13 Mar 2025, Thu

विश्व पर्यावरण दिवसः जरुरी है पर्यावरण से समन्वय बिठाना

-चद्रंशेखर तिवारी

प्रकृति में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग मानव अपने हितों के लिये आदिकाल से करता आया है। युग-युगों से वह अनाज पैदा करने से लेकर वन व खनिजों का दोहन करते आ रहा है। पर्यावरण और उसके तमाम प्रभावों को लेकर वह चिन्तन व मनन भी करता आया है। अपने विवेक का प्रयोग करते हुए वह इन प्रभावों को एक सीमा तक दूर करने का यत्न भी करता रहा है। देखा जाय तो हमारे चारों ओर का वातावरण जिसे हम दूसरे शब्दों में पर्यावरण भी कहते हैं मानव जगत पर सामूहिक प्रभाव पड़ता है। विभिन्न इलाकों का पर्यावरण अलग-अलग होने के कारण स्थानीय क्षेत्र विशेष की भौमिकीय बनावट, जलवायु, प्राकृतिक संसाधन इत्यादि पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भिन्न-भिन्न प्रभाव डालते हैं। पर्यावरण के इस प्रभाव को मानव ने शुरुआत से ही महसूस किया है हालांकि वनस्पति, जानवरों तथा अन्य निर्जीव वस्तुओं पर भी पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है लेकिन मानव अपने बुद्वि-विवेक से पर्यावरण के प्रभाव को एक निश्चित सीमा तक दूर करने का प्रयास करने में सदा से सक्षम रहा है।

वर्तमान वैश्विक दौर में जिस तरह पर्यावरण पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं वह हम सबके लिये गहन चिन्ता की बात है। प्रश्न चाहे हिमालयी क्षेत्र की लुप्त होती जैव विविधता का हो अथवा नगरों- महानगरों में बढ़ती जनसंख्या अथवा अन्य तमाम तरह के प्रदूषणों का-इन सारे सवालों के समाधान के लिये हम प्रकृति के साथ समन्वय करके ही उसके समाधान की दिशा में जा सकते हैं। पर्यावरण के सिद्वान्तों के अनुरूप ही अपनी सुविधाओं एवं आकांक्षाओं में तालमेल बिठाने जैसे सर्वाेपरि उपायों पर अमल किये जाने की नितान्त जरुरत है। इसके लिये पग-पग पर पर्यावरण से सहयोग करना उतना ही महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए जितना कि उससे लाभ उठाने की इच्छा।
इस दृष्टि से हमारे प्राचीन भारतीय परंपरा का उदाहरण देना उचित होगा। यहां के लोकजीवन के विविध पक्षों में पर्यावरण की महत्ता को पग-पग पर स्वीकार किया गया हैै। मांगलिक कार्यों में देवी देवताओं के साथ ही यहां प्रकृति पूजा का भी विधान है। विभिन्न व्रत-पर्वों में धरती के प्रतीक कलश की स्थापना कर सूर्य, चन्द्र, नवग्रह, जल, अग्नि सहित दूर्वा, वृक्ष, बेल व पत्तियों को पूजने की परम्परा चली आ रही है। पूजा अर्चना में प्रयुक्त इनकी उपस्थ्तिि हमें इस बात का अहसास कराती है कि यही प्राकृतिक तत्व हमें जीवन प्रदान करते हैं। प्रकृति के प्रमुख तत्व जल जिसे वैदिक विज्ञान में सर्वाधिक कल्याणकारी माना गया है उसे विश्व भेषजी कहा गया है। जल हमारी सभी अशुद्धियों को धोकर निर्मल व पवित्र कर देता है तथा साथ ही शरीर व मन से हमें संस्कारवान होने की प्रेरणा देता है। भारत की प्राचीन जल संस्कृति में नदियों को बहुत महत्ता प्रदान की गयी है। यहां के अनेक नगर और तीर्थ नदियों के किनारे ही स्थित हैं। इन्हीें नगरों से भारतीय सभ्यता और संस्कृति नदी की धारा के साथ सतत आगे बढ़ती रही। नदियों का मूल स्वभाव दूसरों का हित करने का रहा है। कुल मिलाकर भारतीय परम्परा में नदियां सुसंस्कृत समाज के लिए सृजन व चेतना के तौर पर मुखरित होती दिखायी देती हैं। नदियों के जल कितना शुद्ध और पवित्र होता है इस बात का भान हमारे ऋषि-मुनियों को हजारों साल पूर्व ही हो गया था। आज भी स्नान के दौरान सप्त नदियों के पवित्र जल का ध्यान इस मंत्र द्वारा किया जाता है-गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती । नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेेेेस्मिन सन्निधिं कुरु। अर्थात गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा ,सिन्धु और कावेरी इन सभी नदियों का पवित्र जल मेरे स्नान के लिए रखे गये जल पात्र में समाहित हों जांय।
भारतीय परंपरा में धरती को हमेशा से ही माता कह कर पुकारा गया  है।‘माता भूमिः पुत्रो ऽहम् पृथिव्याः‘ यानी धरती मेरी मां और मैं उसका पुत्र हूँ। भारतीय साहित्य व लोक मान्यताओं में प्रकृति को सर्वोच्च सत्ता के रुप में आसीन करने और भूमि को देवत्व स्वरुप प्रदान करने की परिकल्पना रची गयी है। अगर गहराई से देखें तो मातृदेवो भव का मतलब जन्म देने वाली मां के अलावा उस धरती मां की सेवा और सुरक्षा से भी है जो हमें अपने अन्न जल से पोषित कर रही है। उत्तराखण्ड मंे आज भी लोग खेती का कार्य करने से पहिले और नयी फसल को देवताओं को अर्पित करते समय भूमि के रक्षक भूम्याल (भूमिपाल) का आह्वान करते हैं।यहां कई जगहों पर देववनों की स्थापना भी की गयी है। संरक्षण की दृष्टि से गांव समाज के सामूहिक जंगलों को पांच साल के लिये स्थानीय देवी देवताओं को अर्पित किया गया है। लोक नियमानुसार इस अवधि में इन देववनों से पेड़ की एक भी पत्ती नहीं तोड़ी जा सकती । पहाड़ के पारम्परिक जल स्रोत नौलों/धारों की दीवारों पर अंकित वनस्पतियांे व फूलों के चित्र भी कतिपय रुप से प्रकृति संरक्षण का संदेश देते हैं। हमारी भारतीय परम्परा में धरती माता के प्रति इससे बड़ी आस्था और क्या हो सकती है।
सही मायनों में ’समन्वयवाद’ के इस दृष्टिकोण से हमें पर्यावरण पर पूर्ण रूप से हावी होने के स्थान पर अपनी बढ़ती भोगवादी संस्कृति पर लगाम लगानी होगी। कुल मिलाकर धरती की पीडा़ को समझते हुए उसकी सुरक्षा के लिये अपने व्यक्तिगत जीवन शैली में बदलाव लाने जैसी तमाम कोशिशें हमारी सर्वाेच्च प्राथमिकताओं में दर्ज की जानी चाहिए। पर्यावरण के साथ इस तरह सतत समन्वय बिठा कर हम भूमण्डल की सुरक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

(लेखक-रिसर्च एसोसिएट ,दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड, देहरादून मोबा0: 9410919938)

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