महाकुंभ में नागा-सन्यासियों की पेशवाई और शाही स्नान पर शस्त्रों का प्रदर्शन हमें यह बताता है,कि चौदहवीं शताब्दी के बाद जब भारत पर विदेशी और मुस्लिम आक्रांताओं ने आक्रमण किया,तब अखाड़ों के इन नागा-संन्यासियों ने मां भारती के मान की रक्षा के लिए राजसता के साथ धर्मसत्ता के रुप में इस राष्ट्र की रक्षा की थी……
बारह वर्ष में लगने वाला कुंभ महापर्व भारतीय संस्कृति की सनातन परम्परा आस्था,सौहार्द और संस्कृतियों के मिलन का प्रतीक है। यह पर्व सामाजिक समरसता का संदेश लेकर आता है। अतःइस पर्व को भारतीय संस्कृति का महापर्व भी कहा जाता है। कुंभ महापर्व का सम्बंध देव असुरों के द्वारा हुए समुंद्रमंथन से निकले अमृत कलश से विशेष रुप से जुड़ा है, जिस कारण इसका पौराणिक, ज्योतिष, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व और भी बढ़ जाता है।
धर्म नगरी हरिद्वार में संत परम्परा के अलग-अलग अखाड़ों की पेशवाई के साथ महाशिवरात्रि के शाही स्नान के साथ कुंभ मेला शुरू हो गया है। कुंभ मेला गृहस्थों और आम नागरिकों के लिए पुण्य कमाने का अवसर है, जहां संत और आध्यात्मवेत्ताओं के लिए यह पर्व परमात्मा की कृपा प्राप्त करने और अहोभाव प्रकट करने का अवसर है। वहीं इस घट में घाट-घाट का जल संचित है और पूरा संसार कुंभ का प्रतीक है। जैसे कुंभ निर्माता कुंभकार है,वैसे ही ईश्वर भी एक प्रकार से कुंभकार है, परम पिता परमात्मा ही इस जगत के सृष्टा हैं। इसलिए कुंभ में पूरा संसार समाया जान पड़ता है।
सनातन वैदिक हिंदू धर्म की मान्यता और परंपराओं का वैशिष्ट्य अनुष्ठानों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पर्व महाकुंभ का है। महर्षि भगवान वेद व्यास जी द्वारा रचित ग्रंथ और पुराणों में देव-असुरों द्वारा हुए सागर मंथन से निकले अमृत कुंभ का विस्तृत वर्णन है। कुंभ की पौराणिक कथाओं के अनुसार बिष्णु पुराण में भगवान विष्णु की युक्ति के अनुसार देव और दानवों में सागर मंथन हुआ।सागर मंथन से अमृत कलश निकला,जिसे दैत्यों से बचाकर इंद्रराज का पुत्र जयंत आकाश में लेकर उड़ गया। जब शुक्राचार्य ने यह देखा, तो उन्होंने दैत्यों को जयंत के पीछे भेजा। जयंत और अमृत कलश की रक्षा के लिए देवगण और दानव अमृत कलश के लिए आपस में भिड़ गए। कहते हैं,देव और असुरों में अमृत कलश के लिए बारह दिनों तक अविराम युद्ध हुआ इस बीच देव और असुरों की छीनाझपटी में अमृत कलश छलक पड़ा, जिसकी बूंदें भारत वर्ष के चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में जा गिरी इसलिए हर बारह वर्ष में लगने वाले कुंभ पर्व के लिए ये चार स्थल निश्चित हैं। बारह वर्ष के कुंभ मेले में करोड़ों लोग आस्था की डुबकी लगाकर स्वयं को धन्य पाते हैं।
यह लोकधारणा है कि कुंभ पर्व स्थलों में कुंभ के अवसर पर नदी में स्नान करने से अमरता और भगवत्ता की प्राप्त होती है। धर्म शास्त्रों में कहां गया है,कि सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलयुग में दान को प्रमुख माना गया है। इसलिए यह भी मान्यता है कि कुंभ पर्व में किए गए दान का विशेष महात्व है। इस अवसर पर पुण्य लाभ के लिए सनातन वैदिक हिंदू धर्मावलंबियों में होड़ मची रहती है।
अमृत कलश की बूंदों के छलकने की परिघटना के अतिरिक्त भी कुंभ पर्व में बहुत कुछ है। कुंभ में स्नान है, कुंभ तप-ध्यान है, कुंभ दान है, कुंभ राम हैं, कुंभ श्याम हैं और कुंभ शिव हैं। कुंभ में संसार है, कुंभ में सार है, कुंभ में ऋषि हैं,कुंभ में मुनि हैं,कुंभ ही तपस्या है। कुंभ में कर्म है, कुंभ में धर्म है, कुंभ में मर्म है, कुंभ में अध्यात्म है, कुंभ में ज्ञान-विज्ञान है, कुंभ में संस्कार है, कुंभ ही व्यवहार है, कुंभ ही सेवा है। कुंभ अमृत वितरण का पर्व है। समुद्र मंथन में भगवान धन्वंतरि का प्रागट्य अमृत कलश धारण किए होता है। वही अमृत, जिसके देवगण भी अभिलाषी रहे। कालांतर में इसे बहुआयामी आकार मिला है। यहां भारतीय संस्कृति का सृजन, मंथन,दर्शन और आरोहण होता है। यह एक प्रकार से ज्ञान का कुंभ है। इस कलियुग में ज्ञान ही वह अमृत है,जिसका पान कर व्यक्ति बुद्धत्व को प्राप्त होता है और बुद्धत्व ही गौतम बुद्ध, महावीर महावीर, महर्षि अरविंद, गुरु नानक देव, स्वामी विवेकानंद,स्वामी दयानंद सरस्वती बनते हैं, जिन्होंने आज पूरे विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। कुंभ महापर्व आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चिंतन-मनन-मंथन का लोकमंच भी है।
कुंभ महापर्व किसी पंथ,जाति,वर्ग और व्यक्ति सापेक्ष नहीं है,बल्कि उसका स्वरूप सर्वजनहिताय और सार्वभौमिक है। यहां सभी छोटी-बड़ी नदियां सागर में एकाकार हो जाती हैं। समाज के सभी जाति और पंथ कुंभ पर्व में स्व-होम कर एकरूप हो जाते हैं। कुंभ के अमृत वितरण में कोई बंधन नहीं, यहां वर्ग और वर्ण से परे सभी एक माला के मनके हो जाते हैं। समाज और राष्ट्र निर्माण के सारे बिंदुओं पर संतजन व सामाजिक कार्यकर्ता विमर्श करते हैं,ज्ञानचर्चा करते हैं।
भागवत और राम कथाओं में धर्म,अर्थ, काम,मोक्ष आधारित सनातन चिंतन की सरिता प्रवाहित होती है। ज्ञान ही अमृत है। कुंभ में संत समाज का शेष समाज से संवाद होता है। कुंभ मेला भारतीय संस्कृति की अद्भुत पहचान है। संत परंपरा ही कुंभ मेले की मुख्य धरोहर है। इसलिए यहां अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं दिखता, कुंभ में सब गंगामय होकर आते हैं और शिवमय होकर जाते हैं।
कुंभ केवल शास्त्र ही नहीं शस्त्रों का संधान भी है। कुंभ के अवसर पर अखाड़ों के साधु-संतों द्वारा हथियारों का अभ्यास करने के पीछे अखाड़ों का इतिहास हमें यह बताता है,कि 14वीं शताब्दी के बाद जब-जब विदेशी और मुस्लिम आक्रांताओं ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया,तब कई बार अखाड़ों के इन नागा संन्यासियों ने विभिन्न राजाओं के साथ मिलकर विदेशी आक्रमणकारियों से मां भारती के मान की रक्षा के लिए राजसता के साथ धर्मसत्ता के रुप में इस राष्ट्र की रक्षा की थी।
इसलिए ही कुंभ में अखाड़ों की ओर से शाही स्नान किया जाता है। इसमें साधु अपने पूर्ण वेश में सज्जित होकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए पेशवाई करते हैं। समाज की समस्याओं का समाधान निकलता है। कुंभ के मौके पर सनातन संस्कृति और समाज संगठित है,एख संदेश, एक स्वर,और ध्वनि निकलती है। यहां पर्यावरण,जल,जंगल,जमीन पर चर्चा होती है।नदियों के प्रश्न और हिमालय पर चर्चा होती है। जैव विविधता जैसे प्रश्नों पर गहन मंथन होता है। राष्ट्र की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा जैसे विषयों पर सेमिनार होते हैं। शिक्षा,संस्कृत, संस्कृति और समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक,सामाजिक , आर्थिक, सामरिक, सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर देश भर के विद्वान चर्चा करते हैं।
कमल किशोर डुकलान
रुड़की (हरिद्वार)