कमल किशोर डुकलान ‘सरल


छत्रपति शिवाजी महाराज न केवल जनतंत्र को स्थापित करने में सफल हुए बल्कि उनके द्वारा 6 जून 1674 को आज से 350 वर्ष पूर्व की गई हिंदू पद-पादशाही की स्थापना ने यह भी सिद्ध किया कि अपने कौशल साहस व सांस्कृतिक उन्नयन के बलबूते कोई भी संगठन खड़ा किया जा सकता है…….


भारत में प्राचीन काल से ही राज्याभिषेकों का गौरवशाली इतिहास रहा है। वैदिक युग से लेकर अब तक राज्याभिषेक पर बहुत ही सुन्दर विवरण मिलते हैं। प्राचीनकाल में सभी प्रकार के यज्ञों में राजसूय यज्ञ प्रधान होता था। उसके जितने भी उदहारण मिलते हैं, वे सभी यज्ञ राज्याभिषेक की ओर इशारा करते हैं। राजसूय यज्ञ में राजा को संकल्प लेने होते थे और अग्नि को साक्षी मानकर प्रजा को वचन भी देने पड़ते थे। प्राचीनकाल से ही हमें जितने भी राज्याभिषेकों उदहारण मिलता है, उनमें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक तो सिरमौर माना जाता है। श्रीराम का राज्याभिषेक 14 वर्ष के वनवास और रावणवध के बाद जिन परिस्थितियों में हुआ, वह आज भी अत्यंत पूजा भाव से देखा जाता है। इतिहास में वे ही राज्याभिषेक चर्चित हुए, जो किसी नायक के कठिनतम संघर्ष की अंतिम और सुखद परिणति के रूप में देखे गए। सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य और विक्रमादित्य के राज्याभिषेकों को भी भारतीय गणराज्यों के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन राज्याभिषेकों ने केवल युग ही नहीं बदले, उन मूल्यों को भी उन्नत शिखर तक पहुचाया, जो बाद के राजघरानों में आदर्श के रूप में देखे जाते हैं। दुर्भाग्यवश विदेशी आक्रांताओं के धावा बोलने के बाद राज्याभिषेकों की यह परंपरा पूरी तरह थम गई।
आज से 350 वर्ष पूर्व महाराजा छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक को भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में एक अनमोल घटना के रूप में माना जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक ने भारत के जन-मन को बहुत ही प्रभावित किया। 350 वर्ष पूर्व हुए छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हमें वेदकालीन राज्याभिषेक की याद दिलाता है। यह मुगल साम्राज्य में सल्तनतों की ताजपोशी की तरह नहीं था। छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक उस दौर के ऐसे महान सांस्कृतिक और राजनीतिक महोत्सव के रूप में देखा जाता है, जिसका उल्लास आज तक बना हुआ है। मुगलकाल में इस तरह के राज्याभिषेक भुला दिये गए थे, क्योंकि अवसर थे ही कहां? शिवाजी ने जिस तरह स्वराज्य का संकल्प लेकर मुगलों से लोहा लिया, उसी संकल्प से राज्यारोहण भी किया। राज्याभिषेक से पहले तक शिवाजी हिंदुत्व के मूल्यों की रक्षा के लिए लगातार लड़ते रहे, लेकिन वे कभी भी राजा स्वीकार नहीं किए जा सके। शिवाजी का राज्याभिषेक शिवाजी की ही बनाई हुई महत्वाकांक्षी योजना थी, ताकि वे पूरी ताकत के साथ बिना किसी विघ्न-बाधा के हिंदवी स्वराज्य का संकल्प पूरा कर सकें। मुगलकाल का सबसे विद्रूप चेहरा तो औरंगजेब ही था, वही शिवाजी के निशाने पर आया। दबी-कुचली और असहाय जनता का उन्हें भरपूर साथ मिला। जनता के ही समर्थन से छह जून, 1674 को रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ।
छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक को राज्यारोहण,हिंदू पद-पादशाही का स्थापना दिवस भी कहा गया और हिंदवी स्वराज्य का श्रीगणेश भी। पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखने का यह महोत्सव अब केवल महाराष्ट्र ही नहीं,संपूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। शिवाजी के राज्याभिषेक राष्ट्र के स्वाभिमान की सिंह-गर्जना के उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक वेदकालीन राजसूय की तरह ही था,जो पंडित गंग भट्ट के निर्देशन और मां जीजाबाई की उपस्थिति में हुआ। राजसूय का वह दृश्य सदियों बाद उपस्थित हुआ था, इसलिए लोगों में इसे देखने का चाव भी बहुत था। राज्याभिषेक से पहले शिवाजी का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, तुलादान हुआ। वैदिक रीति के अनुसार शिवाजी को पंचामृत स्नान और शुद्धोदक स्नान कराया गया। बताया जाता है कि जब वस्त्राभूषण धारण कर शिवाजी मंडप में आए, तब वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ही लग रहे थे। दस्तावेजों के अनुसार तब 50 हजार से भी अधिक लोग एकत्रित हुए थे, जिनमें संत, विद्वान्, धर्माचार्य, सामंत, राजदूत, सेना-नायक, गायक-नर्तक और आबाल वृद्ध थे। इस राज्याभिषेक को इतना महत्व देने का बड़ा कारण यह है कि इस दिन स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी गई। वह हमारे स्वाभिमान का राज्याभिषेक था। वह राज्याभिषेक बाद के हिंदू राजवंशों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। राज्य चलाने के लिए शिवाजी महाराज ने जो नीतियां घोषित कीं, वे बहुत आगे तक के लिए दिशासूचक बनीं। यहां तक कि 20वीं शताब्दी के आरंभ में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने जब स्वराज्य को जन्मसिद्ध अधिकार है का उदघोष भी छत्रपति शिवाजी महाराज की नीतियों में ही सामिल था।
छत्रपति शिवाजी महाराज का युद्धशास्त्र और नीतिशास्त्र अपना था। शिवाजी के नीतिशास्त्र और उनकी राजनीति के सूत्रों से भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बुनावट हुई। उनकी म्यान से भवानी तलवार तभी निकलती थी, जब धर्म और नीति का आदेश होता था। संगठन में उनका दृढ़ विश्वास था। राज्याभिषेक के दिन जिन आठ प्रधानों को उन्होंने दायित्व सौंपा, वे शिवाजी के राजनीतिक निश्चयों के साकार रूप थे। राज्याभिषेक के तत्काल बाद दक्षिण में स्वराज्य स्थापना के लिए शिवाजी का प्रस्थान और उनकी दक्षिण विजय को भारत के इतिहास में युगांतरकारी घटना माना जाता है। शिवाजी जैसे वीर थे, वैसे ही धर्मनिष्ठ भी थे। समर्थ गुरु रामदास से वे सदैव प्रेरणा लेते रहे। ‘दासबोध’ उनका कवच था। सनातन धर्म पर उनकी आस्था अटूट थी, लेकिन वे धर्म- सहिष्णु भी कम नहीं थे। वे संप्रदायवाद से बहुत ऊपर उठे हुए सहृदय सम्राट की तरह थे। सर्वधर्म समभाव के जैसे उदाहरण शिवाजी के जीवन में मिलते हैं, वैसे अन्यत्र दुर्लभ हैं। शिवाजी ने राज्यारोहण के साथ ही वे नियम भी बनाए, जो स्त्री की प्रतिष्ठा और मनुष्य की सामाजिक-आर्थिक उन्नति के लिए सहायक हों। नौसेना को आज भी शिवाजी और उनके सामरिक बुनियादी चिंतन से जोड़कर देखा जाता है।
छत्रपति शिवाजी के चरित्र की विशालता को जानने के लिए शिवाजी के राज कवि भूषण की वीर-कविताएं, दूसरा है- अंबिकादत्त व्यास का आधुनिक संस्कृत में लिखा बेजोड़ उपन्यास ‘शिवराज विजय हमारे पास दो विकल्प हैं। इनमें प्रचंड आवेग,ओज और प्रामाणिकता भी है । विगत पांच सदियों में भारतीय जनमानस पर जैसा प्रभाव शिवाजी के चरित्र का पड़ा, वैसा किसी और राजा का नहीं। भले ही वीर शिवाजी का जीवनकाल बहुत छोटा था,लेकिन उनका पाठ संपूर्ण भारत के स्वाभिमान को जगाए रखने में आज भी मंत्र जैसी आग रखता है। जिनका आज भी पालन करके देश को एकजुट रखने और स्वराज्य स्थापित करने का मार्ग मिल सकता है।

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