भारतीय संस्कृति और परमपराओं में राम-राम, नमस्कार या प्रणाम आदि सम्बोधनों से हाथ जोड़कर अभिवादन करना व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समष्टि से जोड़ने वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां हैं। कोविड-19 जैसे संक्रमण बचाव में अमेरिका सहित अनेक देश इसे स्वत:ही श्रेष्ठ सिद्ध कर चुके हैं………भाषा पर वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार “हिन्दी या भारतीय भाषाएं पढ़ते और लिखते समय मस्तिष्क के दोनों तरफ के गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं। जबकि अंगरेजी पढ़ते समय केवल बांया ही जागता है।” यह वैज्ञानिक मत है कि बांया मस्तिष्क तर्क, विश्लेषण, खण्ड खण्ड दृष्टि और गणित से सम्बध्द है जबकि दांया गोलार्द्ध आत्मीयता,भावना, संवेदना, कला, दया, ममता, करुणा, संगीत, काव्य, वात्सल्य, वस्तु को समग्रता से देखने आदि का प्रतिनिधित्व करता है। उक्त अध्ययन के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी या भारतीय भाषा पढ़ने वाले व्यक्ति का विकास संतुलित रूप से रहने की सम्भावना अधिक रहती है……



मातृभाषा किसी व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति या राष्ट्र की पहचान होती है। वास्तव में भाषा एक संस्कृति ऐसी संस्कृति है, जिसमें भावनाएं, संस्कार, विचार और परम्परागत जीवन पध्दति समाहित हैं। मातृभाषा ही पौराणिक परम्पराओं और संस्कृति से जोड़े रखने की एक मात्र महत्वपूर्ण कड़ी है। राम-राम, नमस्कार या प्रणाम आदि सम्बोधन व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समष्टि से जोड़ने वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां हैं । उदाहरण के लिए आजकल अंंग्रेजी भाषा शिक्षण के व्याप्क बढ़ने के कारण प्रथम सम्बोधन के समय हम हाथ मिलाकर गुड मार्निंग का प्रचलन चल पड़ा है। जबकि हमारी संस्कृति और परमपराओं में हम एक-दूसरे का अभिवादन दोनों हाथों को जोड़कर राम-राम या जय श्रीराम का उच्चारण करते हैं। यह उच्चारण एक तरफ हमें मर्यादा अथवा सम्बन्धित भगवान की विशेषता के कारण अर्जित युग-युगान्तकारी ख्याति की याद दिलाता है तो वहीं दूसरी ओर राम जैसे शब्दों का उच्चारण हमारी अन्त:स्रावी (एंडोक्राइन) ग्रंथियों को योग की भाषा में चक्रों को सकारात्मक रूप से प्रभावित भी करता है। हाथ मिलाकर हम रोगकारी जीवाणुओं के विनिमय से भी बच जाते हैं। भारत सहित पूरे विश्व में कोविड-19 जैसे संक्रमण से भारत सहित पूरा विश्व प्रभावित है अपने देशवासियों को इस संक्रमण से बचाने के लिए अमेरिका सहित कहीं देशों ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करने का अभियान चलाया हुआ है। ताकि इस संक्रमण से काफी हद तक बचा जा सकें।यानी हाथ जोड़कर अभिवादन करना व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समष्टि से जोड़ने वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां स्वत:ही श्रेष्ठ सिद्ध हो चुकी हैं।
बचपन में हम देखते थे कि पहले घर के बाहर स्वस्तिक बने होते थे या सुस्वागतम् लिखा होता था किन्तु अब पश्चमी सभ्यता के प्रचलन के कारण अब कुत्तों से सावधान रहिए लिखा होता है।
अमेरिकी वैज्ञानिक बोविस ने अध्ययन के बाद यह सिद्ध किया कि ऊं, सुस्वागतम् या स्वस्तिक से सर्वाधिक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह विश्व की समस्त धार्मिक या अन्य आकृतियों के मुकाबले अनेक गुना ऊर्जा देने वाली आकृति है, जिससे एक मिलियन बोविस ईकाई की ऊर्जा निकलती है। इसी प्रकार पहले हमारे साथ कुछ अनपेक्षित घटित हो जाता था तो हम भगवान का नाम (हाय राम, या हे भगवान आदि) लेते हैं। इस तरह हमारी अपेक्षा परमात्मा की कृपा पाने की होती है, ताकि परमात्मा को याद दिला सकें कि तेरी कृपा की जरूरत है, जबकि इन दिनों नई पीढ़ी ऐसे अवसरों पर ओह शीट अर्थात् मानव मल को याद करती है, दूसरे शब्दों में कहें तो तत्कालीन अनपेक्षित स्थिति में उनकी अपेक्षा विष्ठा से मदद की हो गई है। भारतीय परम्पराओं के अनुसार तो ऐसे विकट या संकट की घड़ी में भगवान के नाम की तरह अशुभ वस्तु का स्मरण अनिष्ट को आमन्त्रित करने जैसा माना जाता है। विदेशों में सुबह के नमस्कार के लिए गुड मॉर्निंग शब्द का उपयोग होता है। वास्तव में यह गुड मार्निंग शब्द एक तरह से शुभकामना है कि आपको आज सूर्य के दर्शन हो जाएं, क्योंकि कई देशों में सूर्य भगवान साल में केवल 150 -200दिन ही दिखाई देते हैं। इस कारण वहां के लगभग 20% नागरिक सर्दियों में सीजनल अफेक्टिव डिसआर्डर (सेड)से ग्रस्त हो जाते हैं। हम पर तो सूर्य भगवान की कृपा वर्ष के पूरे 365 दिन होती है। हमारी तो हर सुबह उस दृष्टि से वैसे ही शुभ कल्याणकारी होती है। हाथ जोड़ने, नमन करने या झुकने की अपनी वैज्ञानिकता है। अर्थात् एक भाषा के नष्ट होने का अर्थ संस्कृति,विचार परम्परा या जीवन पद्धति का नष्ट हो जाना है।
देखा गया है कि देवनागरी भाषा एख ऐसी भाषा है, जिसमें जीभ के सभी स्नायुओं का उपयोग होने के साथ रक्त संचार बढ़ता है, मस्तिष्क शान्त व क्रियाशीलता के साथ शरीर में स्फूर्ति रहती है। इसके अतिरिक्त रोग रोधक शक्तियों का विकास व बीमारियों से बचाव भी होता है।

भाषा पर वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार “हिन्दी या भारतीय भाषाएं पढ़ते और लिखते समय मस्तिष्क के दोनों तरफ के गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं। जबकि अंगरेजी पढ़ते समय केवल बांया ही जागता है।” यह वैज्ञानिक मत है कि बांया मस्तिष्क तर्क, विश्लेषण, खण्ड खण्ड दृष्टि और गणित से सम्बध्द है जबकि दांया गोलार्द्ध आत्मीयता,भावना, संवेदना, कला,दया,ममता,करुणा, संगीत, काव्य, वात्सल्य, वस्तु को समग्रता से देखने आदि का प्रतिनिधित्व करता है। उक्त अध्ययन के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी या भारतीय भाषा पढ़ने वाले व्यक्ति का विकास संतुलित रूप से रहने की सम्भावना अधिक रहती है।
यह बात सौ प्रतिशत सही है कि तर्क और गणित यानी आवश्यकता और उपयोगिता प्रधान व्यक्ति दया,ममता, करुणा आदि गुणों कि दृष्टि से पूर्ण विकसित नहीं होता। अंग्रेजी भाषा से बांया मस्तिष्क ज्यादा सक्रिय और विकसित होता है अथवा नहीं, इस बात का निर्णय दो तीन उदाहरणों से हम तय कर सकते हैं। सामान्यतः देखा गया है कि कॉनमैंट या अंग्रेजी माध्यम के स्कूल, कालेजों में पढ़ने वाली युगल दम्पियों के बीच में बात-बात पर तलाक की स्थिति आ जाती है। छोटी- छोटी बातों पर विश्वास खोता चला जाता है। कॉनमैंट या अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने वाली युगल दम्पियों में प्रेम और मित्रता का तर्क गणित यानी आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर चलता है जिस कारण से ये पवित्र सम्बन्ध भी ज्यादा लम्बे नहीं चल पाते हैं। अमेरिका जैसे देशों में मां-बाप अपनी सन्तानों को 14-15 साल की उम्र में आत्मनिर्भर होने के लिए कहने लगते हैं। कहीं-कहीं तो घर से ही निकाल दिया जाता है जबकि भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को सुशिक्षित करने के बाद ही आजीविका चलाने का आग्रह करते हैं,चाहे वे तीस साल के हो जाएंं। मेडिकल के विद्यार्थी तो 30-32 साल की उम्र के पहले जीविकोपार्जन लायक नहीं हो पाते हैं। जहां तक अपने लाड़लों को घर से निकालने का प्रश्न है,वह तो सामान्यतया भारत में असम्भव है। भारत में भी अंगरेजी माध्यम से पढ़े बच्चे, बड़े होकर (तर्क और गणित को ध्यान में रखते हुए) मां-बाप को पैसा तो भेज देते हैं,पर बेटों से श्रवणकुमार जैसे एक प्रतिशत आत्मीयता के लिए मां-बाप मरते दम तक तरसते रहते हैं। आजकल तो विवाह का आधार आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर होने लगा है कि पति या पत्नी की शिक्षा-दीक्षा एकदूसरे के व्यवसाय के अनुकूल होगी या नहीं। दाम्पत्य जीवन में यदि आवश्यकता और उपयोगिता का सिद्धान्त हावी होगा तो फिर दम्पति में परस्पर आत्मीयता का आविर्भाव भला कैसे होगा।बोया हुआ आवश्यकता और उपयोगिता का बीज ही तो फलीभूत होगा । कही-कहीं तो वापरो और फेंको (यूज एंड थ्रो) का सूत्र काम करने लगा है। मैं तो अमेरिकी वैज्ञानिक के आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर किये गये वैज्ञानिक अध्ययन को सौ प्रतिशत सही मानता हूं आजकल मां-बाप को घर से बाहर करने की घटनाओं के पीछे अंग्रेजी भाषा शिक्षण के हाथ को तर्क और गणित के आधार पर सही मानता हूं I फिर चाहे रेमंड कम्पनी के मालिक का मामला हो या फिर आशा साहनी के कंकाल की ही बात क्यों ना हो, सोचिए ना, क्या श्रवणकुमार के वाले देश का एक बेटा अपनी अकेली रह रही ममतामयी माता की खैर खबर साल डेढ़ साल तक क्यों नहीं ले रहा था।हालांकि इतनी घोर वीभत्स और अनपेक्षित घटनाएं अपवाद हो सकती हैं, परन्तु माँ-बाप को जमीन-जायदाद और धन के लिए अनाथालय या मार डालने का सिलसिला तो भारत में भी शुरू हो चुका है।

भाषा और मनोविज्ञान पर अभी तक हुए अध्ययनों के आधार पर मनोवैज्ञानिकों की स्पष्ट मान्यता रही है कि सम्प्रेषण की भाषा वही होना चाहिए, जिस भाषा मे वह सोचता और चिन्तन मनन करता है। वे मानते हैं कि इससे संप्रेषणीयता सटीक और सहज तो होती ही है, साथ-साथ व्यक्ति की ग्रहण क्षमता और कार्य क्षमता भी अधिक होती है। हमारे स्कूल, कालेज औरमहाविद्यालयों से यह बात सामने आई है कि विद्यालयीन परीक्षाओं में मेरिट में आने वाले विद्यार्थियों में उन विद्यार्थियों का वर्चस्व रहता है, जिनकी मेडिकल में प्रवेश के पूर्व पढ़ाई हिन्दी माध्यम से हुई है। भारतरत्न स्व.डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का मानना कि मातृभाषा में शिक्षा सर्वोत्तम परिणामदायी होती है। पाकिस्तान की एक प्रोफ़ेसर इरफ़ाना मल्लाह का कहना है कि मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने से बच्चों की रचनात्मक क्षमताओं में वृद्धि होती है जबकि दूसरी भाषाओं में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की यह क्षमता सीमित हो जाती है। उनका कहना है कि जो बच्चे विदेशी भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं वह अपने इतिहास और सभ्यता से दूर हो जाते हैं।
मातृभाषा सर्वश्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि मातृभाषा विद्यार्थी को आत्मविश्वासी और योग्य बनाती है।मातृभाषा में पढ़ाई से कक्षाओं में शिक्षक, विद्यार्थी के मध्य पारस्परिक ज्ञान का विनिमय अधिक और प्रभावी होता है। अनेक अध्ययनों और अब तक सरकार द्वारा किए गए भाषाई आयोगों के निष्कर्षों से ज्ञात हुआ है कि हिन्दी अथवा मातृभाषा में पढ़ रहे विद्यार्थी ज्यादा जिज्ञासु और आत्मविश्वासी होते हैं l शोध अध्ययनों और व्यक्तिगत अनुभवों में भी यह बात सामने आई है कि मातृभाषा से दूर करने पर या अंग्रेजी थोपने से विद्यार्थियों के ज्ञानार्जन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हैै।
देखा गया हैं कि बच्चों में भाषायी और व्याकरण सम्बन्धी समझ जन्मजात होती है। वे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं, अर्थात् सहज और स्वाभाविक व्याकरण उनकी जन्मजात (आनुवांशिक) संवेदनशीलता का संकेत देती है । जिस तरह तैराकी सिखाए बिना ही व्यक्ति को पानी में कूदने को कह दिया जाए,तो वह तैर नहीं सकता है,ठीक वैसे ही यदि विद्यार्थियों को ऐसी भाषा में निर्देश या उपदेश दिए जाएं जो उनकी समझ में न आती हो, तो वे विषय को ठीक से नहीं समझ पाएंगे।
ख्यातिलब्ध विद्वानों का कहना है कि ऐसे बच्चें जो अपनी प्रारम्भिक भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते हैं, उन्हें सीखने में ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और उनमें बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की सम्भावना ज्यादा बनी रहती है।

–कमलकिशोर—