22 May 2025, Thu

पहाड़ का परम्परागत लौह शिल्प उद्योग

उत्तराखण्ड के पर्वतीय और मैदानी क्षेत्र के गांवों में स्थित लघु स्तर पर चलने वाली लौह शिल्प इकाईयों का वहां काश्तकारों से निकट का सम्बन्ध है। कुमाऊं में प्राचीन लौह शिल्प के विशेषज्ञों को आगरी कहा जाता था। ये लोग खानों से लोहा निकालने के साथ ही उसे गलाने के कार्य में निपुण थे। नैनीताल में रामगढ़-मुक्तेश्वर में आगर पट्टी के नाम का आधार भी इसी से हुआ माना जाता है। प्रदेश में लौह शिल्प की यह इकाईयां तकरीबन हर गांव में मिल जाती हैं। स्थानीय शिल्पी अपने घर के समीप स्थित कार्यशाला में ग्रामीणों के कृषि उपयोग में काम आने वाले यंत्र-उपकरण यथा हल की फाल, कुदाल, दरांती, कुल्हाड़ी तथा घरेलू काम की सामग्री जैसे चिमटा, संडेसी, जांती व तवा आदि का निर्माण करते हैं।

आफर की धधकती भट्टी में लोहे को गलाकर ये शिल्पी इन उपकरणों को तैयार करते हैं। गांव के निवासी इप उपकरणों के एवज में उन्हें आनाज, कपड़े अथवा धनराशि प्रदान करते हैं। किसी समय लोहाघाट के लौह शिल्पी बहुत प्रसिद्ध थे। उनकी कारीगरी से निर्मित लोहे की कड़ाहियां व भदेलों की बहुत मांग रहती थी। मकर संक्रान्ति को बागेश्वर व जौलजीवी के मेले में लोहाघाट के व्यापारी इन्हें बेचने आया करते थे। नैनीताल जनपद के रामगढ़-धारी (आगर पट्टी), दैचौरी, कालाढूंगी प्रक्षेत्र, पौड़ी जनपद के भरौन, अलमोड़ा जनपद में द्वाराहाट, चम्पावत जनपद में खेतीखान के समीप स्थित लुखानी तथा पिथौरागढ़ जनपद के राईआगर (डॉ. जीवन खर्कवाल, डॉ. धर्मपाल अग्रवाल व डॉ. दिवा भट्ट, 2010) में लौह अयस्क के भण्डारों की उपस्थिति मिलती रही है। माना जाता है कि इन जगहों पर किसी समय लौह खनन और उसके प्रगलन का कार्य होता था। अतः इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कभी पूर्व समय में इन जगहों के आसपास लौह शिल्प की इकाईयां व्यापक तौर पर अवश्य रही होंगी। इस दिशा में पर्याप्त शोध करनेकी जरुरत दिखती है।

सामाजिक इतिहास के विवरणों से ज्ञात होता है कि चंद राजाओं के समय अल्मोड़ा नगर के समीप कलमटिया/ कालीमट/कालीमठ नामक स्थान पर उनकी कार्यशाला व शस्त्रागार हुआ करता था। इसके बारे में स्थानीय जनश्रुति यह है कि एक बार चंद राजाओं के राजगुरु श्री बल्लभ उपाध्याय ने किसी बात पर अपनी मंत्र शक्ति से उस कार्यशाला में रखी गयी लौह सलाखों का होम कर दिया था। (इ.टी. एटकिंसन, 1886) शस्त्रागार में लोहे का होम कर दिये जाने के बाद राजगुरु और उनके वंशजों को लौहहुमी यानि लोहुमी/लोहुनी की उपाधि से सम्बोधित किया जाने लगा। कुमाऊं के अनेक गांवों में आज भी लोहनी/लोहुमी जाति के परिवार बसे हुए हैं।

पहाड़ के इस परम्परगत उद्योग के संदर्भ में वर्तमान समय में यह बात चिन्ताजनक है कि पर्वतीय गांवों में सिमटती खेती और लोगों के पलायन की मार इस परम्परागत शिल्प पर तेजी से पड़ रही है जिससे लौह शिल्पियों के सामने रोजगार की समस्या पैदा होने लगी है। इस ओर सरकारों की इस दिशा में उचित प्रयास किये जाने की नितांत जरूरत है़।

(सन्दर्भ : उत्तराखण्ड का भूगोल प्राकृतिक व सामाजिक सन्दर्भ, चंद्रशेखर तिवारी, देहरादून, एवं चित्र गूगल से साभार)

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