उत्तराखंड में लोक पर्व मनाए जाने की परंपरा है, ये सभी लोक पर्व प्रकृति से जुड़ने का संदेश देते हैं तथा मानव जगत के कल्याण की कामना इन पर्वों में दिखती है। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में सदियों से इस प्रकार के लोक पर्व को मनाए जाने की परंपरा है, जो आज तक भी बनीं हुई है। इन्हीं में से एक लोक पर्व हरेला, पर्यावरण संरक्षण तथा लोक कल्याण का संदेश देने वाला है। यह पर्व वैसे तो संपूर्ण उत्तराखंड में मनाया जाता है लेकिन खासतौर पर कुमाऊं में खुशहाली, सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य, धनधान्य और हरियाली का प्रतीक हरेला पर्व घर-घर हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस बार 16 जुलाई को हरेला पर्व मनाया जाएगा। इस लोक पर्व के महत्व को समझते हुए उत्तराखंड में इस दिन अधिकारिक रूप से अवकाश होता है।
हरेला पर्व पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है। इस पर्व से मौसम को पौधरोपण के लिए उपयुक्त माना जाता है। हरेला बोने के लिए उसी खेत की मिट्टी लाई जाती है जिसमें उचित पौधों के रोपण और अच्छी फसल का परीक्षण हो सके। सात या पांच प्रकार का अनाज बोया जाता है जो अनुकूल मृदा और मौसम चक्र का आभास कराता है। हरेला पर्व पौधरोपण, मृदा परीक्षण और मौसम चक्र का भी द्योतक है।
ऋग्वेद में है हरेला का वर्णन
हरेला का शाब्दिक अर्थ हर + एला अर्थात हर भगवान शंकर और एला स्त्री सूचक होने से माता पार्वती का बोध कराता है। ऋग्वेद में कृषि कृणत्व अर्थात खेती करो के तहत इसका उल्लेख है। इस त्योहार को मनाने से समाज कल्याण की भावना विकसित होती है।
श्रावण मास में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता, जिस कारण यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। हरेला पर्व उत्तराखंड के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में भी हरियाली पर्व के रूप में मनाया जाता है। हरियाली या हरेला शब्द पर्यावरण के काफी करीब है। ऐसे में इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ ही पौधारोपण भी किया जाता है। जिसमें लोग अपने परिवेश में विभिन्न प्रकार के छायादार व फलदार पौधे रोपते हैं। यह महीना भगवान शिव को समर्पित है। भगवान शिव का निवास स्थान यही देवभूमि कैलाश (हिमालय) में ही है, इसीलिए श्रावण मास के हरेले में भगवान शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती हैं। (शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश) की मूर्तियां शुद्ध मिट्टी से बना कर उन्हें प्राकृतिक रंग से सजाया-संवारा जाता है। सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है।
हरेला काटने से पूर्व कई तरह के पकवान बनाकर देवी देवताओं को भोग लगाने के बाद पूजन किया जाता है। हरेला पूजन के बाद घर परिवार के सभी लोगों को हरेला शिरोधारण कराया जाता है। इस मौके पर ‘लाग हर्याव, लाग बग्वाल, जी रयै, जागि रयै, यो दिन बार भेटने रयै’ शब्दों के साथ आशीर्वाद दिया जाता है।