कमल किशोर डुकलान ‘सरल’
भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु पूर्णिमा को एक अत्यंत पावन पर्व माना गया है। यह दिन गुरु और शिष्य के रिश्ते की पवित्रता और उसके महत्व का प्रतीक माना जाता है। गुरु पूर्णिमा केवल पारंपरिक गुरु-शिष्य के संबंध तक सीमित नहीं है,बल्कि आज के समय में माता-पिता, अध्यापक, आध्यात्मिक गुरु, और वे सभी लोग जो जीवन को दिशा देने में सहायक होते हैं, उन्हें भी इस दिन विशेष सम्मान देने की परम्परा है। भगवान शिव को योग विज्ञान का जनक एवं आदि योगी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव इस सृष्टि जगत के पहले आदिगुरु बने। आदियोगी भगवान शिव द्वारा प्रदत्त प्राप्त ज्ञान को गुरु पूर्णिमा के दिन ही सप्तऋषियों आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान को संरक्षित करने और प्रसारित करने के महत्व को पहचाना और इसे पूरी दुनिया में लेकर गए थे और आज भी,धरती की हर आध्यात्मिक प्रक्रिया के मूल में आदियोगी द्वारा दिया गया ज्ञान ही है।
भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु पूर्णिमा का पर्व धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के शाश्वत मूल्य के साथ-साथ उन आदरणीय श्रेष्ठ गुरुओं की याद दिलाती है जो निस्वार्थ भाव से अपनी विशेषज्ञता को शेष विश्व के साथ साझा करते हैं। गुरु पूर्णिमा पर ऐसे आध्यात्मिक श्रेष्ठ गुरुओं का अभिवादन……
संस्कृत में ‘गुरु’ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार को मिटाने वाला।’ देखा जाए तो सच्चा गुरु वहीं है,जो साधक के अज्ञान को मिटाता है,ताकि वह अपने भीतर ही सृष्टि के स्रोत का अनुभव कर सके। पारंपरिक रूप से गुरु पूर्णिमा का दिन वह समय होता है जब साधक गुरु को अपना आभार अर्पित करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान के लिए योग साधना और ध्यान का अभ्यास करने के लिए गुरु पूर्णिमा का दिन विशेष लाभ देने वाला विशेष दिन माना जाता है।
गुरु पूर्णिमा का वह दिन है, जिस दिन भगवान शिव ने अपने को आदि गुरु,अर्थात अपने को सृष्टि के पहले गुरु के रूप में स्थापित किया। कहा जाता है कि 15000 वर्ष पहले भगवान शिव का ध्यान उन महान सप्तऋषियों की ओर गया जो पहले उनके शिष्य बने। उन्होंने 84 वर्षों तक कुछ सरल तैयारियाँ की थीं। फिर जब ग्रीष्म संक्रांति,आई तो ग्रीष्म संक्रांति से सर्दियों की संक्रांति में बदली,यानि जब पृथ्वी के संबंध में सूर्य की गति उत्तरी गति से दक्षिणी गति में बदली, जिसे इस परंपरा में उत्तरायण और दक्षिणायन कहते हैं, उस दिन आदियोगी ने सप्तऋषियों की ओर देखा और उन्होंने यह महसूस किया कि वे जानने की अवस्था के पात्र बन गये और अब उन्हें और ज़्यादा अनदेखा नहीं किया जा सकता है। आदियोगी उन्हें ध्यान से देखते रहे, और जब अगली पूर्णिमा आई तो आदियोगी भगवान शिव ने गुरु बनने का फैसला किया। उसी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। उन्होंने अपना मुख दक्षिण की ओर कर लिया और सात शिष्यों को यौगिक विज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू हो गई।
गुरु पूर्णिमा वह दिन है जब सृष्टि में पहले आदि गुरु का जन्म हुआ था। यौगिक संस्कृति में शिव को भगवान को इसलिए आदिगुरु कहा जाता है क्योंकि उन्होंने इस सृष्टि में योग, ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान का सूत्रपात किया था। कहते हैं कि जब हजारों वर्ष पहले सृष्टि में धर्म और योग की कोई अवधारणा नहीं थी तब ग्रीष्म संक्रांति की पहली पूर्णिमा को सप्त ऋषियों के द्वारा सबसे पहले योग का ज्ञान पृथ्वी पर फैलाया। भगवान शिव को इस सृष्टि का रचयिता, पालनहार और संहारक माना जाता है, और इसलिए उन्हें सभी जीवों का जगद पिता भी कहा जाता है। भगवान शिव द्वारा पहले योग के ज्ञान को पृथ्वी पर प्रसारित करने के कारण भगवान शिव को न केवल एक देवता के रूप में पूजा जाता है, बल्कि उन्हें ज्ञान और आध्यात्मिक उन्नति के मार्गदर्शक के रूप में भी पूजनीय भाव से देखा जाता है।
हमारी सृष्टि में अखंड मंडलाकार बिन्दु से लेकर सृष्टि तक चलने वाली अनंत शक्तियां परम तत्व के रूप में स्थापित हैं। मनुष्य से लेकर समाज, प्रकृति और परमेश्वर के बीच में जिस शक्ति का सम्बंध है। साधकों द्वारा शक्ति रुपी जिस सम्बंध को जिनके चरणों में बैठकर समझने की अनुभूति पाने का प्रयास किया जाए वास्तव में वही गुरु है। विश्व में योग विज्ञान का प्रसार करते हुए सप्त ऋषियों ने मानव जीवन के आदर्श गुणों को निर्धारित करते हुए गुरु दीक्षा को व्यवस्थित रूप में समाज के सामने रखा। भगवान शिव द्वारा प्रदत्त आध्यात्मिक ज्ञान का सप्त ऋषियों द्वारा प्रसार गुरु के चरणों में दीक्षा रुप में लिया गया ज्ञान आत्म-साक्षात्कार और मुक्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। भगवान शिव ने जो आध्यात्मिक योग के विज्ञान को मानवता को दिया,वह ज्ञान आंतरिक परिवर्तन और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। आदियोगी के उपदेशों का सार यह है कि मनुष्य को अपनी सीमाओं और अहंकार से ऊपर उठकर, आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
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