हिमालय की हर छोटी-बड़ी जलधारा के अविरल प्रवाह को रोककर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से महाविनाश की स्थिति पैदा हो गई है, जिसके कारण यहां के निवासियों के बीच में एक व्यापक स्तर पर गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। उत्तराखण्ड में टिहरी बांध का विरोध, नदी बचाओ अभियान, जलवायु परिवर्तन संवाद, हिमालय नीति के लिये गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा आदि प्रयास लोगों ने किये हैं। जिसके द्वारा केन्द्र और राज्यों को कई बार हिमालय जैसे नये पर्वत की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर एक हिमालय नीति बनाने के लिये सुझाव पत्र एवं दस्तावेज सौंपे गये हैं, लेकिन इसकी लगातार अनसुनी हो रही है। बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन, एवलांच, ग्लेशियरों का टूटना आदि कई घटनाओं की ओर पर्दा डालकर हिमालय प्रदेशों की सरकारें नदियों को बांधने वाली परियोजनाओं का लालच नहीं छोड़ रही हैं। 2013 में केदारनाथ आपदा और 7 फरवरी 2021 में ऋषिगंगा में आयी भंयकर मानवीय त्रासदी का कारण जल विद्युत परियोजनाएं हैं। इसे बाद भी हिमालयी राज्यों में लगभग 1000 से अधिक परियोजनायें निर्मित एवं निर्माणाधीन हैं। इसमें अधिकांश परियोजनायें सुरंग आधारित हैं, जिसमें नदियों को मोड़कर विद्युत उत्पादन किया जाता है। इस तरह के बांध ग्लेशियरों के पास नदियां के उद्गम से ही श्रृंखलाबद्ध तरीके से बांधों का निर्माण हो रहा है। अकेले उत्तराखण्ड राज्य का अध्ययन करके व स्वयं सरकार द्वारा उपलब्ध करायी गई जानकारी के अनुसार 558 बांध परियोजनाओं पर कार्य किया जा रहा है। यदि ये सभी परियोजनाएं बनकर तैयार होती हैं तो इनसे लगभग 1500 किमी लम्बी सुरंगें बनेंगी, जिनके ऊपर 5000 से अधिक गांव पड़ते हैं जहां की आबादी 30-35 लाख के आस-पास होगी। मध्य हिमालय (उत्तराखण्ड) में पिंडर, अलकनंदा, भागीरथी, मंदाकिनी, यमुना आदि नदियों पर दर्जनों परियोजनाओं के लिये बनाई गई सुरंगों के निर्माण के दौरान किये गये भारी विस्फोटों से ऊपर बसे हुये गांव के मकानों पर दरारे पड़ी हैं, खेतों की नमी सूखी है, जंगल बड़े पैमाने पर काटे गये हैं। निर्माण का मलवा भी नदियों के बहते पानी में उडेला जा रहा है। यहां सन् 1991 के भूकम्प से लेकर सन् 2021 तक 30 से अधिक बार 4.5 रिएक्टर स्केल तीव्रता के भूकम्प आये हैं और दर्जनों बाढ़ और ग्लेशियर पिघलने की घटनायें सामने आ रही हैं। ऐसी विषम पारिस्थितिकी में बिना सोचे समझे और तमाम भूगर्भिक अध्ययनों को नजर अंदाज करके सुरंग बांध परियोजनाओं को बढ़ावा देना पर्यावरणीय अन्याय है। चिन्ताजनक है कि इन परियोजनाओं के निर्माण से पहले पर्यावरण व सामाजिक प्रभाव आंकलन बिना जन सुनवाई के पास हो जाते हैं। यहां तक कि कई जल विद्युत परियोजनाओं की डीपीआर मनगढ़ंत तरीके से बनी हुई हैं। ये सभी जानकारियां अंग्रेजी भाषा में होने के कारण प्रभावित समाज के लोग इसकी सच्चाई से कभी अवगत नहीं हो पाते हैं, जिसकी वजह है कि वे थोड़े से अस्थाई रोजगार पाने पर अपना विरोध कायम नहीं रख पाते हैं। जब 2008 में ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट (13.2 मेगावाट) प्रारंभ हुआ था, तो रैणीगांव के लोगों ने इसका विरोध किया था, लेकिन वहां भी रोजगार के मोह में निर्माण कम्पनी ने प्रभावित लोगों को आकर्षित किया था। इसका परिणाम आपदा के रूप में सामने आ गया है। नदियों में भी मौजूदा हालात में उतना पानी ही नहीं है कि जिस आधार पर बिजली उत्पादन के दावे पेश किये जाते हैं। इसके उदाहरण टिहरी बांध, मनेरी भाली परियोजनायें आदि कई हैं, जहां अपेक्षित विद्युत उत्पादन नहीं हो पाता है। आपदा की दृष्टि से भी देखें तो नदियों को बांधने वाली इन परियोजनाओं की झीलों में ही भारी जल सैलाब एकत्रित होने की स्थिति में आगे बने श्रृंखलाबद्ध बांधों को क्रमवार क्षतिग्रस्त करके निचले क्षेत्रों में महाविनाश खड़ा कर देते हैं। इस तरह की आपदा को केवल जलवायु परिर्वतन के हिसाब से नापने की बड़ी भूल की जा रही है। यहां सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन की घटनायें इस तरह का मानवीय हस्तक्षेप जो विनाश में बदलने का काम नदियों पर बने हुये बांध कर रहे हैं। क्योंकि इसका ताजा उदाहरण है कि ऋषिगंगा के उद्गम में स्थित नन्दा देवी पर्वत के ग्लेशियरों के टूटने व पिघलने से जो आपदा आयी है, यह जानलेवा तभी बनी, जब नदी का रास्ता बांध बनाकर रोक दिया गया था। यदि ऐसा न होता तो नदी के अविरल प्रवाह के साथ जल सैलाब आगे बढ़कर तटों पर बहुत न्यूनतम हानि पहुंचा सकता था। जब सन् 1977 में भागीरथी पर बाढ़ आयी थी तब मनेरी भाली परियोजनायें और टिहरी बांध भी नहीं बने थे, जिसके कारण बहुत कम क्षति हुई थी। लेकिन यहां बांधों के निर्माण के बाद सन् 2010 से 2015 के बीच लगातार आयी बाढ़ के कारण अस्सीगंगा की दो परियोजनायें पूर्णक्षति ग्रस्त हुई थीं और यहां मनेरी भाली परियोजनाओं के गेट अकस्मात खोलने से तटों पर बसे गांव को बहुत नुकसान झेलना पड़ा है। टिहरी बांध में लाखों टन मलबा एकत्रित हुआ है। सन् 2017 में गौमुख ग्लेशियर बुरी तरह टूटा है जिसका मलबा बड़े-बड़े ढेरों में जमा हो रखा है, वह कभी भी भागीरथी को तबाह कर सकता है। अब सोचना चाहिये कि हिमालय के लिये खतरनाक बन रही परियोजनाओ को रोकना है या नहीं?