तीन दशकों तक जाली प्रमाण, बोगस बातें और झूठ के पुलिंदों के सहारे मंदिर के अकाट्य प्रमाणों को झुठलाने की कोशिश की गई. अदालत में झूठे साबित होते रहे, पर बाहर वही झूठ दोहराते चले गए.
हिन्दू संस्कृति को सब बुराइयों की जड़ कहने वाले और पूजा-उपासना को अफीम कहने वाले वापंथियों ने हमेशा भारत के इतिहास को विकृत करके प्रस्तुत किया. कांग्रेस से उनका एक अलिखित समझौता रहा, जिसके अंतर्गत वामपंथियों को शिक्षा और कला संस्थानों, मीडिया आदि के क्षेत्र में बढ़ने दिया गया, और बदले में वामपंथियों ने ‘नेहरूवाद’ को भारत का विचार बताकर उसे सब ओर स्थापित किया. नेहरू का कथन ‘मैं दुर्घटनावश हिन्दू हूं’ कम्युनिस्ट विचार को छजता भी था. इसलिए कांग्रेस का सत्ताधीश परिवार वामपंथियों के साथ काफी सहज था. इसलिए साठ के दशक से लेकर आज तक गांधी परिवार और उनके इर्द-गिर्द के लोग वामपंथियों के साथ मंच और शक्ति साझा करते रहे.
वामपंथियों ने सत्ता की इस करीबी का फायदा उठाकर वामपंथी विचार को स्थापित करने और हिन्दू पहचान को झुठलाने, बदनाम करने में पूरी ताकत झोंक दी. जब राम मंदिर का आंदोलन प्रारंभ हुआ, तब वामपंथियों ने राम जन्मभूमि के इतिहास और पुरातात्विक प्रमाणों को झुठलाने के लिए अपनी सेवाएं अर्पित कर दीं. वो उन मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जा खड़े हुए जो राम जन्मभूमि को लेकर मुस्लिम समाज को गुमराह कर रहे थे, और किसी भी कीमत पर सच को सामने नहीं आने देना चाहते थे. इतिहास के साथ की गई इस लंबी धोखेबाजी का भी इतिहास बन गया, जिसे परत दर परत उधेड़ना जरूरी है.
साल 1991 में चार वामपंथी ‘इतिहासकारों’ आरएस शर्मा, एम अतहर अली, डीएन झा और सूरज भान ने अयोध्या पर एक रिपोर्ट तैयार की. इस रिपोर्ट में घुमा फिराकर यह कुतर्क दिया गया कि राम जन्मभूमि श्रीराम का जन्मस्थान नहीं है, और न ही बाबर ने कोई मंदिर तोड़कर राम जन्मभूमि पर किसी भवन (बाबरी ढांचा) का निर्माण किया. इस रिपोर्ट को तथा अन्य मुस्लिम पक्षकारों ने हाथों हाथ लिया, यह जानते हुए भी कि मंदिर के अकाट्य प्रमाणों को छिपाकर यह रिपोर्ट तैयार की गई थी.
अदालत में राम जन्मस्थान का नक्शा फाड़ने वाले मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने इस रिपोर्ट को Historian’s Report To The Indian Nation नाम से सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा. सर्वोच्च न्यायालय ने इस रिपोर्ट को प्रमाण मानने से इनकार कर दिया क्योंकि यह रिपोर्ट राम जन्मस्थान के खुदाई में मिले मंदिर के प्रमाणों को दरकिनार कर तैयार की गई थी. खुदाई का आदेश उच्च न्यायालय ने दिया था. कोर्ट ने इस रिपोर्ट को इसके लेखकों का विचार या अभिमत (ओपिनियन) माना, सबूत नहीं. अदालत ने कहा कि इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों ने “पुरातात्विक खुदाई में मिले वास्तु प्रमाणों – निष्कर्षों को ध्यान में नहीं रखा. रिपोर्ट को तैयार करने की प्रक्रिया भी असावधानीपूर्वक संचालित की गई लगती है.”
गौरतलब बात यह है कि रिपोर्ट उत्खनन के पहले तैयार की गई थी, लेकिन जब भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा खुदाई में ढांचे के नीचे मंदिर होने के प्रमाण मिले तो भी इस रिपोर्ट के लेखक और इस रिपोर्ट का विज्ञापन करने वाले अपनी बात पर अड़े रहे. उन्होंने इस रिपोर्ट को जस का तस बनाए रखा, और खुदाई में मिले प्रमाणों का जिक्र या खंडन करने का भी प्रयास नहीं किया. इसके पहले इलाहबाद (अब प्रयाग) उच्च न्यायालय ने भी इस रिपोर्ट को मानने से इनकार कर दिया था.
प्रमाणों को झुठलाने के अन्य प्रयास भी किए गए. अगस्त 2003 में, छह महीने लंबी खुदाई के बाद भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने इलाहबाद उच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें बताया गया था कि जहां बाबरी ढांचा बनाया गया था, उस स्थान की खुदाई में मंदिर के पुख्ता प्रमाण मिले हैं. इन प्रमाणों में मूर्तियों के टुकड़े और व अन्य हिन्दू चिन्ह मौजूद थे. इस रिपोर्ट ने मंदिर विरोध पर आमादा ‘बुद्धिजीवियों’ को हिलाकर रख दिया. तब जेएनयू की पुरातत्व की एक प्रोफ़ेसर सुप्रिया वर्मा और शिव नादर यूनिवर्सिटी की जया मेनन आगे आईं और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट को ही झूठा बता दिया.
उन्होंने कहा कि खुदाई में मंदिर के जो प्रमाण मिले हैं वो वास्तव में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) ने लाकर रख दिए हैं, और भूमि के अंदर जो भवन के अवशेष मिले हैं, वो उसके पहले की मस्जिद के हैं. उनका कुतर्क था कि जब एएसआई ने खुदाई की उस समय केंद्र में अटल जी की सरकार थी, इसलिए एएसआई के रिपोर्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता. वर्मा इन दावों को लेकर वक्फ बोर्ड की तरफ से अदालत में पहुंच गईं.
लेकिन अदालत ने पैनी जिरह करके वर्मा के दावों की पोल खोल दी और फटकार लगाई. न्यायालय की तीन जजों की बेंच ने वर्मा की रिपोर्ट को आधारहीन बताकर खारिज कर दिया. जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने वर्मा और उनके सहयोगियों से अनेक सवाल पूछे, जिसमें उनके दावों के आधार, विषय विशेषज्ञता, पृष्ठभूमि आदि के बारे में पूछा. श्री अग्रवाल के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि कई तथाकथित विशेषज्ञों की विषय विशेषज्ञता यह थी कि उन्होंने अयोध्या पर कुछ पैम्पलेट्स छापे थे, या फुटकर लेख लिखे थे. जब अदालत ने वर्मा से उनके आरोपों के प्रमाण मांगे तो जवाब सुनकर हैरान रह गए और कहा कि “वो सबूतों की अनदेखी कर रही हैं और शुतुरमुर्ग के तरह प्रमाणों से मुंह छिपा रही हैं.” न्यायमूर्ति श्री अग्रवाल ने कहा कि जिन लोगों को ‘स्वतंत्र’ गवाह बताकर अदालत में पेश किया गया है, वे सब आपस में संबद्ध हैं. एक ने दूसरे के मार्गदर्शन में पीएचडी की है, तो दूसरे ने तीसरे के साथ मिलकर किताब लिखी है.
इन्हीं में से एक ‘विशेषज्ञ’ सुवीरा जायसवाल ने अदालत में स्वीकार किया कि उन्होंने अयोध्या के बारे में सारा ज्ञान अखबारों से हासिल किया है या दूसरों से सुनकर. यानि इन तथाकथित अयोध्या विशेषज्ञ ने अयोध्या में कदम भी नहीं रखा था. जब सुप्रिया वर्मा से 2002 में जन्मस्थान पर किए गए भूमि रडार सर्वेक्षण व उसमें मिले प्रमाणों के बारे में पूछा तो सुप्रिया वर्मा का जवाब था कि उन्होंने वो रिपोर्ट पढ़ी ही नहीं है.
सुप्रिया वर्मा और उनके साथियों से अदालत में पूछा गया कि वे किस आधार पर कह रही हैं कि “मंदिर के प्रमाणों को स्थल पर कहीं से लाकर रखा गया है और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने झूठ बोला है? क्या आपने उन्हें ऐसा करते देखा है, या कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह है?” तो ये सब बगलें झांकने लगे.
इन सब बातों को देख-सुनकर अदालत ने बहुत नाराजगी जताई और इनके दावों को खारिज करते हुए कहा कि इतने महत्वपूर्ण मामले को सुलझाने के स्थान पर उलझाने और वक्त बर्बाद करने की कोशिशें की जा रहीं हैं. यह घटना 2010 की है. रोचक बात यह है कि अदालत से फटकार खाकर इन लोगों ने क्या किया? अदालत में झूठे साबित हो जाने के बाद से ये तथाकथित अयोध्या विशेषज्ञ देश में सेमीनार करते, वामपंथी मीडिया में लेख लिखते, साक्षात्कार देते घूम रहे हैं कि “वहां कोई मंदिर था ही नहीं, और मस्जिद के नीचे भी मस्जिद ही मिली है…”
प्रशांत बाजपई