✍️ सुभाष चन्द्र जोशी ©

वर्षों पुरानी बात है, मैं और मेरा दोस्त ‘श्यामू’ अपने पड़ोसी गाँव किसी काम से जा रहे थे। पैदल चलते-चलते हम दोनों एक स्थान पर कुछ देर आराम करने के लिए रूक गये। ‘श्यामू’ बहुत थक गया और उसे प्यास भी लगी थी। दूर-दूर तक न तो पानी दिखा और न ही कोई इंसान। थोड़ी देर बाद मैंने ‘श्यामू’ से कहा ‘‘चलो थोड़ी दूरी बाद हम गाँव पहुँच जायेंगे। वहीं पानी, खाना मिल जायेगा।’’ पर ‘श्यामू’ ने मानो हिम्मत ही खो दी हो। वह बोलने लगा ’’अब बिना पानी के मैं एक कदम नहीं चल पाऊँगा।’’ ‘श्यामू’ की बातें सुनकर मैंने सोचा, इस तरह तो हम पड़ोसी गाँव नहीं पहुँच पायेंगे और न ही हमारा काम पूरा हो पायेगा। बहुत देर तक सोचने के बाद मैंने निर्णय लिया कि किसी तरह ‘श्यामू’ के लिए पानी की व्यवस्था कर लेता हूँं।
मैं ‘श्यामू’ को वहीं छोड़ कुछ दूरी तक आगे चला गया। मैंने इधर-उधर नजरें दौड़ाई पर मुझे कुछ नहीं मिला। फिर हिम्मत कर मैं और आगे बढ़ा, वहाँ मैंने देखा कि एक संकरा रास्ता बायीं ओर निकल रहा है। वह आम रास्ता नहीं लग रहा था। शायद बार-बार उस रास्ते लोगों और जानवरों के गुजरने से वह झाँड़ियों के बीच रास्तानुमा एक लकीर बन गई हो। मैं उस स्थान पर रूक गया और मेरे मन में उत्सुकता हुई कि मैं क्यों न इस संकरे रास्ते पर जाकर देखूँ, शायद कुछ मिल जाय। संकरे रास्ते से आगे बढ़कर मैं एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया, जहाँ पर एक छोटी सी टूटी-फूटी झोपड़ी थी और उसके पिछले हिस्से में बागवानी थी। मैंने झोपड़ी के अन्दर देखा, तो वहाँ कोई नहीं था और न ही पानी रखा था। मैं झोपड़ी के पिछले हिस्से की ओर बढ़ा। मैंने वहाँ ककड़ी की एक बेल देखी, उस बेल पर तीन ककड़ियां झूल रही थी। ककड़ियों को देखकर मेरे मन में उम्मीद जगी कि अब ‘श्यामू’ के लिए पानी और खाना दोनों मिल जायेगा। यह सोचते-सोचते मैं ककड़ी की बेल की ओर बढ़ा, मैं ककड़ी के पास पहुँचने की जल्दी में तेजी से आगे बढ़ा, आगे बढ़ते ही मैं घास और लकड़ियों से ढ़के एक गड्ढे में जा गिरा। गड्ढे में गिरते ही मेरी हालत खराब हो गई। कहते हैं न ’’आसमान से गिरा खजूर में अटका’’ एक मुसीबत से निकलने ही वाला था कि दूसरी गले पड़ गई। ‘‘मरता तो क्या न करता’’ की स्थिति बन गई थी मेरी। बहुत प्रयास करने के बाद भी में गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाया।
बहुत चिल्लाया पर कोई नहीं आया। हताश, निराश होकर मैं गड्ढे में बैठ गया। तभी ऊपर कुछ चलने की आवाज आयी, मैंने जोर से आवाज दी, कोई मुझे गड्ढे से बाहर निकालो। तभी बुजुर्ग आदमी गड्ढे के पास आया, उसने ऊपर से मुझे देखा और बोला क्यों आये थे यहाँ ? मैंने कहा ‘‘बाबा पहले मुझे गड्ढे से बाहर निकालो।’’ उस बुजुर्ग ने मुझे बाहर निकलने के लिए एक लकड़ी की सीढ़ी गड्ढे की ओर बढ़ाई। मैं सीढ़ी के सहारे गड्ढे से बाहर निकल गया। बाहर निकलते ही मैंने बुजुर्ग आदमी को गले से लगाया और गड्ढे से बाहर निकालने के लिए आभार जताया। बुजुर्ग आदमी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा। बुजुर्ग के हाथ में पानी से भरा एक बर्तन था। मैंने बुजुर्ग से पानी पिलाने का आग्रह किया। पर बुजुर्ग व्यक्ति ने पानी नहीं दिया। बुजुर्ग व्यक्ति ने फिर वही प्रश्न दोहराया ‘क्यों आये थे यहाँ’ ?’ फिर मैंने बुजुर्ग व्यक्ति को पूरा किस्सा सुनाया। बुजुर्ग व्यक्ति ने मेरा किस्सा सुनने के बाद मुझे पानी पीने को दिया। फिर मैंने बुजुर्ग से एक ककड़ी देने का अनुरोध किया। बुजुर्ग को मेरे दोस्त की हालत सुनकर दया आ गई और उन्होंने एक ककड़ी और पानी भी दे दिया और जैसे ही मैं निकलने ही वाला था। बुजुर्ग ने पीछे से आवाज दी। बुजुर्ग आदमी बोला ‘वैसे लालच बुरा होता है, अब वह चाहे ककड़ी का ही क्यों न हो। पर तुमने अपने दोस्त के जीवन रक्षा के लिए यह सब किया, इसलिए तुम्हें मैं दोषी नहीं मानता, लेकिन मुसीबत में भी इस बात का हमेशा ख्याल रखना कि कहीं तुम अपनी हरकतों की वजह से दूसरी मुसीबत में न फंस जाएं।’ बुजुर्ग व्यक्ति का फिर से आभार व्यक्त कर मैं दौड़ते हुए अपने दोस्त के पास पहुँच गया और उसे पानी पिलाया। पानी पीने से ‘श्यामू’ के शरीर में जान आई और वह चलने के लिये उठ खड़ा हुआ। ‘श्यामू’ के आनंद की सीमा न थी। शायद धन-दौलत से भी उसे इतना आनंद न होता।
आगे जाकर मैंने ‘श्यामू’ को सारा बाकया सुनाया। मेरी बात को सुनकर ‘श्यामू’ बोला ‘तो चलो अब ककड़ी भी खा लेते हैं।’ हम दोनों ने ककड़ी खाई और अपनी मंजिल की ओर बढ़ गये। पड़ोसी गाँव पहुँच कर हमने खाना खाया और अपना जरूरी काम निपटा कर वापस अपने गाँव की ओर चल पड़े। गाँव पहुँचते ही मैंने पूरा किस्सा गाँव वालों को बताया। ककड़ी के लालच ने मुझे बड़ी सीख दी कि मुसीबत के समय भी मन में लालच नहीं आना चाहिए। नहीं तो ‘‘आसमान से गिरा खजूर पर अटके’’ का मुहावरा चरित्रार्थ हो जायेगा।