढंग से पढ़ रहे हैं। और हम यह भी मान रहे हैं कि शायद आने वाले दिनों में भी ये गतिविधि इसी रूप में जारी रहेगी। पर इन सबके साथ ‘लेकिन’ शब्द का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। अपने पड़ोस में देखिए या पड़ोस के पार्क में देखिए, दिन ढलने के बाद घूमने वालों की संख्या देखिए, मोहल्ले में आने वाले रेहडी-ठेली वालों को देखिए, दफ्तर जाने वाले लोगों का हुजूम देखिए तो लगता है कोरोना ने जो सबक सिखाने का निर्णय लिया था, वे सबक अब गठरी में बंद कर एक कोने में रख दिए गए हैं।
लोग इस अंदाज में हैं कि देखेंगे, कोरोना कितनी बड़ी चोट देगा। ये चोट ज्यादा बड़ी होगी तो कुछ बदलाव कर लेंगे। फिलहाल तो हम सभी कोरोना के साथ जी रहे हैं। कोरोना की हार तो होगी, लेकिन ऐसा ना हो कि इस जीत के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़े इसलिए ‘न्यू नॉर्मल’ के प्रभाव में आने से बचिए और नियम-कायदों का कायदे से पालन कीजिए। हम में से किसी ने भी बचाव के लिए ‘कवच-कुंडल’ नहीं पहने हुए हैं।
(साभारः श्री सुशील उपाध्याय, उप सचिव उत्तराखंड हिंदी अकादमी की फेसबुक वाल https://www.facebook.com/sushil.upadhyay.754)