✍️ सुभाष चन्द्र जोशी ©



शेर सिंह का शरीर पत्थर की तरह था। छः फीट ऊँचाई, चौड़ा सीना और मजबूत बाहें थी उसकी। गाँव में सबसे ताकतवार इंसान माना जाता था उसे। गाँव के हर छोटे-बड़े काम में उसकी सक्रिय भूमिका रहती थी। शरीर की तरह मन भी उसका मजबूत था। हर काम को वो पूरी लगन से करता था। मई का महीना था। गाँव में खेती बागवानी का काम चल रहा था। एक दिन उसने अपने छोटे भाई से कहा ‘‘हरि सिंह अब पहाड़ पर जाकर शिलाजीत निकालने का समय आ चुका है।’’ पूरी तैयारी के साथ दोनों भाई पहाड़ की ओर निकल पड़े। पहाड़ जहाँ सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। वही पहाड़ आयुर्वेदिक औषधियों के लिए भी जाना जाता है। पहाड़ पर खनिजों और जड़ी-बूटियों से एक गाढ़ा भूरे रंग का चिपचिपा पदार्थ ‘‘शिलाजीत’’ ऊँची चट्टानों पर मिलता है। यह मई और जून के माह में अधिकतर मिलता है। ‘‘शिलाजीत’’ को निकालने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती है। चट्टान से ‘‘शिलाजीत’’ निकालना सबकी बस की बात नहीं है। पर शेर सिंह के लिए यह काम आसान था। वह बन्दर की भाँति ऊँचे से ऊँचे पहाड़ पर चढ़ जाता था। उस दिन वो दोनों भाई घर से कलेवा लेकर चल पड़े। रास्ते में गाँव के कई लोग मिले। वह सभी शेर सिंह को ठीक से चढ़ने की हिदायत देने लगते। चलते-चलते दोपहर हो गयी। ऊँची चट्टान की तलहटी पर पहुँचते दोनों भाईयों ने पहले खाना खाया। फिर थोड़ा आराम करने के बाद शेर सिंह ने अपने भाई को चट्टान की तलहटी में रूकने को कहा और खुद चट्टान पर चढ़ने लगा। चट्टान के शिखर पर पहुंचकर वह ‘‘शिलाजीत’’ रिसने वाली जगह पर पहुँचने की सोच ही रहा था कि उसकी नजर काले रंग के चिपचिपे तरल पर पड़ी जो चट्टान के बायी ओर से टपक रहा था। लेकिन वहाँ पहुँचना कठिन था। बड़े प्रयास के बाद रस्सी के सहारे शेर सिंह वहाँ पहुँचने में कामयाब हो गया। उसने काफी मात्रा में ‘‘शिलाजीत’’ एकत्रित कर लिया था। ऊपर से एकत्रित हुए ‘‘शिलाजीत’’ को रस्सी के सहारे नीचे खड़े हरि सिंह की ओर बढ़ा दिया। इस बार पिछले वर्षों के मुकाबले अधिक ‘‘शिलाजीत’’ एकत्रित कर लिया था। लेकिन फिर भी शेर सिंह का मन नहीं भरा। वह ‘‘शिलाजीत’’ की ढूंढ में चट्टान से नीचे उतरने का प्रयास करने लगा। वह एक ऐसी जगह रूक गया जहाँ बहुत सारा ‘‘शिलाजीत’’ था। वह उसे एकत्रित करने की कोशिश में जुट गया। पर एकाएक उसका पैर फिसल गया और वह चट्टान से नीचे गिर गया। नीचे गिरते उसकी हड्डियाँ टूट गयी। किसी तरह गाँव वाले उसे निकालकर अस्पताल ले गये। बहुत कोशिश के बाद डाक्टर शेर सिंह को बचाने में कामयाब हो गये। वह लम्बे समय तक बिस्तर पर पड़ा रहा। धीरे-धीरे शेर सिंह स्वस्थ होने लगा, पर उसमें पहले वाली ताकत नहीं थी। वह एक अस्वस्थ व्यक्ति की भाँति लग रहा था। कई वर्षों बाद वह सामान्य जीवन जीने लगा था, लेकिन इस घटना ने शेर सिंह को अन्दर से तोड़ दिया था। वह अब चट्टान से ‘‘शिलाजीत’’ निकालने के कार्य करने की सोच भी नहीं पा रहा था। समय बीतता गया और समय के साथ कई चीजें बदल गई, लेकिन पहाड़ से निकलने वाला ‘‘शिलाजीत’’ आज भी उसी तरह गिरता है। बस उसे निकालने की हिम्मत शेर सिंह के गाँव में अब कोई नहीं कर पाता है।