✍️ सुभाष चन्द्र जोशी ©

वो अपनी धुन में मस्त होकर चलते जा रहा था। कभी मुँह के अन्दर कुछ बुदबुदाता, तो कभी धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाता। उसके चेहरे पर कभी आक्रोश के भाव प्रकट होते, तो कभी वो किसी बात पर मुस्कराता। उसकी चाल मस्त हाथी की तरह थी। वो प्रतिदिन दैनिक मजदूरी कर, अपनी बूढ़ी माँ के लिए जरूरत की चीजें लेकर घर जाता। उसे रास्ते में जो भी मिलता, उसे वह आत्मीयता से अभिनन्दन करता। वह डरा सहमा सा चलता था। ‘मस्तू’ नाम था उसका। वह और उसकी बूढ़ी माँ पुराने घर में रहते थे। दो-तीन कमरों का मकान था उनका, वो अपनी बूढ़ी माँ का एकमात्र सहारा था। उसकी माँ को उसकी चिन्ता सताती रहती थी, कहीं उसके ‘मस्तू’ को कुछ न हो जाए। हो भी क्यों नहीं, उसके बुढ़ापे का एक मात्र सहारा था ‘मस्तू’। ‘मस्तू’ अनपढ़ था। बोलते समय उसकी जुबान लड़खड़ती थी। कुछ बातें तो वो स्पष्ट भी नहीं बोल पाता। ठेठ पहाड़ी पहनावा था उसका। मोटा पजामा और ऊनी कोट और ऊपर से काली टोपी।
वह प्रतिदिन घर से निकलकर मजदूरी के लिए जाता और मजदूरी करके वो सीधे घर जाता। ‘मस्तू’ की एक विचित्र सी मनोवैज्ञानिक कमजोरी थी। जब कोई उसके सामने सीटी बजाता, तो ‘मस्तू’ अपना आपा खो देता और जोर-जोर से गालियां देने लगता। जब गालियों से भी काम नहीं चलता तो वह सीटी बजाने वाले पर पत्थर फेंकने लगता। उसकी इस विचित्र आदत के कारण वो हँसी का पात्र बनता। गाँव के कुछ लोग तथा बच्चे मजाक में ‘मस्तू’ को सीटी बजाकर चिढ़ाते थे। वो सीटी बजाने से मानो पागल होकर सब कुछ भूल जाता और सीटी बजाने वाले के पीछे पड़ जाता। एक बार तो हद ही हो गयी, स्कूल के आठ-दस बच्चे घर जा रहे थे। ‘मस्तू’ भी आगे-आगे जा रहा था। मुख्य सड़क मार्ग से ‘मस्तू’ का घर दो किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर था। बच्चों को आगे चढ़ाई के मोड़ पर जैसे ही ‘मस्तू’ दिखा, उन्होंने सीटी बजाना शुरू कर दिया। ‘मस्तू’ इतना झल्लाया कि उसने आस-पास की मिट्टी उठाकर अपने सिर पर डाल दी और अपने सारे कपड़े फाड डाले। उसे इतना गुस्सा आया कि वो अपना आपा ही खो बैठा और उसने खाई में छलांग लगा दी, वो मरते-मरते बच गया। ‘मस्तू’ की ऐसी हरकत देख बच्चे घबरा गये और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। कुछ ही देर में वहां से गुजरने वाले राहगीरों ने जब यह देखा तो उन सब ने ‘मस्तू’ को बाहर निकालने का प्रयास किया। पर ‘मस्तू’ खाई से बाहर आने को राजी न हुआ। काफी मान-मनोबल के बाद भी जब वह नहीं माना तो उसकी माँ को सूचना दी गयी, उसकी बूढी माँ किसी तरह वहां पहुंचीं और ‘मस्तू’ को बड़े प्यार से समझाने लगी, माँ की बात सुनकर ‘मस्तू’ बाहर आने को तैयार हो गया। सभी ने मिलकर ‘मस्तू’ को बाहर निकाला, बाहर निकलते ही ‘मस्तू’ अपनी माँ से लिपट गया और बच्चे जैसा जोर-जोर से रोने लगा। ‘मस्तू’ की इस बीमारी के कारण उसकी बूढ़ी माँ बहुत परेशान होती थी। इस घटना के बाद ‘मस्तू’ का घर से निकलना ही बन्द हो गया। गाँव के सयाने लोगों ने इस समस्या का हल निकालने का मन बनाया। उन्होंने पंचायत बुलाकर ‘मस्तू’ के बारे में चर्चा कर सभी गांववासियों से आग्रह किया कि वे ‘मस्तू’ को न चिढ़ाये, बच्चों को हिदायद दी गयी, साथ ही सभी अभिभावकों को भी समझाया गया।
इसके बाद भी कभी-कभी गांव के कुछ शरारती बच्चे ‘मस्तू’ से मजाक करते, उससे कहते ‘‘मस्तू हमने तेरे लिए एक लड़की देखी है क्या शादी करोगे………।’’ लोगों की बात सुन ‘मस्तू’ मंद-मंद मुस्कराता और नाराजगी का भाव प्रकट कर चल देता। ‘मस्तू’ खुद की दुनिया में जीता, उसे सिर्फ अपने काम और अपनी बूढी माँ से मतलब था, दुनिया के विचित्र रंगों से वो अन्जान था। मैं भी जब कभी उसके गाँव जाता तो मुझसे वो बड़े आदर से बात करता। मैंने कई बार उसके मन की बात जाननी चाही, तो वो बिना कुछ बोले ही चल देता। आज 25 वर्षों बाद मस्तू कैसा और किस हाल में होगा मुझे नहीं पता। पर आज जब भी मेरे जहन में मस्तू का ख्याल आता तो मेरे सामने वो भोला-भाला चेहरा आ जाता। मैं सोचने लगता कि क्या दुनिया में ‘मस्तू’ जैसे कोई ओर भी होगा…..।