कोरोना महामारी के घनघोर अंधकार से घिरा पूर विश्व आज देवभूमि की दिव्य संजीवनी वनौषधियों की टिमटिमाहट को आशा एवं विश्वास भरी नजरों से निहार रहा है। ऐसी हजारों बहुमूल्य जड़ी बूटियोंं में से एक” कूठ ” अल्पाइन हिमालय में उत्तराखण्ड,हिमाचल, कश्मीर के 2500 से 4000 मीटर तक अत्याधिक ऊंचे पहाड़ों पर प्राकृतिक रूप से उगी हुई मिलती है।
आज अंधाधुंध विदोहन एवं जलवायु परिवर्तन के कारण इस बहुमूल्य वनौषधि पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।
कवि कालिदास की रचनाओं में भी कूठ का उल्लेख् ‘हरिभद्रक’ या ‘पुष्कर ‘ के नाम से मिलता है।
कूठ के पौधे 6-7 फीट ऊचे होते हैं, जो कि कई वर्षों तक जिन्दा रहते हैं। हर साल सर्दियों में इसका ऊपरी भाग नष्ट हो जाता है तथा बर्फ पिघलने पर नया पौधा फिर से उगता है। सर्दियों में इन पौधों पर गहरे नीले-बैंगनी सुन्दर फूल आते हैं।
उत्तराखंड के सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में कूठ का उपयोग अनेक रोगों की घरेलू उपचार में किया जाता है।  पहाड़ पर ग्रामीण अक्टूबर माह में 3 से 5 साल के पौधों की जड़ों को इकट्ठा कर उन्हें धूप में सुखा कर चिकित्सा हेतु प्रयोग करते हैं।
पुराने से पुराना जख्म कूठ के चूर्ण को छिडकने से भर जाता है। दांत का दर्द,जोड़ों की सूजन,एवं अनेक चर्म रोग कूठ के लेप से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। बाल झड़ना रोकने के लिए भी कूठ बहुत कारगर है।
पहाड़ में लोग ऊनी कपड़ोंं को कीड़ा लगने से बचाने के लिए कूठ के टुकड़े रखते हैं तथा इसका धुंआ भी देते हैं।

यह सभी बहुमूल्य जानकारी यमुनोत्री घाटी के मोरी ब्लाक के बुजुर्ग ग्रामीणों के अनुभवोंं से प्राप्त की गयी हैंं, फिर भी प्रयोग में सावधानी अपेक्षित है।

आयुर्वेद में “कुष्ठ “के नाम से इसका उपयोग कुष्ठादि क्वाथ , कुष्ठादि तैल कुष्ठादि घृत सहित अनेकानेक औषधियों के निर्माण में किया जाता है, जिनका उपयोग कई गंभीर रोगों की चिकित्सा में किया जाता है।
कूठ की खेती के लिए उत्तराखंड की राज्य सरकार अनेक योजनाओं में अनुदान/प्रोत्साहन देती है।

-डॉ आदित्य कुमार
पूर्व उपाध्यक्ष राज्य औषधीय पादप बोर्ड, उत्तराखंड.