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प्रमोद भार्गव
दुनिया में 4 अक्टूबर 1957 के दिन रूसी वैज्ञानिकों ने ‘स्पूतनिक’ नामक कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़कर अंतरिक्ष युग का श्री गणेश किया था, जिससे पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों के रहस्यों को खंगालने के साथ मानव बस्तियां बसाने की संभावनाएं तलाशी जाएं। इन कोशिशों में अब तक 109 अंतरिक्ष-यान चांद पर भेजे गए हैं। इनमें से 61 सफल रहे, जबकि 48 असफल। यह जानकारी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने दी है। इसरो के चेयरमैन के. सिवन की मानें तो भारत का चंद्रयान-2 अभियान आंशिक असफलता के साथ 95 प्रतिशत सफल रहा है। इसकी मामूली असफलता इसलिए रही है, क्योंकि यह एक ऐसे चुनौतीपूर्ण लक्ष्य ‘दक्षिणी ध्रुव’ पर उतरने जा रहा था, जिसे साधने की कोशिश अन्य किसी देश ने नहीं की। 15 जुलाई 2019 को यह चंद्रमा के लिए रवाना हुआ था, जिसने छह और सात सितंबर की दरमियानी रात को 3.84 लाख किलोमीटर की दूरी बिना अटके तय कर ली थी। लक्ष्य महज 2.1 किलोमीटर दूर रह गया था। यह दूरी नगण्य थी। इसीलिए दुनिया के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अभियान की मामूली असफलता से निराश होने की जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि ‘अंतिम परिणाम भले ही पूरी तरह हमारे अनुकूल नहीं रहा, लेकिन इसरो के वैज्ञानिकों की मेहनत, सामर्थ्य और सिद्धि पर पूरे देश को अभिमान है।’
दरअसल, अंतरिक्ष में मौजूद ग्रहों पर यानों को भेजने की प्रक्रिया बेहद जटिल और शंकाओं से भरी होती है। यदि अवरोह का कोण जरा भी डिग जाए या फिर गति का संतुलन लड़खड़ा जाए तो कोई भी चंद्र-अभियान या तो चंद्रमा पर जाकर ध्वस्त हो जाता है या फिर अंतरिक्ष में कहीं भटक जाता है। इसे न तो खोजा जा सकता है और न ही नियंत्रित करके दोबारा लक्ष्य पर लाया जा सकता है। यह इसरो के अध्यक्ष के सिवन और उनके दल का कमाल है कि उन्होंने ऑर्बिटर को चंद्रमा की कक्षा में सुरक्षित प्रक्षेपित कर दिया है। 2379 किलोग्राम का यह ऑर्बिटर एक साल तक गातिशील रहेगा। इसके साथ आठ पेलोड भी हैं। ये चांद की सतह का नक्शा बनाने के साथ बाहरी वातावरण का अध्ययन करते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन को सूचनाएं देते रहेंगे।
चूंकि इस गड़बड़ी की आशंका पहले ही थी, इसलिए लैंडर विक्रम समेत अन्य उपकरणों का वजन भी 600 किलोग्राम बढ़ाया गया था। दरअसल, प्रयोगों के दौरान ज्ञात हुआ था कि उपग्रह से जब चंद्रमा पर उतरने वाला हिस्सा बाहर आएगा तो यह हिलने लगेगा। लिहाजा इसका भार बढ़ाने की जरूरत है। उपग्रह का कुल वजन करीब 38 क्विंटल था। इसके तीन भाग थे, लैंडर, ऑर्बिटर और रोवर। रोवर में ‘प्रज्ञान’ बेहद महत्वपूर्ण था। यही प्रज्ञान चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के बाद दक्षिणी ध्रुव पर पानी और खनिजों की खोज करने में जुट जाता। चंद्रमा पर हीलियम की खोज करके उससे पृथ्वी पर फ्यूजन पद्धति से ऊर्जा की समस्या का हल करने की परिकल्पना वैज्ञानिकों के दिमाग में थी। शोध बताते हैं कि चंद्रमा पर गहरा सन्नाटा पसरा है। वहां जीवनदायी तत्व हवा, पानी और अग्नि नहीं हैं। ये तत्व नहीं हैं इसलिए, जीवन भी नहीं है। वहां साढ़े 14 दिन के बराबर एक दिन होता है। पृथ्वी पर ऐसा कहीं नहीं है। बावजूद यहां मानव को बसाने की तैयारी में दुनिया के वैज्ञानिक जुटे हैं।
1960 के दशक में जब अमेरिका ने उपग्रह भेजे थे, तब उसके शुरू के छह प्रक्षेपण के प्रयास असफल रहे थे। अविभाजित सोवियत संघ ने 1959 से 1976 के बीच 29 अभियानों को अंजाम दिया। इनमें से नौ असफल रहे थे। 1957 में रूस ने पहला उपग्रह भेजकर इस प्रतिस्पर्धा को गति दे दी थी। तब से लेकर अब तक 109 चंद्र-अभियान हो चुके हैं, लेकिन चंद्रमा पर अमेरिका, रूस और चीन द्वारा मानवयुक्त चंद्रयान भेजने के बावजूद में कोई विशेष जानकारी नहीं जुटाई जा सकी थी। दरअसल रूस और अमेरिका कालांतर में चंद्र-अभियानों से इसलिए पीछे हट गए, क्योंकि एक तो ये अत्याधिक खर्चीले थे, दूसरे मानवयुक्त यान भेजने के बावजूद चंद्रमा के खगोलीय रहस्यों के नए खुलासे नहीं हो पाए थे। वहां मानव बस्तियां बसाए जाने की संभावनाएं भी नहीं तलाशी जा सकी थी। 90 के दशक में चंद्रमा को लेकर फिर से दुनिया के सक्षम देशों की दिलचस्पी बढ़ने लगी। ऐसा तब हुआ जब चंद्रमा पर बर्फीले पानी और भविष्य के ईंधन के रूप में हिलियम-3 की बड़ी मात्रा में उपलब्ध होने की जानकारियां मिलने लगीं। वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि ऊर्जा उत्पादन की फ्यूजन तकनीक के व्यावहारिक होते ही ईंधन के स्रोत के रूप में चांद की उपयोगिता बढ़ जाएगी। ऐसे में जापान और भारत का साथ आना इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि चंद्रमा के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रौद्योगिकी दक्षता परस्पर पूरक सिद्ध हो रही है। मंगल हो या फिर चंद्रमा कम लागत के अंतरिक्ष यान भेजने में भारत ने विशेष दक्षता प्राप्त कर ली है। दूसरी तरफ जापान ने हाल ही चंद्रमा पर 50 किमी लंबी एक ऐसी प्राकृतिक सुरंग खोज निकाली है, जिससे भयंकर लावा फूट रहा है। चंद्रमा की सतह पर रेडिएशन से युक्त लावा ही अग्नि रूपी वह तत्व है, जो चंद्रमा पर मनुष्य के टिके रहने की बुनियादी शर्तों में से एक है। इन लावा सुरंगों के इर्द-गिर्द ही ऐसा परिवेश बनाया जाना संभव है, जहां मनुष्य जीवन-रक्षा के कृत्रिम उपकरणों से मुक्त रहते हुए, प्राकृतिक रूप से जीवन-यापन कर सकेगा।
इसरो पहली बार अपने यान को चंद्रमा के दक्षिणी धुव्र पर उतारने की कोशिश में था, क्योंकि भारत द्वारा 2008 में भेजे गए चंद्रयान-1 ने ही दुनिया में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की थी। चंद्रयान-2 इसी अभियान की दूसरी कड़ी थी। चंद्रयान-2 इसरो का पहला ऐसा यान था, जो किसी दूसरे ग्रह की जमीन पर उतरता। दक्षिणी धुव्र पर यान को भेजने का उद्देश्य इसलिए अहम् था, क्योंकि यह स्थल दुनिया के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए अब तक रहस्यमयी बना हुआ है। यहां की चट्टानें 10 लाख साल से भी ज्यादा पुरानी बताई गई हैं। इतनी प्राचीन चट्टानों के अध्ययनों से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति को समझने में मदद मिल सकती है। अब तक के अभियानों में ज्यादातर यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास ही उतरते रहे हैं। चांद पर उतरने की दिलचस्पी इसलिए भी है, क्योंकि यहां एक तो पानी उपलब्ध होने की संभावना जुड़ गई है, दूसरे यहां ऊर्जा उत्सर्जन की संभावनाओं को भी तलाशा जा रहा है। ऊर्जा और पानी दो ही प्रकृति के ऐसे अनूठे तत्व हैं, जो मनुष्य को गतिशील बनाए रख सकते हैं। चूंकि चंद्रयान-2 नई जगह उतरने की तैयारी में था, इसलिए उसकी सफलता से शंकाएं भी जुड़ी थीं। लिहाजा यह असफलता भी सफलता का ही पर्याय है आशा की जानी चाहिए कि भारत चंद्रमा पर बस्ती बसाने की संभावनाओं पर आगे भी काम करता रहेगा।
( लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)