डॉ. आदित्य कुमार पूर्व उपाध्यक्ष राज्य औषधीय पादप बोर्ड, उत्तराखंड.
देवभूमि अनादि काल से ही आयुर्वेद के प्रणेता महर्षियों की ज्ञान एवं कर्म भूमि रही है। कई सौ वर्षों तक हजारों वनस्पतियों पर अध्ययन एवं अनुसंधान कर उन्हें मानव को रोगमुक्त करने के लिए उन्हें ग्रंथों के रूप में लिपिबद्ध किया। इसी क्रम में एक ऐसी वनस्पति पायी गयी जिसके पौधे पहाड़ में चट्टान को तोड़ कर उगते हुए प्रतीत रहे थे तथा प्रयोग करने पर उनमें urinary tract की पथरी को शरीर से तोड़ कर बाहर निकालने का चमत्कारिक गुण पाया गया। इसलिए इसको नाम मिला “पाषाणभेद “। उत्तराखंड के पहाड़ों में इसे ‘शिलपाटी,’ ‘सिलफढा’ या ‘पत्थरचूर ‘, पत्थरचट, ‘पखानभेद’ आदि नामों से जाना जाता है।
हिमालय में लगभग 10 हजार फीट की ऊंचाई तक कश्मीर से भूटान तक पाषाणभेद पाया जाता है। उत्तराखंड में प्राकृतिक जलस्रोतों के किनारे नमी वाले स्थान पर या पहाड़ों के जिस भाग पर धूप नही आती , बड़ी संख्या में “पाषाणभेद ” उगते हुए देखे जा सकते हैं।
पाषाणभेद का botanical name- Berginia ligulata है। पाषाणभेद के पौधों के छोटे-छोटे तने चट्टानों की दरारों में से निकलते हैं जिन पर लगे पत्तों का रंग ऊपर से हरा तथा नीचे से लाल होता है। अप्रैल-मई माह में इन पर छोटे -छोटे सफेद-लाल फूल आते हैं।
पहाड़ों मे घरेलू उपचार मेंं फोड़ों की pus निकालने के लिए सिलफडा की जड़ों को पानी में भिगो कर घिस कर लगाया जाता है । ताजी जड़ को दिन में 3-4 बार चबाने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं। Kidney stones के रोगियों को पाषाणभेद की जड़ों को कुलथी की दाल के साथ पीसकर दिया जाता है।
आयुर्वेद में urinary tract के रोगों के अतिरिक्त diarrhoea dysentry , बवासीर , खांसी, leucorrhoea, रक्त प्रदर और हृदय रोगों सहित अनेक व्याधियों की चिकित्सा में किया जाता है।
आज जब कोरोना की महामारी से पीड़ित पूरी दुनिया आयुर्वेद की ओर आशा एवं विश्वास से निहार रही हैं, उत्तराखंड की देवभूमि पुनः एक बार मृत्यु से जूझते विश्व को संजीवनी बूटी सौंपने के अपने दायित्व से मुंह नहीं फेर सकती ।