-सुभाष जोशी

प्रत्येक वर्ष 5 जून को  ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने का संकल्प लेने के उद्देश्य से ही विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। ये समुद्री प्रदूषण, ओवरपॉपुलेशन, ग्लोबल वॉर्मिंग, सस्टनेबल कंजम्पशन और वाइल्ड लाइफ क्राइम जैसे पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने के लिए एक मंच रहा है, जिसमें 143 से अधिक देशों की भागीदारी रहती है। संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा मानव पर्यावरण के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से 1972 में इसकी शुरुआत हुई थी। पहली बार इसे 5 जून 1973 में विशेष थीम के साथ मनाया गया। प्रकृति के प्रति सकारात्मक रवैये को लेकर लोगों को जागरूक किया जाता है।
पर्यावरण में चमत्कारिक रूप से विद्यमान तथा जीवन प्रदान करने वाली वायु आज प्रदूषित होकर मानव जीवन के लिये खतरनाक और कुछ हद तक जानलेवा हो गई है। पर्यावरण से निरंतर छेड़छाड़ तथा विकास की अनियंत्रित भौतिक भूख ने आज इंसान को शुद्ध पर्यावरण से भी दूर कर दिया है। शुद्ध ऑक्सीजन की प्राप्ति मानव जीवन जीने की प्रथम शर्त है। लेकिन, जीवनदायिनी वायु में जहर घुलने से समस्त मानव जीवन अस्तव्यस्त हो गया है। लोग शुद्ध हवा में सांस लेने के लिये तरसते नजर आ रहे हैं। एक अमेरिकी शोध संस्था ने दावा किया है कि वायु प्रदूषण भारत में पाँचवाँ सबसे बड़ा हत्यारा है। गौरतलब है कि वायु प्रदूषण के कारण विश्व में 70 लाख, जबकि भारत में हर साल 14 लाख लोगों की असामयिक मौतें हो रही हैं।विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 10 व्यक्तियों में से नौ खराब गुणवत्ता की हवा में सांस ले रहे हैं। 
पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए वेदों में बहुत सी बातें कही गई है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने सदियों से पर्यावरण संरक्षण के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग किए। जिसका प्रमाण आज भी वेदों में उपलब्ध है। वेदों में कही गई बातें पर्यावरण संरक्षण के लिए एक औषधि के समान है यदि उनका अनुसरण किया जाए तो पर्यावरण संरक्षण एवं पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में काफी सहायता मिलेगी।
वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है। तत्त्वदर्शी ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असन्तुलन की समस्या ही उत्पन्न नहीं हो सकती।पर्यावरण-सन्तुलन से तात्पर्य है जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थितियों के बीच पूर्ण सामंजस्य। इस सामंजस्य का महत्त्व वेदों में विस्तारपूर्वक वर्णित है। कल्याणकारी संकल्पना, शुद्ध आचरण, निर्मल वाणी एवं सुनिश्चित गति क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की मूल विशेषताएँ मानी जाती हैं और पर्यावरण-सन्तुलन भी मुख्यतः इन्हीं गुणों पर समाश्रित है। है जो विलक्षण दैवीय शक्तियों से व्याप्त है, जिससे सृष्टि के समस्त जंगम एवं स्थावर, प्राणी व वनस्पति को चेतना, ऊर्जा एवं पुष्टि प्राप्त होती है। ‘‘द्योश्च म इदं पृथिवीं चान्तरिक्षं चमेव्यचः। अग्निः सूर्य आपो मेघां विश्वेदेवाश्च सं ददुः।’’ (अथर्ववेद 12/1/53) – अर्थात द्युलोक, पृथ्वी, अंतरिक्ष, अग्नि, सूर्य, जल एवं विश्व के समस्त देवों (ईश्वरीय प्रकृति शक्तियों) ने सृष्टि को व्याप्त किया है। इसीलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि पृथ्वी इन समस्त शक्तियों को ग्रहण करे एवं इन सभी शक्तियों के लिए भी सदैव कल्याणकारक रहे। पृथ्वी-पृथ्वीवासी-इन दैवीय शक्तियों को प्रदषित न करें। ‘‘सन्तेवायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाया हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मैदेव वषडस्तु तुभ्यम।।’’ (यजुर्वेद-11/39) – अर्थात उर्ध्वमुख यज्ञकुण्ड की भाँति पृथ्वी अपने विशाल हृदय को मातृवत प्राणशक्ति संचारक वायु, जल एवं वनस्पतियों से पूर्ण करें। वायुदेव दिव्य प्राणऊर्जा से संचारित होते हैं। अतः पृथ्वी (अपने दूषित उच्छवास-कार्बन उत्सर्जन) से उन्हें दूषित न करें। वर्तमान में अन्यथा की स्थिति के कारण ही वायु की प्राण पोषक शक्ति – ऑक्सीजन दूषित होकर सृष्टि के जीवन को दुष्प्रभावित कर रही है।
इस पर्यावरण के जनक इन पंचमहाभूतों से ही प्राणिमात्र की 5 ज्ञानेन्द्रियाँ प्रभावित एवं चेतन होती हैं। इन पंचमहाभूतों के गुण ही हमारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राण, मन, बुद्धि, कौशल, अहं अर्थात भौतिक, जैविक, आत्मिक एवं संस्कारिक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। आकाश का गुण शब्दः वायु का गुण शब्द एवं स्पर्श तेज (पावक-अग्नि) का गुण शब्द, स्पर्श एवं रूप, जल का गुण शब्द, स्पर्श, एवं रस (स्वाद) तथा पृथ्वी समस्त उपरोक्त चारों गुण सहित सुगंध गुण भी अर्थात समस्त गुणों को धारण करती है। इसी कारण पृथ्वी के प्राणी पंचमहाभूतों के 5 गुणों को धारित करते हैं एवं उनसे प्रभावित भी होते हैं। यह वैदिक ऋषियों द्वारा प्रस्तुत एक ऐसा सत्य है जिसकी वर्तमान में अवहेलना कर हम पर्यावरण सन्तुलन को समाप्त करते जा रहे हैं।
ऋषियों ने न केवल पर्यावरण को प्रदूषित करने के मानव जीवन एवं सृष्टि पर पड़ने वाले हानिकारक विनाशक परिणामों की ओर संकेत किया, अपितु पर्यावरण की रक्षा एवं हम जो कुछ प्रकृति देवों से प्राप्त कर रहे हैं, उसे उन्हें लौटाकर, पर्यावरण को प्रदूषित करने की अपेक्षा, उसे संरक्षित एवं संवर्धित करने का भी आदेश दिया है। ऋषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को शान्त करने व लोक कल्याणकारी बनाए रखने की प्रार्थना की है। अथर्ववेद में उल्लिखित शान्ति सूक्त का पर्यावरण रक्षण में अपरिमित महत्व है – ‘शान्ता द्यौः शान्ता पृथ्वी शान्तमिदमुर्वन्तुन्तरिक्षम्। शान्ता उदन्वतीरापः शान्ता नः सन्त्वोषधीः।।’’ (अथर्ववेद 19/9/1) शं नो मित्रः शं वरुणः शं विष्णुः शं प्रजापतिः। शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो भवत्वर्यमा।। अर्थात द्युलोक, पृथ्वी, विस्तृत अंतरिक्ष लोक, समुद्र जल, औषधियां ये सभी उत्पन्न होने वाले अनिष्टों का निवारण करके हमारे लिए सुख शान्तिदायक हों। दिन के अधिष्ठाता देव सूर्य (मित्र) रात्रि के अभिमानी देव वरुण, पालनकर्ता विष्णु, प्रजापालक प्रजापति वैभव के स्वामी इन्द्र, बृहस्पति आदि सभी देव शान्त हों एवं हमें शान्ति प्रदान करने वाले हों।
स्पष्ट है कि प्रकृति के प्रति असीम श्रद्धा का संकल्प ही पर्यावरण प्रदूषण से बढ़ती जा रही दुश्वारियां से बचा सकता है। साथ ही भारतीय संस्कृत में निहित जीवन मूल्यों का निर्वहन न केवल प्रकृति बल्कि मानव समाज के लिए अनुकरणीय है। आज के इस वैश्विक युग में पर्यावरण संरक्षण एक व्यक्ति या एक राष्ट्र की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि संपूर्ण विश्व में रहने वाले मानव समाज को प्रकृति के प्रति श्रद्धापूर्ण व्यवहार करने आवश्यक है। प्रकृति के संबंध में वेदों में कही गई बातें आज के इस दौर में प्रासांगिक हैं।

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