विजयादशमी का पर्व अभिमान, अत्याचार, बुराई असत्य, अन्याय के प्रति न्यायवादी जीत का प्रतीक माना गया है,जब भी इस धरती पर अन्याय, अत्याचार बढ़ा है तब समाज उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है। हिंसा, अत्याचार, दुष्कर्म के विरुद्ध समाज को तात्कालिक परिस्थितियों में तत्परता से एकजुट होना पड़ेगा…



भारत प्राचीन काल से समृद्ध सांस्कृतिक विशिष्टताओं वाला देश होने के कारण आज भी पर्व-उत्सवों की परम्पराओं को संजोये हुए हैं।
सनातन धर्म में विजयादशमी का पर्व देव प्रवृत्ति की दानव प्रवृत्ति पर तथा अभिमान, अत्याचार, अधर्म एवं बुराई पर सत्य, धर्म और अच्छाई का विजय का प्रतीक माना गया है।भारतीय चिंतन की दृष्टि से “वसुधैव कुटुंबकम्” विश्व एक परिवार की तरह है। विविधता में एकता भारत की विशेषता रही है। भारत की दुनिया के प्रति समावेशी दृष्टि रही है जो विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। जब भी इस धरती पर अन्याय,अत्याचार हुआ है प्रतिकार स्वरुप हिन्दू धर्म,हिन्दू समाज उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है। आज के दिन सामाजिक समरसता के अग्रदूत मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने अधर्म,अत्याचार एवं अन्याय के प्रतीक रावण का वध करके पृथ्वीवासियों को भयमुक्त किया था।साथ ही मां दुर्गा ने महिषासुर नामक असुर का वध करके धर्म और सत्य की रक्षा की। इस दिन भगवान श्री राम, देवी भगवती, महालक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और हनुमान जी की आराधना करके सभी के लिए मंगल की कामना की जाती है। प्रतिवर्ष यह”विजय पर्व” के रूप में मनाया जाता है। आज भारतीय समाज में चारों ओर फैले चरित्र हनन,जातीय संघर्ष,अत्याचार,शोषण,सामाजिक विघटन अन्याय रूपी अंधकार को देखकर मन में हमेशा ही भयमुक्त,समरस समाज के न्याय के लिए प्रकाश को पाने की चाह रहती है, ऐसे में जब अत्याचार,अन्याय रुपी अंधकार को मिटने की कहीं से भी कोई आस नहीं मिलती तो हम अपनी संस्कृति के ही पन्नों को पलटकर आगे बढ़ने की उम्मीद करते हैं। प्रतिवर्ष विजयादशमी का पर्व हमें अन्याय, अधर्म, बुराई के प्रतीकात्मक रावण को जलाना असल में यह संदेश देता है कि हमारा हिंदू समाज आज भी गलत, अन्याय, अधर्म का प्रतिरोधी है। दशहरे के अवसर पर प्रतिवर्ष रावण को जलाना हमें असत्य के प्रति सत्य, अन्याय के प्रति न्यायवादी जीत का स्मरण कराता है।

भारतीय आजादी के सात दशक बाद भी हमारे समाज में आतंकवाद, अलगाववाद,नारी दुष्कर्म, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे अनेकों बहुमुखी रावण विद्यमान हैं। अगर कहा जाए तो आज के समाज में ये सभी प्रकार की बुराइयां रावण के ही प्रतीकात्मक हैं। हम सबने रामायण को किसी न किसी रूप में सुना, देखा और पढ़ा ही है। बाल्मीकि रचित रामायण से हमें रामायण से यह सीख मिलती है, कि चाहे समाज में असत्य और बुरी ताकतें कितनी भी प्रबल क्यों न हो जाएं,परन्तु अच्छाई और सत्य के सामने उनका अस्तित्व कहीं भी नहीं टिक सकता। इस कलियुग में अत्याचार, अधर्म,अन्याय जैसी बुराइयों से मानव ही नहीं बल्कि हिन्दू समाज की सज्जन शक्तियां भी पीड़ित हो चुकी हैं। यह भी सत्य है कि न्याय, धर्म, अच्छाई ने हमेशा से ही ईमानदार और सत्यनिष्ठ व्यक्ति का साथ दिया है। मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी दस प्रकार की आसुरी शक्तियां है। जिन्हें दशहरे पर्व के अवसर पर रावण के पुतले का दहन मानव प्रवृत्ति के इन्हीं दस पापों के परित्याग करने की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। राम और रावण की कथा को हम सब जानते ही हैं, शारदीय नवरात्रों में स्थान-स्थान पर प्रतिवर्ष श्री रामलीला समितियां राम की लीलाओं का भावपूर्ण मंचन करती हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम सामाजिक समरसता एवं धर्मशास्त्रों के अनुरूप आचार-व्यवहार की विवेचना तो है ही किन्तु सामाजिक जीवन में उसको व्यवहार में कैसे लाया जाना चाहिए इसका आदर्श उदाहरण रामायण में भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र से हमें दृष्टिगोचर होता है। समस्त लौकिक व अलौकिक गुणों का समावेश भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र से स्पष्ट होता है जो आज के युग में दूसरी जगह मिलना कठिन है। भगवान श्री राम ने एक साधारण मनुष्य के रूप में जन्म लेकर समस्त सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक मर्यादाओं का पालन किया वैसा कोई दूसरा उदाहरण आज तक विश्व के किसी दूसरे साहित्य में नहीं मिला है।
विपरीत परिस्थितियों में जीवन से हार मान लेने वाले निराश-हताश व्यक्तियों केे लिए भगवान श्रीराम का जीवन चरित्र आज के समाज के लिए एक प्रेरणास्रोत के रुप में है। किष्किन्धा नरेश बाली का उदाहरण हम सबके सामने है।

भगवान श्रीराम के जीवन में कई बार ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न हुई जिनमें आज का सामान्य व्यक्ति या तो निराश या हताश होकर अपना जीवन नष्ट कर देता है या ईर्ष्या -क्रोध के वशीभूत होकर पारिवारिक तथा सामाजिक सदाचार व नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर बैठता है। किन्तु भगवान श्रीराम ने इन विपरीत परिस्थितियों में न केवल सदाचार व नैतिक मर्यादाओं का पालन किया अपितु समन्वय तथा समरसता की भावना को मजबूती प्रदान की।

भगवान श्री राम ने मानव जाति को हमेशा यह संदेश दिया कि “बुराई अच्छाई से नीचे ही रहती है चाहे अंधेरा कितना भी घना क्यों न हो एक दिन मिटकर ही रहता है” उन्होंने मानव रुप में अवतार लेकर सभी मर्यादाओं का पालन किया। चौदह वर्ष के वनवास में भगवान श्री राम चाहते तो जगत जननी सीता का रावण द्वारा हरण ही नहीं होता और वे अपनी शक्तियों से सीता को मुक्त करा सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

आज के समाज में इस प्रकार की बुराई केवल स्त्री हरण से ही जुड़ी नहीं रह गई हैं।अपितु आज तो हजारों स्त्रियों का हरण बलात्कार,रेप के नाम पर होता जा रहा है, समाज में छुआछूत,जातिवादी वैमनष्यता, क्षेत्रवाद आदि काफी हद तक बढा है। देश के युवाओं शराबखोरी,ड्रग्स की नशीली लतें लग चुकी हैं। ये ऐसे युवा हैं जिनके कंधों पर 21वीं सदी आत्मनिर्भर, सशक्त,सुसम्मपन्न भारत को जग सिरमौर बनाने की जिम्मेदारी मिली है। आज हम दशहरे रुपी रावण के पुतले का दहनकर क्षणिक अंधकार को उत्साह के प्रकाश में तो बदल देगें, लेकिन क्या हम वास्तव में इन बुराइयों को दूर कर पायेगें? वर्तमान समय में दशहरा उत्सव अपने उद्देश्य से भटक तो नहीं रहा है? आजकल तो दशहरे पर्व पर केवल शोर शराबा और कुछ घंटों का उत्साह भर रह गया है। सच कहें तो आज का भारतीय समाज आज भी उन्हीं बुराइयों के बीच जी रहा हैं।
उत्तर प्रदेश के हाथरस की दुष्कर्म के बाद पीड़िता की निर्मम हत्या,बागपत में चार मुस्लिम युवकों द्वारा दलित लड़की से बलात्कार के बाद हत्या एवं राजस्थान में पण्डित की निर्ममता से हुई हत्या की वारदात को आज पूरा समाज जानता ही है। ये हमारे समाज के जीते-जागते ज्वलन्त ऐसे उदाहरण हैं। सत्य और झूट का अन्तर किये बिना भी देश के सारे विपक्षी दलों का समाज में घटित हो रहे जघन्य अपराधों के समर्थन में व्यर्थ खड़े होना इस बात का प्रमाण है कि आज भी हमारा समाज अपने राजनैतिक निहित स्वार्थों के लिए अधर्म, अत्याचार एवं अन्याय के प्रतीक रावण को मन से जलाने को कदापि तैयार नहीं हैं। इस पर्व पर लोगों से संकल्प करवाने और अपनी कोई भी एक बुराई छोड़ने की अपील करने वाले भी इस पर्व के अंधकार में खो जाते हैं। रावण का पुतला सभी को उत्साहित करता है लेकिन बुराईयों से घिरे मानव को इन बुराइयों से मुक्ति नहीं मिल पाती है।

देखने में आता है कि व्यक्ति जीवनभर धन कमाने की लालसा में लगा रहता है और निरन्तर अधिक अर्थोपार्जन के चक्कर में अनेक बुराइयों के जाल में उलझता चला जाता है। वे अपने सादगीपूर्ण जीवन के बजाय बाह्य आडम्बरों के दिखावे में एक प्रकार से भ्रष्टाचार को ही जन्म देता है।सदाचार व नैतिक मर्यादाओं के अनुरूप हमें सादगी पूर्ण जीवन कैसे जीना चाहिए इस पर मुझे चाणक्य और झोपड़ी में रहने वाले मेहमान की बातचीत का संस्मरण ध्यान आ रहा है।
एक समय की बात है। चंद्रगुप्त मौर्य के गुरू और प्रधानमंत्री चाणक्य एक झोपड़ी में रहते थे।एक दिन एक मेहमान उनसे मिलने झोपड़ी में पहुंचे।चाणक्य एक दीये की रोशनी में बैठे कुछ लिख रहे थे।मेहमान के पहुंचने पर उन्होंने वह दिया बुझा दिया और एक दूसरा दिया जलाकर मेहमान से बातचीत करने लगे। हैरत में आए मेहमान ने थोड़ी देर चाणक्य से बातचीत के बाद पहला दीया बुझाने का कारण पूछा। चाणक्य ने बताया कि पहले वाले दिये में तेल सरकारी खर्चे से डाला गया था।उसकी रोशनी में वे सरकारी काम करता हूँ। आगंतुक उनका निजी मेहमान था इसलिए उन्होंने दूसरा दिया जला दिया। जिसमें उनके स्वयं के पैसे से लाया गया तेल डाला गया था। इसका आशय है कि शासक को सरकारी निजी खर्च में अंतर न सिर्फ समझना चाहिए बल्कि उसके अनुरूप व्यवहार में करना भी चाहिए। आज इसका अभाव दिखाई दे रहा है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने मानव योनी में जन्म लेकर समरस भारत के निर्माण का एक आदर्श प्रस्तुत किया। रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों के रूप में आज हम अपनी हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, भ्रष्ट आचार, मन की अशुद्धि, असंतोष, अकर्मयता, अज्ञान और पापाचार रुपी रावण के दस शीशों वाली दस बुरी आदतों को परित्याग करने का संकल्प लें और एक सशक्त, सुसम्पन्न, वैभवशाली समरस नव भारत का निर्माण करें तो सच्चे अर्थों में दशहरा पर्व पर रावण का पुतला दहन करना सार्थक होगा।

इसी उद्देश्य को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रतिवर्ष विजयादशमी को अपने संघ स्थापना के रूप में मनाता है। जिसका मुख्य उद्देश्य समाज की सुप्त शक्ति को पुन: जाग्रत कर भारत को विश्व गुरू के रूप में स्थापित करना है। ताकि समाज को सदाचार, धर्म और शांति का संदेश दिया जा सके। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विगत 95 वर्षों से इस दिशा में सतत प्रयत्नशील है। अगर कहा जाए तो हर वर्ष मनाया जाने वाला विजयादशमी उत्सव सशक्त,समरस,भयमुक्त,सुसम्मपन्न समाज के निर्माण का संकल्प लेने का पर्व है।


कमल किशोर डुकलान रुड़की (हरिद्वार)