भाषाई एवँ सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा देने के लिए आज भारत सहित विश्वभर में मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है। भाषाई पहचान की जड़े बांग्लादेश के उस आंदोलन से जुड़ी हैं,जो आगे चलकर पाकिस्तान से इसकी आजादी का आंदोलन बना……
आज भारत सहित दुनियाभर में भाषाई एवं सांस्कृतिक बहुभाषिता को बढ़ावा देने के लिए मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है,जो अपनी-अपनी भाषा,बोली के प्रति जनसमूह में प्यार,सम्मान,गर्व और अपनेपन को प्रदर्शित करता है।यूं तो इसकी शुरुआत सन् 1992 से हुई,जब 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के तौर पर इसे मनाने की घोषणा की थी,लेकिन कहते हैं,इसकी संकल्पना सन् 1952 में की गई थी,जब पाकिस्तान की राजसत्ता में उर्दू को पूरे देश की आधिकारिक भाषा बनाने की घोषणा की।उस समय बांग्लादेश पाकिस्तान का ही हिस्सा था उस समय बांग्लादेश को पूर्वी पाकिस्तान के तौर पर जाना जाता था।
नेहरू और जिन्ना की हठधर्मिता से धर्म के आधार पर भारत से अलग होकर 14अगस्त 1947 में अस्तित्व में आए पाकिस्तान ने अपनी उसी इस्लामिक पहचान को और अधिक पुख्ता करने के लिए हिन्दी के समानांतर देश के दूसरे हिस्से में भी उर्दू को आधिकारिक भाषा घोषित कर दी,यह जानते-समझते हुए भी कि भाषाई और सांस्कृतिक रूप से देश का यह हिस्सा कई मायनों में अलग रूझान रखता है। पाकिस्तानी सरकार के इस फैसले का बांग्लादेश में भारी विरोध हुआ,लोग उर्दू को आधिकारिक करने के विरोध में सड़कों पर उतरे,पश्चिमी पाकिस्तान ने उनकी एक न सुनी।आंदोलन को कुचलने के लिए पाकिस्तान सरकार ने सैन्य ताकतों का भरपूर प्रयोग किया गया, वहां के लोगों पर अनेकों अत्याचार ढाए गए।
पाकिस्तानी राजनेताओं को तब शायद इसका अंदाजा नहीं रहा होगा कि भाषा और संस्कृति को लेकर उसके अपने ही देश के एक हिस्से में पनप रहा भारी असंतोष एक दिन उसके बिखराव का कारण बनेगा इस भाषाई पहचान को लेकर शुरू हुए आंदोलन को देखते-देखते पाकिस्तान से बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए चलाया गया आन्दोलन मुक्ति संग्राम में तब्दील हो जाएगा और जिस तरह भारत से टूटकर पाकिस्तान एक अलग देश के तौर पर सामने आया,उसी तरह की परिणति पाकिस्तान की भी हुई इसका पूर्वी हिस्सा अलग होकर एक स्वतंत्र व संप्रभुत्व वाला देश बांग्लादेश के रूप में आज हमारे सामने हैं।
सम्पूर्ण पाकिस्तान में उर्दू को आधिकारिक भाषा घोषित करने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में अपनी भाषा व संस्कृति को लेकर जब युवाओं ने विरोध जताना शुरू किया तो पाकिस्तान की सेना ने उनके सीनों को गोलियों से छलनी कर दिया।करीब आधा दर्जन छात्रों की जान 1952 में पाकिस्तान सेना की कार्रवाई में गई। पाकिस्तानी सेना और वहां के राजनेता अपने ही देश के पश्चिमी व पूर्वी हिस्सों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली,भाषा,रहन-सहन में फर्क और इसके आधार प उनकी विशेष पहचान को लेकर आग्रह को समझ नहीं पाए
पूर्वी पाकिस्तान(बांग्लादेश) जिसकी पूरी जीवनशैली,बोल-चाल में बांग्ला संस्कृति का गहरा प्रभाव है, बांग्लादेश उर्दू को देश राष्ट्रभाषा बनाने के फैसले से साफ तौर पर नाखुश था,जिसे पश्चिमी पाकिस्तान में बैठे सत्तासीन लोग कभी समझ ही नहीं पाए। बांग्ला भाषा व संस्कृति के प्रभाव के बावजूद देश के पूर्वी हिस्से पर भी राष्ट्रभाषा के रूप में उर्दू थोपे जाने के विरोध से हुआ आंदोलन देश की आजादी का आंदोलन बन गया,जिसे बांग्लादेश की मुक्ति संग्राम के नाम से जाना जाता है।इस आंदोलन ने 1970 के बाद और अधिक जोर पकड़ा और 1971 में बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर सामने आया।
बांग्लादेश के स्थापना दिवस 21फरवरी सन् 1971से यह दिन भाषा दिवस के रुप में मनाया जाने लगा,क्योंकि 21फरवरी सन् 1952 में इसी दिन उर्दू को पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर थोपने के विरोध में छात्रों ने जब विरोध के स्वर बुलंद किए थे तो उन पर पाकिस्तानी सेना ने उन पर गोलियां चलाईं थी।इस दिन लोग अपनी भाषाई पहचान के लिए जान कुर्बान कर देने वाले उन युवाओं को याद करते हैं,उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।भाषाई पहचान की अहमियत को संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक,वैज्ञानिक व सांस्कृतिक संगठन (यूनिस्को) ने भी महसूस किया और भाषाई एवँ सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा देने के लिए 21फरवरी सन् 1992 में इस दिन को विश्व मातृभाषा दिवस घोषित किया। कमल किशोर डुकलान, रुड़की (हरिद्वार)