कमल किशोर डुकलान ‘सरल’


चैत्र शुक्ल वर्ष प्रतिपदा हिन्दू नववर्ष से ही लोक संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़ा पारम्परिक उत्तराखण्डी चैती गायन बसंत का अवसान चैत मास की रातों के साथ होता है। इसके चलते ही प्रकृति में चैत्र मास से श्रृंगार का सम्मोहन और भी बढ़ जाता है। यही वजह है कि चैत्र मास को मधुमास के नाम से जाना जाता है। कहां जाता है, कि चैत्र महीने के इसी महत्व को देखते हुए गीतकारों ने इसे काव्य शिल्प का नाम दिया है,जिसे हम चैती गायन के नाम से भी जानते हैं। चैत्र माह के महत्व को देखते हुए ही इस माह के लिए भारतीय लोक में एक विशेष संगीत रचना हुई है जिसे चैती कहते हैं। चैती में श्रृंगारिक रचनाओं को गाया जाता है। नव सम्वत्सर पर गांव की मातृशक्ति चौपाल में चैती गीतों का गायन करती है।चैती गीतों में विरह अथवा मिलने दोनों की श्रृंगारिक प्रधानता रहती है। इन गीतों में संयोग और विप्रलंभ दोनों भाव मिलते हैं। चूंकि चैत्र मास में ही रामनवमी का पर्व भी आता है,इसलिए चैती गीतों की हर पंक्ति के अंत में रामा कहने की प्रथा है। रामनवमी पर चैती गाने का एक प्रकार से विशेष उत्साह रहता है।
उत्तराखण्डी जन जीवन की गौरवशाली परम्पराएं चैती गायन में लौटती दिखती हैं।पहाड़ी जीवनशैली की एक विशेषता यह भी रही है,कि भौगोलिक और मौसमानुकूल विविधताओं के अनुसार ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति अपना रुप-रंग बदलती है।

चैत्र मास की संक्रांति से गाये जाने वाले चैती गीतों में लोक-मानस का समग्र रूप चित्रित हुआ है कहां जाए तो गलत नहीं होगा। जीवन का हर्ष-विषाद, श्रृंगार-वियोग,भक्ति-आस्था आदि सभी प्रकार का मिश्रण चैती में मिलता है। इसमें बसंत की मस्ती एवं इंद्रधनुषी भावनाओं का अनोखा सौंदर्य है। तभी तो चैत मास आते ही लोग इस पारंपरिक गीत को सुनने के लिए बेताब हो जाते हैं और इसके भावों से छलकती रसमयता लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है। चैती गीतों का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि कबीरदास जैसे कवियों ने भी अपने दोहों में चैती शैली में निर्गुण पदों की रचना कर डाली।
पिया से मिलन हम जाएब हो रामा,
अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी
पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।
कबीरदास जी का यह निर्गुण पद इस मोह की बानगी है।ऋतुसंहार’ में महाकवि कालिदास चैत की सुहानी संध्या,शुभ्र चाँदनी और कोकिला के मादक स्वर का वर्णन करते हुए कहते हैं,कि ‘चैत्र मास की वासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी शामें,छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक,सुगंधित पवन,मतवाले भौरों का गुंजार और रात में आसवपान-ये शृंगार भाव को जगाए रखनेवाले रसायन ही हैं

विविध रूपों में प्रेम की चैती गीतों में व्यंजना हुई है। इनमें संयोग शृंगार की कहानी भी रागों में लिखी हुई है। कहीं सिर पर मटका रखकर दही बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। कहीं कृष्ण-राधा के प्रेम-प्रसंग हैं तो कहीं राम-सीता का आदर्श दांपत्य प्रेम है। कहीं दशरथनंदन के जन्म का आनंदोत्सव है तो कही इन गीतों में दैनिक जीवन के शाश्वत क्रियाकलापों का चित्रण है। साथ ही इनमें चित्र-विचित्र कथा-प्रसंगों एवं भावों के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की कुरीतियाँ भी चित्रित हुई हैं। एक चैती गीत में बाल-विवाह की विडंबना चित्रित है।

चैती गीतों में विभिन्न कथानकों का समावेश पाया जाता है। इन गीतों में वसंत की मस्ती एवं इंद्रधनुषी भावनाओं का अनोखा सौंदर्य है। इनके भावों से छलकती रसमयता लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है। लोक के अपने अलग रंग हैं और इन्हें पसन्द करने वालों के भी अपने अलग वर्ग हैं लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो,उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है यह बात तो आंख मूंद के मान लेने वाली है।इस तरह इन चैती गीतों में जीवन के हर्ष-विषाद,शृंगार-वियोग,भक्ति-आस्था आदि से इन गीतों का सृजन लोक-मानस का समग्र रूप चित्रण हुआ है।
-रुड़की हरिद्वार (उत्तराखंड)

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