कोविड-19 उभरी मुश्किलों से जूझते हुए आम जनसमुदाय ने वक्त के साथ कदम ताल करना शुरू कर दिया है। इस बीच लोगों को एक बड़ी चिंता अपने बच्चों की आगे की पढ़ाई की हो रही है कि स्कूल कब और कैसे खुलेंगे……….
महान दार्शनिक अरस्तू का मानना था कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण सक्रिय भूमिका निभाएं बिना कोई परिपूर्ण मानव बनने की आशा नहीं कर सकता। स्कूल से बहार के समाज में जो सीखने का अवसर मिलता है और समाज जो सिखाता है,वह विद्यालय कभी नहीं सिखा सकता। कोरोना संक्रमण काल में मुश्किलों से जूझते हुए लोगों ने धीरे-धीरे वक्त के साथ कदम ताल करना प्रारंभ कर दिया है। इस बीच लोगों में अपने बच्चों की पढ़ाई की चिंता सता रही है कि स्कूल कब और कैसे खुलेंगे और क्या फिलहाल स्कूल में बच्चों को भेजना सुरक्षित रहेगा? इस चिंता के बीच कोरोना काल के इन महीनों में जरूर आनलाइन कक्षाएं एक विकल्प के रुप में उभरी हैं, किन्तु इन कक्षाओं की भी उसकी काफी हद तक एक सीमाएं हैं। किन्तु जरा ठहर कर यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्या बच्चे सिर्फ स्कूल में रहकर ही सब कुछ सीखते हैं क्या? वे बच्चे घर पर रहकर अपने परिवार, पड़ोस, साथियों के बीच ऐसा कुछ नहीं सीखते, जिसमें जीवन का मूल्यांकन हो।
प्रतिस्पर्धा आधारित स्कूलों की चूहा-दौड़ से परे क्या पारिवारिक, सामुदायिक मूल्यों को सीखने का चाहे-अनचाहे अवसर नहीं है? दरअसल हमारा आधुनिक समाज शिक्षा को औपचारिक स्कूली पढ़ाई से जोड़कर देखने का आदि रहा है। वह इस तथ्य को भी झुठला देना चाहता है कि बच्चे अधिकतर कौशल और मूल्य स्कूल की अनुशासित कक्षा से बाहर अनौपचारिक सामाजिक दायरे में ही सीखते हैं। दुनियाभर में शिक्षाविदों और बौद्धिकों का एक समूह तो संस्थानीकृत स्कूली पढ़ाई के दुष्परिणामों को जोरदार ढंग से रेखांकित करने लगा है। ईशान, इलीच जैसे विचारक ने डीस्कूलिंग सोसाइटी याने समाज को स्कूलों से मुक्त करने की बात की है। वे स्कूल के बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को कुंद करने वाली, स्थानीय-सामुदायिक ज्ञान विवेक का हरण करने वाली और पूंजीवाद अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी अनुशासित और आज्ञापालक बनाने वाली फैक्ट्री मानते हैं। अमेरिकी शिक्षक विद्वान जॉन टेलर गेट्टो अपनी किताब डम्बिंग अब डाउन में लिखते हैं कि अमेरिकी स्कूल अपने विद्यार्थियों को साथ पाठ पढ़ाते हैं। भ्रमित रहना, वर्ग स्थिति बनाएं रखना, तटस्थ और उदासीन रहना भावनात्मक और बौद्धिक रुप से निर्भर बनना सम्पूर्ण आत्मसम्मान की बजाय कामचलाऊ आत्मसम्मान की भावना पैदा करना और निगरानी में रहने को स्वभाविक मान लेना। गेट्टो यह भी कहते हैं अपने अनुशासित और खण्डित जीवनचर्या से स्कूल हमारे शिशुओं को सामुदायिक जीवन में सक्रिय भूमिका का निर्वहन करने की सम्भावना से दूर ले जाता है। जबकि अरस्तू जैसे विद्वान का मानना था कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण सक्रिय भागीदारी और भूमिका निभाएं बिना कोई परिपूर्ण मानव नहीं बन सकता। स्कूलों की इस तरह की आलोचना को हम भले ही पूरी तरह से स्वीकार न करें, लेकिन इतना तो मानेंगे ही कि स्कूलों ने बच्चों के पूरे बचपन को गम्भीर रुप से अपने घेरे में ले लिया है। स्कूली समय के बाद भी गृहकार्य और शिक्षण जैसी अनिवार्य सी बन चुकी गतिविधियों में अपना होगा। खेलने-कूदने, गप्प मारने, प्रकृति को निहारने एवं उच्च और मध्यम वर्ग के परिवारों में घरेलू कामों में बड़ों के साथ संलग्न होते हुए सीखने के अवसर आज के समय में लगभग शून्य हो गए है। पहले जब बच्चों को स्कूल जाने के अलावा गाय चराने, घास काटने, नदी में नहाने, खेलने-कूदने, खेल के सामूहिक कामों में भागीदारी करने, प्रकृति के नजदीक रहने के ढेरों अवसर मिलते थे। इस सूची में जिन्हें हम विशुद्ध काम समझ रहे हैं, दरअसल वे हमारे लिए साथियों के साथ मिलने, खोज करने, खेलने और कल्पना करने के अवसर भी थे। स्कूलों में भी आज की जैसी प्रतिस्पर्धा की जगह समूह में मिलजुलकर सीखने, मूल्यों को प्रदर्शित करने और अलर्ट निगरानी और नियंत्रण करने की प्रवृति थी। ऐसा वातावरण सहज सीखने के अवसरों से भरा था। परन्तु आज इसकी घोर कमी महसूस होती है। आखिर आज बहुत से समाज के पढ़े लिखे लोग समुदाय से कटकर रहना क्यों पसंद करते हैं? आज पूरी दुनिया में घर पर शिक्षा और स्कूल में प्रवेश न लेना अपनी जगह बना रहा है। अकेले अमेरिका के दस लाख से अधिक अभिभावकों ने बच्चों को घर पर शिक्षा देने का विकल्प चुन लिया है। हमारे देश में बहुत सीमित ही सही परन्तु कुछ अभिभावक इसे अपना मान रहे हैं। हालांकि ये सब सुविधा प्राप्त लोगों के ही विकल्प है। कोरोना काल में पिछले कुछ महीनों के दौरान घर पर रहते हुए लोग, बच्चों के साथ अच्छी तरह से जुड़ पाये और उनके सीखने के तौर-तरीकों का अवलोकन भी कर सके। बच्चों की दिनभर होने वाली तरह-तरह की गतिविधियों और नये सीखने के कौशलों को देखा। इन महीनों में बच्चों के अन्दर ये बदलाव बताते हैं कि बच्चों में स्कूल से बहार की दुनिया में भी सीखने का क्रम आबधित रुप से चलता रहता है। कमल किशोर डुकलान, रुड़की (हरिद्वार)