प्रमोद भार्गव

वजूद में आने के बाद से ही पाकिस्तान धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए जुल्म का सबब बना हुआ है। पाक के पंजाब प्रांत में गुरूद्वारा ननकाना साहिब के पास सिख ग्रंथी की बेटी के जबरन धर्म परिवर्तन और निकाह का मामला सामने आया है। वीडियो के जरिए इस लड़की ने परिजनों से मुक्ति की गुहार लगाई है। घटना से न केवल पाकिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यकों का गुस्सा भड़का हुआ है, बल्कि दुनिया भर का सिख समुदाय नाराज है। परिजनों ने बच्ची को अपहर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान और सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से मदद मांगी। लड़की के पिता ने पंजाब गर्वनर के घर के सामने आत्मदाह की धमकी दी है। इस मामले के तूल पकड़ने के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार उस्मान बुजदार ने जांच के आदेश दिए। पाक में जबरन धर्मांतरण के चलते महज आठ हजार सिख समुदाय के लोग शेष बचे हैं। बंटवारे के समय पाक में जो 22 प्रतिशत हिंदू थे, वे मात्र दो प्रतिशत रह गए हैं। जैन, बौद्ध और ईसाई समुदायों के साथ भी धर्मांतरण के लिए कुछ गिरोह बर्बरता अपनाए हुए हैं। साफ है, पाक में धर्मांतरण एक निरंतर प्रक्रिया में बदल गया है।
इसके पहले यहां के सिंध प्रांत में होली के दिन दो नाबालिग हिंदू लड़कियों के अपहरण और फिर जबरन धर्मांतरण कराकर निकाह का मामला चर्चा बना था। इन स्थितियों से पता चलता है कि पाक अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षित देश नहीं है। यहां गैर सुन्नी शिया और अहमदिया मुसलमान भी कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। गैर मुस्लिमों पर अत्याचार का आधार यहां अस्तित्व में आया कठोर ईश निंदा कानून है। इस कानून का सबसे अधिक दुरुपयोग हिंदुओं, सिख व ईसाईयों पर होता है। इस कारण पाकिस्तान से हिंदु लगातार पलायन भी कर रहे हैं, जो भारत के लिए चिंता का कारण है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ दहशतगर्दी का माहौल कट्टरपंथियों द्वारा सोची-समझी साजिश है। साजिश के तहत वहां पहले अल्पसंख्यकों की नाबालिग किशोरियों का अपहरण किया जाता है, फिर उनसे कोरे कागज पर दस्तखत कराए जाते हैं। जिसमें प्रेम के प्रपंच और इस्लाम के कबूलनामे की इबारत होती है। इसके बाद उसका किसी मुस्लिम लड़के से निकाह करा दिया जाता है। मजबूरी की यही दास्तान, अल्पसंख्यक परिवारों की कई लड़कियां बयान कर चुकी हैं। अल्पसंख्यकों पर जारी इन अत्याचारों की कहानी भारत के दक्षिणपंथी दल नहीं कह रहे, बल्कि इन सच्चाईयों का बयान पाकिस्तान का मीडिया और मानवाधिकार आयोग भी कर चुका है।
पाकिस्तान के प्रसिद्ध अखबार डाॅन ने अपने संपादकीय में लिखा है कि अल्पसंख्यक व्यापारियों व उनकी बालिकाओं के बढ़ रहे अपहरण, दुकानों में की जा रही लूटपाट, उनकी संपत्ति पर जबरन कब्जे और धार्मिक कट्टरता के माहौल ने अल्पसंख्यक समुदाय को मुख्यधारा से अलग कर दिया है। पाकिस्तान में जारी इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वहां के मानवाधिकार आयोग ने भी नाराजगी जाहिर की है। हिंदुओं के उत्पीड़न पर वहां की सुप्रीम कोर्ट भी दखल दे चुकी है, लेकिन सिंध, पंजाब और बलूचिस्तान प्रांतों में हिंदुओं पर इस तर्ज के अत्याचारों का सिलसिला थम नहीं रहा है। कई बार अपहरण कर धर्म परिवर्तित कर निकाह कराई गईं किशोरियां भी डर के चलते न्यायालय में सच्चाई उजागार नहीं कर पाती हैं, क्योंकि इन्हें परिजनों की हत्या करने की धमकी दे दी जाती है। इस बाबत दुनिया के कई मानवाधिकार संगठनों ने हृदय विदारक रिपोर्टें दी हैं, बावजूद भारत न तो इन जुल्मों का पाकिस्तान को कोई जवाब दे पाता है और न ही ठीक से संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर रख पाता है। लिहाजा पाक में रह रहे अल्पसंख्यक, मुस्लिम कट्टरपंथियों के रहमोकरम पर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। केंद्र की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार तो फिर भी इस तरह के मामले सामने आने पर माकूल जवाब दे रही है, किंतु पूर्व की केंद्र सरकारें लगभग मौन व उदासीन ही रही हैं। जबकि विभाजन के समय दोनों देशों के बीच जो समझौता हुआ था, उसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों को संपूर्ण सुरक्षा देने की प्रतिबद्धता जताई गई है।
इन अत्याचारों से मुक्ति का मार्ग तलाशते हिंदू धार्मिक तीर्थ यात्राओं के बहाने अस्थायी वीजा पर लगातार भारत आ रहे हैं। नतीजतन इस्लाम धर्माबलंबी देश पाकिस्तान में 17 करोड़ मुसलमानों के बीच हिंदुओं की आबादी बमुश्किल 27 लाख बची है। जबकि 1947 में इस आबादी का घनत्व 27 फीसदी था, जो अब घटकर महज दो फीसदी रह गया है। लाहौर स्थित जीसी विवि के प्राध्यापक कल्याण सिंह ने बताया है कि पाक में पिछले 15 सालों से सिखों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। जिसके चलते सिखों की संख्या महज 8000 बची है। हालांकि पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिया था कि उन्हें हर क्षेत्र में समानता का अधिकार होगा और वे अपनी धार्मिक आस्था के लिए स्वतंत्र होंगे। किंतु जिन्ना की मौत के बाद उनके समता के वचनों को दफना दिया गया।
सातवें दशक में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा का असली कारण बने जनरल जिया उल हक। उन्होंने नीतियों में बदलाव लाकर दो उपाय एक साथ किए, एक तरफ तो अफगानिस्तान में चल रहे संघर्ष के बहाने कट्टरपंथी मुसलमानों को संरक्षण देते हुए उन्हें अल्पसंख्यकों के खिलाफ उकसाने का काम किया। वहीं, दूसरी तरफ उनके मताधिकार पर प्रतिबंध लगाकर उन्हें अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया। यहीं से कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों को जबरन धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करने का सिलसिला शुरू कर दिया। देखते-देखते एक सुनियोजित साजिश के तहत नादान व नाबालिग अल्पसंख्यक लड़कियों का अपहरण और उनके बलात धर्म परिवर्तन की शुरुआत हुई, जिससे पाकिस्तान में बचे-खुचे अल्पयंख्यक भी पलायन की प्रताड़ना के लिए विवश हो जाएं। बाद के दिनों में पाकिस्तानी मदरसों की पाठ्य पुस्तकों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत की इबारत लिखे पाठ भी पढ़ाए जाने लगे। यह जानकारी पाकिस्तान के ही एक स्वयंसेवी संगठन ‘नेशनल कमीशन फाॅर जस्टिस एंड पीस’ की अध्ययन-रिपोर्ट से सामने आई। अलगाव के इन नीतिगत फैसलों के कारण हालात इतने भयावह और दयनीय हो गए हैं कि जो उदारवादी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की तरफदारी करने को आगे आते थे, उन्हें भी कट्टरपंथी सबक सिखाने लग जाते हैं।
पकिस्तान में ईशनिंदा कानून इतना कठोर व अव्यवाहरिक है कि वह किसी भी प्रकार की मानवीय संवेदनशीलता को बर्दाशत नहीं करता। रिमशा मसीह नाम की एक 14 वर्षीय ईसाई लड़की को कथित ईशा निंदा के आरोप में जिस तरह से हिरासत में लिया गया था, उसके बरअक्स पूरी दुनिया द्वारा दी गईं मानवाधिकार हनन की दलीलें बौनी साबित हो गईं थीं। रिमशा डाउन्स सिंड्रोम नामक मानसिक रोग से पीड़ित थी। अनेक चश्मदीदों का मानना था कि उसपर लगाए आरोप बेबुनियाद हैं। वैसे भी जो इंसान विवेक खो चुका है, उसपर किसी की भी निंदा करने का आरोप कहां तक जायज है? जबकि वह मनोरोगी के साथ नाबालिग भी थी। पाकिस्तान के इस्लामिक धर्मगुरूओं ने भी इस गिरफ्तारी को गलत मानते हुए निंदा की थी। अदालत ने भी इस मामले में मानवीयता का परिचय नहीं दिया था और उसकी हिरासत की अवधि बढ़ाती चली गई थी। इससे लगता है वहां की न्याय प्रणाली भी निष्पक्ष व निरापद नहीं है। दरअसल, ईशनिंदा कानून फिरंगी हुकूमत की ऐसी खुराफात थी, जिससे अल्पसंख्यक और मुसलमानों के बीच भेद और घृणा की खाई चौड़ी हो और सांप्रदायिक टकराव के हालात उत्पन्न हों। दो समुदायों के बीच विद्वेष बढ़ाने वाले इस कानून को खत्म कर देना चाहिए था, लेकिन यह अबतक अस्तित्व में बना हुआ है।
दुनिया जब मोबाइल की माया में सिमटकर छोटी होती जा रही है और मनुष्य चंद्रमा एवं मंगल पर रहने की तैयारियों में जुटा है, उस दौर में धार्मिक कट्टरता के बहाने पाकिस्तान में अल्पयंख्यकों के अस्तित्व को ही खत्म करने का सिलसिला समझ से परे है। सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी परंपराओं के खोल से पाक बाहर निकलता नहीं दिख रहा है क्योंकि यहां अल्पसंख्यकों के साथ बहुसंख्यकों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को रोकने में इमरान खान सरकार पूरी तरह नाकाम नजर आ रही है। इसके उलट यह एहसास हो रहा है कि वहां कट्टपंथियों के दबाव के चलते कानून और नैतिकता के मापदंड बौने साबित हो रहे हैं।
(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)