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कमल किशोर डुकलान

कमल किशोर डुकलान, रुड़की हरिद्वार

नई शिक्षा नीति की सबसे विशिष्ट बात भारतीय भाषाओं में भाषा को कल्पवृक्ष के रुप में महत्व देने की है। अच्छा है कि इसे अनिवार्य न करके यथासंभव वाले भाव में रखा गया है।

नई शिक्षा नीति की सबसे विशिष्ट बात भारतीय भाषाओं को भी महत्व देने की है। पाठ्यक्रम में इसकी अनिवार्यता के साथ इसके प्रति यथासंभव भाव रखा जाना चाहिए। अभी नई शिक्षा नीति में भाषा की अनिवार्यता से राजनीतिक गिद्ध विरोध के मौके की ताक में हैं, इसका पता द्रमुक नेता कनिमोझी की ओर से हिंदी के प्रति दिखाए गए दुराग्रह से पता चलता है। ऐसे दुराग्रह के बाद भी यदि सरकार और समाज गंभीरता दिखाएं तो यह ऐतिहासिक मोड़ हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा, संस्कृति और वैश्विक प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी अपनी भाषाओं का महत्व समझा जाना चाहिए। हिन्दी साहित्य के कवि और चिंतक सच्चिदानंद वात्सयायन अज्ञेय जी का कहना था कि भाषा एक कल्पवृक्ष है। इससे श्रद्धापूर्वक जो भी मांगो, वह अवश्य देती है।
यदि उससे कुछ मांगा ही न जाए तो कल्पवृक्ष भी कुछ देता भी नहीं है। दुर्भाग्यवश अतीत में भाषा का प्रश्न झूठी समझ और राजनीति के मकड़जाल में फंस कर उपेक्षित ही रह गया। हम ये भूल गए कि भाषा के साथ मनुष्य का गहरा संबंध है। व्यक्ति निर्माण में भाषा का प्रमुख स्थान है। जन्म से ही हम भाषा को सुनते और समझते आ रहे हैं और जिस परिवेश में हम रहते हैं उसी से हम गढ़े जाते हैं। यदि बचपन से ही भाषा की उपेक्षा कर अन्य भाषा की आराधना की जाए तो हमारा भाषा पर अधिकार नहीं रह पाता। मनुष्य का व्यक्ति निर्माण अधूरा रह जाता है।

विश्व के सभी शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चों को अपनी भाषा पहले अच्छी तरह सीखनी चाहिए। उसके लिए भाषा का श्रेष्ठतम साहित्य पढ़ना ही एक मात्र साधन है। अभी ऐसा नहीं हो रहा। वर्तमान समय में सारा ध्यान विज्ञान और अंग्रेजी पर है, जो कि बच्चों के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से घोर हानिकारक है। इससे बच्चों की अभिव्यक्ति की क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मन में उठने वाले हर मनोभाव को सटीक शब्दों और वाक्यों में बोलने, लिखने की क्षमता एक बहुत बड़ी शक्ति है। लिखने,बोलने की शक्ति न होने से जीवन में भले ही काम चल जाए, परन्तु इससे मनुष्य का व्यक्तित्व कमजोर होता चला जाता है। बच्चों को अपनी भाषा पर पूर्ण अधिकार करने की प्रेरणा देना सबसे बड़ी बात है।

भाषा के बिना दूसरी बातों को साफ समझना संभव होगा। अपनी भाषा ठीक प्रकार से सीखने के बाद ही विदेशी भाषाएं भी सही प्रकार से पकड़ में आएंगी। भाषा ही संपूर्ण शिक्षा की नींव है। हमें बच्चों के भविष्य की चिंता इस प्रकार से करनी चाहिए कि वह भविष्य में जो कुछ बने, वह आत्मवान मनुष्य बनने में कहीं अधूरा न रह जाए।
मनुष्य की आत्मनिर्भरता आर्थिक, भावनात्मकता के साथ मानसिक रुप से भी रहती है। यह केवल धन कमाने या कोई लाभकारी पद प्राप्त कर लेने मात्र का साधन नहीं होना चाहिए। अगर यूरोपीय, अमेरिकी, रूसी, कोरियाई आदि देशों के लोगों की बात करें तो उनके आत्माभिमान और आत्मविश्वास का रहस्य भी भाषा ज्ञान ही है। इन देशों के लोग विज्ञान-तकनीक और आर्थिकी के साथ अपनी भाषा-संस्कृति के संग जीवंत रूप से गौरवशाली रुप में खड़े दिखते हैं। हमारे देश में ऐसा नहीं हो रहा है,क्योंकि हमने कभी अस्मिता का महत्व नहीं समझा,जबकि यही चीज हमें पशु जगत से अलग करती है। मनुष्य मूल्यों की सृष्टि करते हैं-ऐसे मूल्य जिनके लिए प्राणों तक के बलिदान को भी उचित समझा जाता है। यही मनुष्यत्व है। भाषा और संस्कृति व्यक्ति निर्माण के प्रमुख अंग होने चाहिए।
यदि उससे कुछ मांगा ही न जाए तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता। दुर्भाग्यवश अतीत में भाषा का प्रश्न झूठी समझ और राजनीति में फंस कर उपेक्षित रहा। हम भूल गए कि भाषा के साथ मनुष्य का संबंध क्या है? हमें मालूम होना चाहिए कि भाषा ही हमें बनाती है। जिस भाषा को हम जन्म से ही सुनते,जानते हैं और जिस परिवेश में रहते हैं उसी से हमारा व्यक्तित्व निर्माण होता है। यदि उसी भाषा की उपेक्षा कर बचपन से ही अन्य भाषा की आराधना की जाए तो प्राय: किसी भाषा पर अधिकार नहीं रह पाता। अन्य भाषाओं की आराधना से कहीं न कहीं व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है।
भारत ही नहीं विश्व के सभी शिक्षा चिंतकों का मानना है, कि शिक्षा में बच्चों को अपनी भाषा का पहले अच्छी तरह से ज्ञान होना चाहिए।
अभी यहां ऐसा नहीं हो रहा है। वर्तमान समय की शिक्षा प्रणाली में सारा ध्यान विज्ञान और अंग्रेजी के शिक्षण पर है। जो बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से हानिकारक है। जिससे बच्चों की अभिव्यक्तिक क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। मन में उठने वाले हर मनोभाव को सटीक शब्दों और वाक्यों में बोलने, लिखने की क्षमता में बहुत बड़ी शक्ति होती है। यह न होने से भले ही जीवन में काम चल जाए, परन्तु हमेशा मनुष्य का व्यक्तित्व कमजोर ही रहता है।

अगर नई शिक्षा नीति के पालन में भारतीय भाषा-साहित्य के प्रति लगाव पैदा किया जा सकें तो एक महान कार्य हो सकता है। अन्यथा हम पश्चिम के पिछलग्गू ही बनें रहेंगे, और पिछड़ते भी जाएंगे। अंग्रेजी केंद्रित होने से ही भारतीय युवा विज्ञान-तकनीक में मौलिक खोज करने में पिछड़े हुए हैं। तमाम नई खोजें उन्हीं देशों के युवा कर रहे हैं जो अपनी-अपनी भाषाओं की बुनियाद पर खड़े हैं। उनका व्यक्तित्व सांस्कृतिक रूप से खंडित, कमजोर नहीं है। भारत में मौलिक चिंतन की संभावना कम से कमतर होती गई है। मुख्यत: विदेशी भाषाओं के चिंतन का अंग्रेजी में अनुचिंतन होता है, फिर उसी का घटिया अंग्रेजी में अनुलेखन होता है। फिर उसका जैसा-तैसा अनुवाद भारतीय भाषाओं में रुपांतरण होता है। इसी जूठी सामग्री पर हमारी संपूर्ण बौद्धिकता पर शोध चल रहा है। इसी में हमारे शिक्षक,कर्णधार, प्रशासक आदि बन रहे हैं।

जब हम विश्व रंगमंच पर अपना वास्तविक आकलन करते हैं तो हमारी सांस्कृतिक कमजोरी ही दिखती है। इसका सीधा संबंध हमारी अपनी भाषा,साहित्य,महान ज्ञान परंपरा से दूरी बनी है। हमारे युवाओं में वह भीतरी आत्मिक शक्ति कमजोर है जो संस्कृति से आती है। संस्कृति भाषा में निवास करती है और आजकल संस्कृति भाषा में कहीं नहीं है। अपनी हमें सांस्कृतिक शक्ति से संपन्न होने के लिए हमारा अपनी भाषा पर अधिकार होना अनिवार्य है। उन्नत,आधुनिक, धनी बनने की चाह में अंग्रेजी का एकाधिकार बढ़ाने से हम अपनी सांस्कृतिक अस्मिता दृष्टि खोते गए हैं। आत्महीन, दृष्टिहीन होकर कभी भी आगे नहीं जा सकता। अज्ञेय जी ने कहा था कि हमारे जीवन में अंग्रेजी का बढ़ता प्रभाव किस्तों में आत्मघात है। यदि देश की सांस्कृतिक एकता और हमारा अस्मिता बोध कमजोर हुआ तो आर्थिक प्रगति के बावजूद देश वेध्य बना रहेगा। यह सत्य खतरनाक रूप से हमारे सामने है।
विजातीय विचारधाराएं और भारत विरोधी ताकतें तरह-तरह से हम पर चोट कर रही हैं, क्योंकि हमारा अस्मिता-बोध कमजोर हुआ है। हमारी सांस्कृतिक एकता अनेकों अर्थों में कमजोर हुई है। जिसमें हिंदी की उपेक्षा का भी मूल कारण है।
भारत में विभिन्न भाषाओं की सशक्त उपस्थिति कोई समस्या नहीं है। यदि हम एक देवनागरी लिपि को अपना लें तो विभिन्न भाषाओं की आंतरिक एकता साफ दिखने लगेगी। तब हरेक भारतीय अनेक स्वदेशी भाषाएं बिना विशेष प्रयत्न के समझ सकेगा। वैसे भी विभिन्न भाषाओं की कोई ठोस सीमारेखा नहीं है। मुख्य बात सांस्कृतिक दृष्टि की है। यदि उसका महत्व ध्यान में रहे तो विभिन्नता की समस्या कोई बाधा नहीं रहेगी, जैसे वह अंग्रेजों के आने से पहले नहीं थी। संस्कृत एवं लौकिक भाषाएं देश की भावनात्मक, बौद्धिक और व्यापारिक जरूरतों की पूर्ति करती थीं। यदि नई शिक्षा नीति उस भावना को पुनर्जीवित कर सके तो हमारा कल्पवृक्ष पुन: हरा-भरा हो सकता है।