कमल किशोर डुकलान, रुड़की, हरिद्वार (उत्तराखंड)
बांसन्तिक नवरात्र और रामनवमी के पर्व का सनातन संस्कृति में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के चरित्र से गहरा संबंध है। सृष्टि की संचालिका आदिशक्ति की आराधना का यह उत्सव हमें यह प्रेरणा देता है कि यम, नियम, व्रत-उपवास के द्वारा सूक्ष्म व स्थूल कार्मेंद्रियों की शुचिता और आत्म-अनुशासन की दृढ़ता से श्री राम के मर्यादित, पुरुषोत्तम स्वरूप को पाया जा सकता है…
बासंतिक नवरात्र मां आदिशक्ति की आराधना का उत्सव ईश्वर के प्रति आत्मनिष्ठा भारतीय संस्कृति का एक दार्शनिक पक्ष है,भारतीय बहुलतावादी उत्सवधर्मिता इसका एक जीता-जागता व्यावहारिक पक्ष है। वास्तव में अगर देखा जाए तो यहां की उत्सवधर्मिता जीवंतता की कसौटी है। पश्चिमी सभ्यता में उत्सव के बजाय ‘सेलिब्रेशन’ को अहमियत दी जाती है, जबकि भारतीय संस्कृति के संदर्भ में व्यक्ति का अंतर्मन जीवंतता से प्रफुल्लित हो उठता है और उत्सव की स्वाभाविकता का प्रकटीकरण होता है।
भारतीय सनातन संस्कृति में चैत्र नवरात्र की नवमी तिथि में श्री रामनवमी मनाई जाती है। असल में चैत्र नवरात्र को सृष्टि की संचालिका आदिशक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ कालखंड माना गया है। यह उत्सव हमको यह प्रेरणा देता है कि नौ दिनों तक यम, नियम, व्रत-उपवास के द्वारा सूक्ष्म व स्थूल कार्मेंद्रियों की शुचिता और आत्म-अनुशासन में दृढ़ता से राम के मर्यादित और पुरुषोत्तम स्वरूप को पाया जा सकता है।
राम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘रम’ क्रीड़ायाम धातु से हुई है अर्थात प्रत्येक मनुष्य के अंदर रमण करने वाला जो चैतन्य-स्वरूप आत्मा का प्रकाश विद्यमान है ,वास्तव में वही राम है। राम को शील-सदाचार, मंगल-मैत्री, करुणा, क्षमा, सौंदर्य और शक्ति का पर्याय माना गया है। जब कोई व्यक्ति सतत साधना के द्वारा अपने संस्कारों का परिशोधन कर राम के इन तमाम सद्गुणों को अंगीकार कर लेता है तो उसका चित्त इतना निर्मल और पारदर्शी हो जाता है कि उसे अपने अंत:करण में राम के अस्तित्व का अहसास होने लगता है। कदाचित यही वह अवस्था है जब संत कबीर के मुख से निकला होगा:-
‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में। ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद,ना काबे कैलाश में।’
भगवान श्री राम राजा दशरथ और कौशल्या के ज्येष्ठ पुत्र थे। संस्कृत भाषा में राजा दशरथ का शाब्दिक अर्थ है- दस रथों का मालिक। अर्थात जो मनुष्य के अन्दर पांच कर्मेंद्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियों का स्वामी ही दशरथ हैं। कौशल्या का अर्थ है-‘कुशलता’ जब कोई अपनी कर्मेंद्रियों पर संयम रखते हुए अपनी ज्ञानेंद्रियों को मर्यादापूर्वक सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है तो उसका चित्त स्वाभाविक रूप से राम में रमने लगता है,और मनुष्य के लिए पूजा-अर्चना की तमाम सामग्रियां गौण हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना सहज और सरल हो जाता है कि वह जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों का स्थितप्रज्ञ होकर मुस्कुराते हुए सामना कर लेता है। भारतीय जनमानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है कि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं,बल्कि उनका महत्व इसलिए भी है,क्योंकि उन्होंने उन तमाम कठिनाइयों का सामना बहुत ही सहजता से किया। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए भी कहते हैं,क्योंकि भगवान श्री राम ने अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी स्वयं को बेहद गरिमापूर्ण रुप से रखा।
भगवान विष्णु का अवतार श्री राम को उनके सुख-समृद्धि पूर्ण व सदाचार युक्त शासन के लिए याद किया जाता है। भारतीय संस्कृति में अगर आस्था का प्रकटीकरण करना हो तो सबसे पहले राम ही याद आते हैं। उनका बाल्यकाल से लेकर प्रयाणकाल तक की सम्पूर्ण लीलाएँ धर्म व मर्यादा पर आधारित रही हैं जिस कारण उन्होंने अनन्त कोटि ब्रह्मांडनायक परब्रह्म होते हुए भी पारिवारिक जीवन में मर्यादा का इतना उत्कृष्ट आदर्श प्रस्तुत किया कि वे समस्त विश्व में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहकर संबोधित किए जाने लगे ।
अगर हम राम शब्द का सन्धि विच्छेद करते हैं तो ‘रा’अक्षर के उच्चारण मात्र से सारे संचित पाप शरीर से निकल जाते हैं और ‘म’ अक्षर वह द्वार है जो पापों के निकलते ही बंद हो जाता है जो पुन: पापों के संचय को रोकता है। सप्तपुरियों में मोक्षदायिनी शब्द इसीलिए लगा है अयोध्या भी उसमें से एक मोक्षदायिनी पुरी है। राम भारत की सनातनी सांस्कृतिक चेतना हैं इसलिए राम के प्रति आस्था,धर्म के विचार के परे जाकर प्रकट होती है। ऐसा उदाहरण संभवत: विश्व की किसी भी अन्य संस्कृति में नहीं मिलता है,जहां किसी एक आराध्य की जीवन गाथा को मानवीय धरातल पर इतने गहराई से एकाकार होकर अंगीकृत किया जाता हो। यह इसलिए भी संभव हो पाता है,क्योंकि राम के जीवन के सभी पहलू कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में सबके जीवन के साथ एकाकार होते हैं। इसलिए पश्चिमी देशों में अपने पूर्वजों की धरोहर को संजोकर रखने वाले संग्रहालय में रामचरितमानस का गुटका प्रमुख आकर्षण होता है। जिसने राम को नहीं जाना उसने अपने आपको नहीं जाना। जिससे राम का परिचय नहीं हुआ,वह अपने आपसे अपरिचित रह गया। इसलिए देव होते हुए भी राम अपने लगते हैं। जो श्वास के साथ जीवन के प्रमुख तंतु के रूप में जुड़ जाते हैं और व्यक्ति को उसमें तल्लीन कर देते हैं।
संस्कृत के विद्वान कवि महाकवि भास, कालिदास और भवभूति आदि कवियों ने श्रीराम को कुल रक्षक,आदर्श पुत्र,आदर्श पति,आदर्श पिता, धर्म-संस्थापक और आदर्श प्रजापालक जैसे चरित्रों को प्रजा के सामने रखा। महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में इक्ष्वाकु वंश का वर्णन किया तो महाकवि भवभूति ने उत्तर रामचरितम् में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़े हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो श्रीराम के आदर्श चरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा है।इसलिए यह कहा जा सकता है कि रामचरितमानस में श्री राम की आदर्श की संपूर्णता वास्तव में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ही प्रदान की है। रामचरितमानस एक ऐसी कालजयी रचना है जो भारतीय मनीषा के समस्त लौकिक,पारलौकिक, आध्यात्मिक,नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को श्रीराम के चरित्र से जोड़ती है।
रामनवमी का उत्सव समूची मानव जाति के लिए उल्लास का उत्सव है,यह उत्सव अपने ‘स्व’ को अनुभूत करने का उत्सव है। यह पर्व धर्म की स्थापना एवं बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक पर्व है, आज भी अंधेरों से संघर्ष करने के लिये इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी पर्व की संस्कृति को जीवंत बनाने की जरूरत है।
हम सब भी मन में सबके प्रति सद्भाव रखते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जैसा आचरण करेंगे तो समूचे विश्व के मंगल की कामना में हमारी आस्था में श्रीराम का सही प्रकटीकरण होगा।
Jai shree Ram