वर्चुअल दुनिया का आज समाज में जिस तरह का बोलबाला बढ़ रहा है उससे तो घरों में अबोला पसरा और परिवेश में आक्रोश ही बढ़ा है। सामाजिक ताने-बाने से विश्वास रीत रहा है और पारिवारिक संबंधों में साथ-सहयोग का भाव नदारद है, साथ ही रोजगार हो या रोजमर्रा की आपाधापी,हर मोर्चे पर जीवन से जुड़ी परिस्थितियां कठिन ही हुई हैं। मन का बिखराव और जीवन का अर्थहीन विस्तार आज कटु सच बन गया है। आपाधापी की परिस्थितियों में कब किसका मन टूट रहा है,न कोई जानता है,न कोई जानना चाहता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार,कामकाजी परेशानियों से लेकर रिश्तों में अलगाव की भावना,दुर्व्यवहार, हिंसा,पारिवारिक उलझनें,मानसिक समस्याएं,शराब की लत और वित्तीय नुकसान जैसे अहम कारण आत्महत्याओं के आंकड़े बढ़ा रहे हैं। हाल के वर्षों के ये आंकड़े समग्र समाज के समक्ष ताजा आंकड़े कई सवाल खड़े करने वाले हैं।
वर्तमान दौर में आभासी अथवा असल दुनिया में अधिकतर लोग औपचारिकता और दिखावे का मुखौटा पहनकर भावनात्मक रूप से खुद को अकेला ही महसूस करते हैं। जिसका नतीजा यह दिखाई दे रहा कि लोग में अवसाद और मन-मस्तिष्क की टूटन हो रही है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, अवसाद की दुनिया दूसरी सबसे बड़ी बीमारी बन चुका है। बावजूद इसके मानसिक परेशानियों से टूटे मन की पीड़ा को समझने के बजाय या तो मजाक बना दिया जाता है या उपेक्षा का भाव रखा जाता है। यह बर्ताव भी जीवन से हारने का कारण बनता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार,वैश्विक स्तर पर 15 से 29 साल के युवाओं में मौत का सबसे बड़ा कारण आत्महत्याओं का है। विश्व स्वास्थ्य संगठन काफी समय पहले ही आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के तौर पर रेखांकित कर चुका है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में तो हालात भयावह ही कहे जाएंगे कि देश में 2021 में प्रति एक लाख की आबादी पर आत्महत्या के मामलों की राष्ट्रीय दर 12 प्रतिशत रही है। यह विडंबना ही है कि पारिवारिक मोर्चे पर सुदृढ़ माने जाने वाले भारतीय समाज में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों की एक वजह घर-परिवार से जुड़ी समस्याएं देखी जा रही हैं। ध्यान रहे कि घरेलू जीवन से जुड़ी परेशानियां जिंदगी के हर पहलू को गहराई से प्रभावित करती हैं। जीवन के किसी भी मोर्चे पर आई समस्याओं की उलझन के दौर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परिवार ही बड़ा सहारा बन सकता है। मौजूदा दौर में कहीं भावनात्मक टूटन और व्यावहारिक उलझनों के जाल में फंसे लोगों को परिजनों का साथ भी नहीं मिल पा रहा,तो कहीं परिवार के छोटे-बड़े सदस्य मिलकर सामूहिक आत्महत्या जैसा पीड़ादायी कदम उठा रहे हैं।
असल में डिजिटल जीवनशैली ने भी इस मोर्चे पर काफी मुसीबत बढ़ाई है। आभासी माध्यमों के जरिये दुनिया से जुड़ने की जद्दोजहद और अनदेखे-अनजाने चेहरों संग संवाद का चलन अधिकतर लोगों को आत्मकेंद्रित बना रहा है। सामाजिक संवाद के खत्म होते दायरे ने अकेलेपन को वास्तविक जीवन का स्थायी हिस्सा बना दिया है। वर्चुअल दुनिया के अपडेट्स यह समझने ही नहीं देते कि कोई किस मनःस्थिति से गुजर रहा है? ऐसे में यह पूरे समाज की जिम्मेदारी है कि किसी के मन की टूटन सहयोग और संवेदनाओं भरे साथ के बिना जीवन से हारने की ओर न ले जाए। व्यवस्थागत सुधारों के साथ ही धैर्य, सकारात्मक सोच और परिवेश का सहयोगी बर्ताव ही जीवन बचाने में अहम भूमिका निभा सकता है।