साकेन्द्र प्रताप वर्मा, सदस्य-विधान सभा उ0प्र0

लगभग 250 कलाकारों द्वारा प्रस्तुत राष्ट्र कुल गौरव महाराजा छत्रपति शिवाजी के जीवन पर आधारित अत्याधुनिक महानाट्य जाणता राजा मुझे भी देखने का अवसर मिला। उस महानाट्य में औरंगजेब अपने मुगल दरबार को संबोधित करते हुये जो संवाद बोलता है, वह छत्रपति शिवाजी महाराज का सम्पूर्ण व्यक्तित्व है।
 औरंगजेब कहता है कि हमारी आंखों के सामने शिवाजी अपनी सल्तनत की तामीर कर चुका है। हमारी लाखों-लाखों की फौज के सूबेदारों को शिकस्त देकर खदेड़ दिया है। आखिर शिवाजी को यह फतह क्यों हासिल हुई ? हमारी तरह भारी फौज, गोला-बारूद, तोप खाना, खजाना और हाथी-घोड़े शिवाजी के पास नहीं है। शिवाजी ने मजबूत किले बनाये, अपनी फौज और असलहा बुकते हैं, न रूकते हैं, न थकते हैं, न बिकते हैं। शिवाजी घाघ और चालाक तो हैं ही परन्तु उसका चाल चलन दूध की तरह साफ और सूरज की तरह चमकदार है। दुश्मन के मजहब, मस्जिद, औरत, मजहबी कलाम और फकीरों की इज्जत करता है वह। तभी तो उसकी शोहरत शोहरत बुलंद मीनार की तरह सिर उठाये आसमान को छू रही है। हम खुशनशीब खुशनशीब है कि हमें दुश्मन भी मिला तो शिवाजी शिवाजी जैसा। शहजादे!!! शहजादे!!! हुकूमत करनी है तो शिवाजी से सीखो !!

जानकारी रहे कि 19 फरवरी 1630 ई0 को शिवनेरी किले में माता जीजाबाई और पिता सरदार शाह जी के पुत्र के रूप में शिवा का जन्म हुआ। जन्म के समय की परिस्थितियों का प्रभाव बालक पर पड़ना स्वाभाविक होता है। धीरे-धीरे जब बालक बड़ा होता है तो यह प्रभाव आत्मसात् होता जाता है, जिसका परिणाम कुछ समय के बाद दिखायी देता है। शाह जी उस समय आदिलशाह के दरबार में सरदार थे। शाह जी ने सोचा कि यदि मैं अपने छोटे पुत्र शिवा को भी अपने साथ बेंगलूर में रखूंगा तो स्वाभाविक ही कुछ न कुछ वहाँ का प्रभाव इस के ऊपर हो ही जायेगा। इसलिए शिवा को उन्होंने पुणे में रखकर प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया। पुणे भी शाह जी की जागीर में सम्मिलित था।

शाहजी का मानना था कि इससे स्वतंत्रता और स्वाभिमान के वातावरण में शिवा का प्रशिक्षिण हो सकेगा। शिवा की देखभाल के के लिये उन्होंने ज्ञानवान, तथा राजकार्मांे में निपुण वयोवृद्ध मार्गदर्शक रूपी गुरू के नाते दादा जी कोंड़देव को आग्रह पूर्वक नियुक्त किया। वैसे तो माता जीजाबाई स्वयं ही युद्व नीति और राजनीति दोनों में निपुण थीं। बाल्यावस्था की शिक्षा में अनेक महापुरूषों के पे्ररक प्रसंगों का गहरा प्रभाव शिवा के जीवन में पड़ना प्रारम्भ हुआ।
अपनी सम्पूर्ण शिक्षा में माता जीजाबाई का एक ही सूत्र वाक्य था, जिसे वे सदैव शिवाजी के कानों में भरकर हृदयंगम करने की कोशिश करती थीं –
दशा देश की देख शिवा तू, शासक कुटि़ल दुरा चारी!
तू स्वराज का उदित दिवाकर, कर भविष्य की तैयारी!!

शिवाजी ने 13 वर्ष की छोटी आयु में घने जंगलों में घूम-घूमकर मावला लोगों के साथ युवा शक्ति का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने समर्पित और तेजस्वी मावल वीरों की एक टोली तैयार की ली, एक दिन शिवाजी ने रोहिणेश्वर के स्वयंभू शिव लिंग का दर्शन किया, अपने साथियों को भी वहाँ पर ले गये तथा अपने गुरू दादा कोण देव को भी बुलाया। भगवान शिव को साक्षी मानकर उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर अपने गुरू के माध्यम से हिंदवी स्वराज की शपथ ली। उसी समय समर्थ गुरू राम दास भी ‘‘ जय जय जय रघुवीर समर्थ‘‘ का उद्घोष करते हुये सहयाद्रि के वनों में मुगल अत्याचारों के विरूद्व धर्म जागरण कर रहे थे। नियति ने शिवाजी का उनसे मिलन करा दिया। चिंगारी ज्वाला बन गयी। एक अद्वितीय, अलौकिक स्वप्न शिवाजी और उनके बाल मित्रों में स्वराज्य प्राप्ति के लिये उमड़ पड़ा। माँ तुलजा भवानी के आशीर्वाद और रोहिणेश्वर महादेव के चरणों के प्रताप ने शिवा जी को नयी ऊर्जा प्रदान की।

बीजापुर द्वारा उपेक्षित तोरणगढ़ का किला शिवाजी की नजरों में चढ़ गया। अपने नौजवान साथियों के साथ उन्होंने उस किले पर कब्जा कर लिया। किले की खुदाई में अपार धन सम्पदा मिली। अल्य आयु में ही उन्होनें उस किले से अपनी राजमुद्रा बनायी। उस राजमुद्रा में संकेत दिया कि प्रतिपदा के चन्द्र का पूर्ण आकार लेना निश्चित है। शिवाजी की बगावत का समाचार बीजापुर तक पहुंच गया। शिवाजी के पिताजी पर दबाव पड़ने लगा। शाह जी भी प्रभावी जागीरदार थे। आदिलशाह का चेहरा तमतमा उठाए परन्तु शाहजी राजा के कारण उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उधर शिवा जी ने भी कूटनीतिक तौर पर आदिलशाह को कहलवा दिया कि अब वह स्वयं समझदार हो चुका है।
उसी समय अफजल खान ने आदिलशाह को बताया कि शाह जी की भी अन्दर-अन्दर इन स्वराज्य चाहने वालों से मिली भगत है। आदिलशाह ने अपने वजीर मुस्तफा खान को भेजकर धोखे से शाह जी को गिरफ्तार करवा लिया। बीजापुर में अफजल खान ने बेड़ियों से जकड़कर शाह जी का जुलूस निकलवाया।

शिवा जी ने सोचा कि अब तो पहले अपने पिता जी को छुड़वाया जाय। परन्तु उसके लिए सीधे मोर्चे बन्दी में सफलता मिलना कठिन है। इसलिये उन्होनंे कूटनीति का सहारा लिया तथा शाहजहां को पत्र लिखा कि मेरे पिता जी आपके साथ हैं इसलिये आदिलशाह ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया है। जब यह बात बीजापुर में आदिलशाह को पता चली तो उसने सोचा कि कहीं शाहजहाँ मेरे पर हमला न कर दे। इसलिये आनन फानन में शाह जी को छोड़ दिया।
शिवाजी और अफजल खां की भेंट और युद्ध का घटनाक्रम विश्व स्तर के प्रतिष्ठित सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों में आज भी पढ़ाया जाता है क्योंकि एक ओर 15 हजार घुड़सवार सैनिकों का नेतृत्व करता हुआ अफजल तथा दूसरी ओर लगभग एक हजार सैनिकों का नेतृत्व करते हुये शिवाजी। शारीरिक बनावट में भी अफजल शिवाजी से डेढ़ गुना लम्बा चैड़ा था। अफजल चला था शिवाजी को नेस्तनाबूद करने परन्तु सेना सहित वह स्वयं ही मारा गया। यह थी एक कुशल योजना कार की योजकता।
माता जीजाबाई अफजल पर शिवाजी की विजय से प्रसन्न हुयी। माता तुलजा भवानी और भाई की हत्या तथा पिता के अपमान का बदला शिवाजी ने ले लिया। परन्तु अफजल खाँ की मौत से औरंगजेब आग बबूला हो गया। उसने दक्षि ा के सूबेदार और अपने मामू जान शाईस्ता खां को भेजा।

शाईस्ता खाँ की भी दुर्गति होने के बाद दक्षिण से मुगलों की धाक समाप्त हो गयी। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह को पूना भेजा। परन्तु मिर्जा राजा जय सिंह के पास भी शिवाजी ने कूटनीतिक तरीके से संधि का प्रस्ताव भेज दिया। वह प्रस्ताव औरंगजेब के पास पहुंचाए शर्तंे स्वीकार हो गयी। शिवाजी आगरा पहुंच गये। परन्तु जिस औरंगजेब ने सत्ता के लिये अपने पिता और भाई को नहीं छोड़ाए वह शिवाजी को कैसे छोड़ देता। शिवाजी गिरफ्तार हो गये। परन्तु शिवाजी भी कम चालाक नहीं थे।

जेल में बन्द होकर शिवाजी ने बीमारी का बहाना बना लिया। वैद्य और हकीमों के वेश में मराठे आने लगे। कुछ दिन बाद शिवाजी के ठीक हो जाने के कारण जेल में मिठाई और फल बांटे गये। फल के टोकरे योजनानुसार बड़े बनवाये गये। शिवाजी और सम्भाजी उन्हीं टोकरे में बैठकर जेल से बाहर आ गये तथा साधू वेश में वाराणसी से होकर दक्षिण वापस चले गये। माता जीजाबाई की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। शिवाजी के भागने का क्रोध औरंगजेब ने जयसिंह पर उतारा तथा उसकी जगह राजकुमार मुअज्जम और जसवन्त सिंह को शिवाजी को दण्डित करने के लिये तैनात किया। परन्तु इनका भी शिवाजी से समझौता हो गया।

छत्रपति शिवाजी भी औरंगजेब के छल कपट से सतर्क रहते थे। माता जीजाबाई ने सिंह गढ़ पर अधिकार करने के लिये शिवाजी को उत्साहित किया। ंिसंह गढ़ पर मुगलों के प्रतिनिधि के रूप में दैत्याकार उदयभान किलेदार था। सिंहगढ़ दुर्गम पहाड़ी पर स्थित था। उस किले पर चढ़ने का कोई मार्ग नहीं था। शिवाजी ने अपने बाल्यावस्था के सहयोगी ताना जी मालसुरे को इस कार्य के लिये अगुवा बनाया। ताना जी अपने पुत्र का विवाह छोड़कर युद्ध के लिये आ डटे। इस विजय अभियान का नेतृत्व करने वाले ताना जी को पता था कि किले पर चढ़ने के लिये केवल रस्सी यकमन्दद्ध ही एक मात्र सहारा है। फिर भी सबसे पहले ताना जी पर चढ़े। फिर एक-एक करके बहादुर सिपाही चढ़ने लगे। मात्र पचास सिपाही ही चढ़ पाये थेे तब तक रस्सी टूट गयी। अंदर उदय भान अपने 1200 सैनिकों के साथ था। उदयभान और ताना जी दोनों धराशायी हो गये, परन्तु कुछ ही पलों में सिंहगढ़ पर शिवाजी का कब्जा हो गया। भगवा ध्वज फहराने लगा। शिवाजी तानाजी का शव देखकर रो पड़े और कहा गढ़ तो आ गया, परन्तु सिंह चला गया।

जहां एक ओर औरंगजेबी अत्याचारों की बाढ़ आ रही थी। वहीं सम्र्पूण देश में शिवाजी की जय जयकार हो रही थी। शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास उन्हें यश कीर्ति और नीति का प्रतीक मानते थे। सन्त तुकाराम की भी शिवाजी पर असीम कृपा रहती थी। तमाम विद्वान कवि, सन्त, साधु और राजनैतिक विशारदों ने शिवाजी के अस्तित्व को देश में स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया था। परिणाम स्वरूप चारों ओर से आवाज उठने लगी कि सर्वगुण सम्पन्न राजा के रूप में शिवाजी का राज तिलक होना चाहिए। लेकिन कुछ पोथीधारकों ने शब्दों का जाल फैलाकर छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक से असहमति प्रकट करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसे लोगों ने कहा कि शिवाजी किसी भी राजवंश के नहीं है। इसलिये इनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। राजकुल की परम्परा के बिना इनका राज तिलक संभव नहीें है। काशी में औरंगजेबी अत्याचारों के कारण बाबा विश्वनाथ का मंदिर पण्डित गागा भट्ट की आंखों के सामने तोड़ा गया था। पं0 गागा भट्ट के पूर्वज विजय नगर साम्राज्य में सम्राट कृष्णदेव राय के पास रहते थे। उन्होंने मुगलिया अत्याचार के काले दिन देखे थे। इसलिये पं0 गागा भट्ट ने रायगढ़ जाकर शिवाजी का राज्याभिषेक करवाने का संकल्प लिया। उन्होनंें श्रेष्ठ क्षत्रिय कुल की टूटी हुयी लड़ी को जोड़कर यह प्रमाणित कर दिया कि शिवाजी भी इसी वंशावली में जन्में हैं। रायगढ़ पहुंचने पर पं0 गागाभट्ट का भव्य स्वागत किया गया। उन्होंने अपने स्वागत के प्रति उत्तर में कहा कि जो बादशाह हमारी भूमि पर हमसे पहले तख्त पर बैठते हैं, उन्हें तो स्वीकार करते हो। परन्तु जिस शिवाजी ने ऐसे सब तख्तों को अपनी ठोकर से रौंद डाला उसे राज सिंहासन पर बैठने का अधिकार क्यों नहीं है, शिवाजी के पास वह सब कुछ है जो एक प्रभुता सम्पन्न राजा के पास होता है। घुड़सवार सेना से नौ सेना तक शिवाजी के लहराते झ डे देेखे जा सकते हैं। शिवाजी ने ध्वस्त देवालयों का पुनर्निमाण किया है। गाय, गीता और तुलसी की रक्षा की है। साधु संतों की साधना के व्यवधान समाप्त किये हैं। इसलिये शिवाजी का राज्याभिषेक तो होना ही चाहिए।

पं0 गागाभट्ट ने माता जीजा बाई से अनुमति लेकर राज्याभिषेक की तैयारी प्रारम्भ कर दी। गुलामी के कालखण्ड की समाप्ति और हिन्दवी स्वराज्य के षाकाल का यह महोत्सव ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी संवत् 1731 यसन् 1674 ई0 को छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से सम्पन्न हुआ। देश, राजा इस राज्यारोहण में उपस्थित रहे। इंग्लैण्ड के राजा के दूत हेनरी आक्सीडेन ने 1650 रूपये नजराना, वस्त्रए हीरे की अंगूठी तथा एक स्वर्णड़ित कुर्सी भी अपने राजा की ओर से भेंट की। दक्षिण भारत में उत्सव का माहौल था। मिष्ठान्न बांटा जा रहा था। शिवाजी ने माता तुलजा भवानी और अपने कुल देवता की आराधना की। खुशी के इन पलों में शिवाजी अपने उन साथियों को नहीं भूल पा रहे थे जिनका इस देश की स्वतंत्रता के लिये बलिदान हुआ। ताना जी मालसुरे, सूर्या जी काकड़े, बाजी प्रभु देश पाण्डेय मुरार वाजी, बाजी पासलकर, प्रताप राव गुर्जर आदि को श्रद्धाँजलि दी गयी। आगरा जेल की कैद से शिवाजी को बाहर निकालने वाले मदारी मेहतर को भी वे नहीं भूले और राज्यारोहण के बाद उसे गले से लगा लिया। शिवाजी ने बहुत प्यार से उससे कहा कि मदारी! तुम जो चाहो मांग लो। किन्तु मदारी ने धन सम्पदा नहीं मांगी बल्कि उसने राज सिंहासन पर हमेशा चद्दर बिछाने का अधिकार मांगा। शिवाजी का सम्र्पूण व्यक्तित्व और कर्तृत्व हमारे लिये प्रेरणादायी है। शिवाजी का राज्याभिषेक भारत के स्वाभिमान की पुर्नस्थापना का पर्व है।

हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के 6 वर्ष बाद मार्च, 1680 ई0 में शिवाजी एक युद्ध से वापस आते समय गम्भीर रूप से अस्वस्थ हुये। घुटने में भी चोट आयी। बहुत औषधि देने के बाद भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ। ईश्वर के आगे किसी की भी नहीं चली। 3 अप्रैल 1680 ई0 को हिंदवी स्वराज्य का संस्थापक मात्र 50 वर्ष की आयु में देश को अपनी प्राणहुति देकर चल पड़ा। बची केवल उसकी चिता की चुटकी भर भस्म जो हिंदवी स्वराज्य की रक्षा के लिये प्रेरणा का मंत्र बन गयी।
छत्रपति शिवाजी महाराज युगावतार थे! उन्होने समस्त मानवता को संकट से बाहर निकाला तथा भारतीय जीवन मूल्यांे की रक्षा की। वे चाहते तो जीवन का आनन्द उठा सकते थे, परन्तु उन्होनें क्रांति की राह पसन्द की और जन.जन में पूज्य बन गये।

आज भी अपने देश की परिस्थिति शिवाजी के समय से भिन्न नहीं हैं। अपना देश चारों ओर से जिन देशों से घिरा है उनमें से अधिकांश देश भारत के मित्र के बजाय शत्रु हैं। देश के अंदर भी उन शत्रुओं के शुभचिंतक भारत की स्वतंत्रता और स्वधर्म का भक्षण करने के लिये उतावले हैं।

देश की युवा शक्ति को गौरव विहीन बनाकर आत्म विस्मृति के मार्ग पर धकेलने के प्रयास हो रहे हैं। हम यह सोचते ही नहीं है कि यदि मावला के सामान्य युवकों में राष्ट्रभक्ति का भाव भरकर छत्रपति शिवाजी महाराज उनसे असामान्य कार्य करवा कर हिन्दवी स्वराज की पुनस्र्थापना कर सकते हैं। तो आज की युवा पीढ़ी में भी राष्ट्र उत्थान की उर्जा का भाव भरकर भारत को श्रेष्ठ और दुनिया का सिरमौर क्यों नहीं बनाया जा सकता।

छत्रपति शिवाजी समेत तमाम महापुरूषों का जीवन हमें प्रेरणा दे सकता हैए जरूरत इस बात की है कि हम उन महापुरूषों के जीवन संघर्ष से प्राप्त उर्जा को आत्मसात् करने के लिये मानसिक रूप से तैयार हांे।
राष्ट्र का निर्माण-पोषण, वृद्धि है जिनकी कहानी!
आन पर बलिदान की है, त्यागमय जीवन निशानी!
राष्ट्र पुरूषों की चिरंतन कल्पनाओं की कड़ी है!
हर कदम में राष्ट्र के उत्थान की आशा भरी है।