• डॉ. सुरक्षित गोस्वामी, योग गुरु

जब ध्यान में बैठते हैं, तब बिना अभ्यास वाला मन अच्छे-बुरे विचार लेकर आ जाता है और हमारे ध्यान को भंग कर देता है फिर हम उन विचारों को हटाने के लिए उनसे लड़कर उनको हराने लगते हैं लेकिन आखिर में विचार ही जीत जाते हैं और हम हारकर ध्यान से उठ जाते हैं। असलियत में ध्यान के समय विचारों की एक बाढ़ आ जाती है। ध्यान में शरीर तो बिल्कुल भी नहीं हिल रहा होता, इसलिए अब मन दौड़ने लगता है। मन का यह दौड़ना रजो गुण के कारण होता है, क्योंकि हम ध्यान से पहले रजो गुण को उपयोग नहीं करते इसलिए मन भागता रहता है। इसके लिए यह ज़रूरी है कि ध्यान से पूर्व कुछ ऐसे अभ्यास किये जाएँ जिससे शरीर भलीप्रकार हिले-डुले और उसका रजोगुण शांत हो जाए।

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में ध्यान को सातवां अंग कहा है कि पहले आसन, प्राणायाम करके रजो गुण को शांत कर लो, उसके बाद ध्यान आसानी से लगने लगेगा। असलियत में जब तक ध्यान की भूमिका तैयार नहीं होगी, ध्यान नहीं लगेगा। इसलिए ध्यान से पहले आसन, प्राणायाम करो या मस्ती के साथ दिव्य नृत्य कर लो फिर ध्यान अच्छा लगने लगेगा ।

मन एक प्लेटफार्म है, जहाँ अच्छे-बुरे विचारों की एक श्रंखला बनींं रहती है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम सकारात्मक विचार को महत्व दे रहे हैं या नकारात्मक। एक नकारात्मक विचार अपने साथ अन्य नकारात्मक विचार ले आएगा। ऐसे ही सकारात्मक विचार भी अपने साथ सकारात्मक विचार ले आएगा। इस प्रकार जिन विचारों को हम ज्यादा महत्त्व देते हैं वैसा ही हमारा स्वभाव बन जाता है। फिर जब हम ध्यान में बैठते हैं तब स्वभाव वश वैसे ही विचार मन में तैरने लगते हैं। इसलिए मन को मज़बूत करना ज़रूरी है। ध्यान और मज़बूत हो इसके लिए गुरु के साथ सत्संग बड़ा लाभकारी होता है, क्योंकि जब तक मन दुनिया के ख्यालों में ही लगा रहेगा तब तक जीवन में ध्यान नहीं घट सकता। ध्यान में तो अपना नाम, शरीर, पद ,लिंग, शरीर, जगत आदि सब कुछ छोड़ना पड़ता है जिसको मन ने अभी तक पकड़ा हुआ है। गुरु का सानिध्य ही हमारी ध्यान यात्रा को आगे बढ़ा सकता है, क्योंकि गुरु को ही पता है कि अब शिष्य को कौन सी ध्यान विधि करनी है।