2 Apr 2025, Wed

पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और चिंतन की जरूरत

प्रकृति के घटक होने के नाते पर्यावरण वंदन के माध्यम से हमने अपनी संस्कृति, परंपराओं के महत्व को समझा है, प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन, चिंतन और वंदन की ओर अग्रसर हो।
परमात्मा ने सम्पूर्ण जीव सृष्टि की निर्मिति अग्नि, जल, वायु तथा प्रकृति आदि से मिलाकर एक सुंदर पर्यावरण की रचना की है। विज्ञान के अति आच्छादन के कारण मनुष्य ने स्वयं को प्रकृति का निर्माता मान लिया,जबकि सत्य यह है कि इस चराचर ब्रम्हांड का आधार मनुष्य या विज्ञान नहीं है,अपितु परमात्मा है। महर्षि वेदव्यास जी ने वेदों में जीव-जगत और पर्यावरण के विविध विषयों को अनेक रूपों में वर्णित किया है। गौं मात जिस प्रकार अपने बच्चे को दूध पिलाकर परिपुष्ट करती है, उसी प्रकार प्रकृति भी जल,वायु,अग्नि द्वारा इस ब्रम्हांड की पुष्टि करती है।
पर्यावरण एक ऐसी ईश्वरीय संकल्पना है जो किसी जीवधारी को उसकी आवश्यकता के अनुसार आवरणीय वातावरण प्रदान कर उसके सुखद जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। अपने विकास यात्रा में मनुष्य ने प्रकृति में विकृति का प्रयास आरंभ किया। अधिकाधिक दोहन,उत्पादन और लालसा। के कारण प्रकृति पर्यावरणीय असंतुलन का कारण बनती चली गई। वनों की अंधाधुंध कटान,नदी क्षेत्रों में अतिक्रमण,पहाड़ों का अत्यधिक कटान,महानगरों का विस्तार एवं औद्योगिक प्रतिस्पर्धा एवं हानिकारक गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण की समस्या विकराल होती जा रही है।
भारत में लगभग दो लाख गांव वनों के आस-पास बसते हैं।देश की जीडीपी में वनों का 0.9 फीसद योगदान है।ईंधन व टिंबर के रूप में प्रतिवर्ष करोड़ों टन लकड़ी वनों से ही प्राप्त होती है। नीम,तुलसी, पीपल,महुआ,चंदन जैसे औषधीय पौधे भी वनों से ही प्राप्त होते हैं। पर्यावरणीय असंतुलन से कड़ाके की ठंड, बर्फबारी,अति वर्षा,सूखा, बाढ़,अत्यधिक गर्मी, ग्लेशियरों का पिघलना, भयंकर तूफान तथा ग्लोबल वार्मिंग जैसे संकटों का पैदा होना चिन्ता का कारण बनता जा रहा है,जो कि जीवधारी सृष्टि के लिए घातक हैं।
प्लास्टिक का बढ़ता प्रयोग के कारण अनेक वनस्पतियां तथा जीव प्रजातियां समाप्ति के कगार पर हैं। जो स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
आज भारत सहित समूचे विश्व में विकास के नाम पर ग्लोबल वार्मिंग तेजी से हो रही है, हिमालय से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, नदियों का जल सूख रहा है, गांव के प्राकृतिक जल स्त्रोत सूख चुके हैं,वृक्ष और पहाड़ों की कटाई,वायु प्रदूषण,अवैध खनन,अवैध निर्माण जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है। वनों के कटने से इकोसिस्टम में असंतुलन पैदा हो रहा है। सांस,फेफड़े और भिन्न भिन्न प्रकार के संक्रामक रोग निरंतर बढ़ रहे हैं। केन्द्र सरकार के विविध उपक्रम पर्यावरण और प्रकृति प्रदूषण के लिए अनेक नीतियों और दंड का प्रावधान कर रहे हैं। फिर भी अनेक रूपों में पर्यावरणीय प्रदूषण जारी है।
भारतीय सनातन संस्कृति पर्यावरण और प्रकृति की हमेशा से ही पूजक रही है। रामायण में श्रीराम एवं सीता के द्वारा गंगा,यमुना एवं वट वृक्ष की पूजा वर्णित है। बैसाखी,मकर संक्रांति, बसंत पंचमी,लोहड़ी, गोवर्धन पूजा आदि अनेकों पर्व उत्सव ऐसे हैं,जो सीधे प्रकृति से जुड़े हैं। छठ पर्व पर सूर्य पूजन, करवा चौथ पर चंद्रमा पूजन,अहोई अष्टमी पर तारों का पूजन, वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष पूजन, पीपल पूजन, तुलसी विवाह और पूजन, आंवला नवमी पूजन, गाय पूजन, नाग पंचमी आदि का प्रकृति और पर्यावरण के अनेकों रूपों में पूजन और वंदन की परंपरा है। किंतु यह भी सत्य है कि वर्तमान समय में मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण से दूर हुआ है। पूजन के नाम पर पर्यावरण को दूषित कर रहा है। प्रकृति को जीतकर जीने की चाह और उपभोग की लालसा मानव की बलवती होती जा रही है। आज मानव का प्रकृति के प्रति दायित्व भाव के स्थान पर अधिकार भाव प्रबल हुआ है।आज मनुष्य त्यागपूर्ण भोग के चिंतन को छोड़कर निहित स्वार्थो के लिए प्रकृति और पर्यावरण का दोहन कर रहा है। जिससे फलस्वरूप प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं।
देश की विभिन्न सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएं प्रकृति और पर्यावरण चिंतन को लेकर गंभीर प्रयास कर रही हैं। जल स्त्रोतों के संरक्षण के पौधरोपण के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। पर्यावरण की दृष्टि से भावी भारत आगे बढ़ रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने प्रकृति बंधन कार्यक्रम अपने उद्बोधन में कहा, यदि स्वार्थवश प्रकृति के दोहन का सिलसिला जारी रहा, तो यह संभव है कि हम ही न रहें या प्रकृति ही न रहे। इसलिए प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण-संवर्धन के गंभीर प्रयास होने चाहिए। भारतवर्ष की प्रकृति के साथ जीने की सनातन परंपरा जिसे हमारे पूर्वजों ने संभाला वह पुनर्जीवित होनी चाहिए, मजबूत होनी चाहिए।
प्रकृति के घटक होने के नाते पर्यावरण वंदन के माध्यम से हमने अपनी परंपराओं को महत्व को समझा है।
कमल किशोर डुकलान
कमल किशोर डुकलान
रुड़की (हरिद्वार)

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