“शिक्षक हमारे समाज का वह स्तंभ हैं, जो हमारे जीवन में एक असाधारण भूमिका निभाते हैं तथा हमें ज्ञान, शक्ति से जोड़ते हैं और हमें जीवन की कठिनाइयों का सामना करना सीखाते हैं। वे अपने छात्रों को देश के जिम्मेदार नागरिकों में ढालने में खुद को समर्पित करते हैं….”


शिक्षक छात्रों के जीवन के उस वास्तविक कुम्हार होते हैं जो न सिर्फ जीवन को आकार ही देते हैं, बल्कि उन्हें दुनिया में अंधकार होने के बाद भी प्रकाश की तरह जलते रहने के काबिल भी बनाते हैं। इसलिये देश में सभी शिक्षकों को शिक्षक दिवस पर सम्मान दिया जाता है। छात्र अपने शिक्षकों के इन महान कार्यों के रुप में कुछ भी नहीं लौटा सकते हालाँकि वे उन्हें सम्मान और धन्यावाद दे सकते हैं। छात्रों को शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हम अपने शिक्षकों का सम्मान करेंगे क्योंकि शिक्षक के बिना व्यक्ति निर्माण अधूरा है। शिक्षक दिवस गुरु की महत्ता बताने वाला प्रमुख दिवस है।
भारत में ‘शिक्षक दिवस’ प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर को मनाया जाता है। शिक्षक का समाज में आदरणीय व सम्माननीय स्थान होता है। हिन्दी साहित्य के अनेकों कवियों, गद्यकारों ने गुरु की महिमा में अनेकों रंग डाले हैं।
गुरु गोविंद दोउ खड़े
काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने
गोविंद दियो बताय।।
कबीरदास द्वारा लिखी उक्त पंक्तियाँ जीवन में गुरु की महत्ता का वर्णन करने के लिए काफ़ी हैं। भारत में प्राचीन समय से ही गुरु व शिष्य परंपरा चली आ रही है। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता है, क्योंकि माता-पिता ने ही हमें इस रंगीन ख़ूबसूरत दुनिया में लाया है। उनका ऋण उतारना असम्भव है लेकिन समाज के लिए हमें योग्य उपयोगी केवल शिक्षक ही बनाते हैं। यद्यपि परिवार को बच्चे के प्रारंभिक परिवेशीय विद्यालय का दर्जा दिया जाता है, लेकिन जीने का असली तरीका बच्चों को विद्यालयी वातावरण में शिक्षक ही सिखाता है। समाज का शिल्पकार कहां जाने वाले शिक्षक का महत्त्व इतने में ही समाप्त नहीं होता, क्योंकि वह न सिर्फ़ छात्रों को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है,बल्कि उसके सफल जीवन की नींव भी रखता है।
भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस और उनकी स्मृति के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला ‘शिक्षक दिवस’ एक पर्व की तरह है,जो शिक्षक समुदाय के मान-सम्मान बढ़ाता है। कहा जाता है कि किसी भी पेशे की तुलना अध्यापन से नहीं की जा सकती। शिक्षण का दुनिया का सबसे उत्तम कार्य है। पूरे भारत में 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रुप में इस दिन को अध्यापन पेशे को समर्पित किया गया है। इस दिन को शिक्षकों का सम्मान और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस हर साल मनाया जाता है। देश के विकास और समाज में शिक्षकों के योगदान के साथ ही अध्यापन कार्य की महानता को उल्लेखित करने के लिये और पूर्व राष्ट्रपति के जन्मदिवस को समर्पित किया गया है। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान शिक्षक थे जिन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष अध्यापन कार्य को दिया है। वे विद्यार्थियों के जीवन में शिक्षकों के योगदान और भूमिका के लिये प्रसिद्ध थे। इसलिये वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने शिक्षकों के बारे में सोचा और हर वर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रुप में मनाने का अनुरोध किया। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को हुआ था और 1909 में चेन्नई के प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्यापन कार्य में प्रवेश करने के द्वारा दर्शनशास्त्र शिक्षक के रुप में अपने करियर की शुरुआत की।उन्होंने देश में बनारस, चेन्नई, कोलकाता, मैसूर जैसे कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों तथा विदेशों में लंदन के ऑक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र पढ़ाया है। सन् 1962 से शिक्षक दिवस के रुप में 5 सितंबर को मनाने की शुरुआत हुई।
गुरु,शिक्षक,आचार्य, अध्यापक ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को व्याख्यातित करते हैं,जो सभी को ज्ञान देता है,सिखाता है। इन्हीं शिक्षकों को मान-सम्मान, आदर तथा धन्यवाद देने के लिए एक दिन निर्धारित है, जो की 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में जाना जाता है। सिर्फ़ धन को देकर ही शिक्षा हासिल नहीं होती, बल्कि अपने गुरु के प्रति आदर, सम्मान और विश्वास, ज्ञानार्जन में बहुत सहायक होता है। ‘शिक्षक दिवस’ कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है, लेकिन क्या हम इसके महत्त्व को समझते हैं। शिक्षक दिवस का मतलब साल में एक दिन अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या कोई भी उपहार नहीं है और यह शिक्षक दिवस मनाने का सही तरीका भी नहीं है। यदि शिक्षक दिवस का सही महत्त्व समझना है तो सर्वप्रथम हमेशा इस बात को ध्यान में रखें कि आप एक छात्र हैं और उम्र में अपने शिक्षक से काफ़ी छोटे है। और फिर हमारे संस्कार भी तो यही सिखाते है कि हमें अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए।
शिक्षक हमारे समाज का वह स्तंभ हैं। जो हमारे जीवन में एक असाधारण भूमिका निभाते हैं। तथा हमें ज्ञान, शक्ति से जोड़ते हैं और हमें जीवन की कठिनाइयों का सामना करना सीखाते हैं। वे अपने छात्रों को देश के जिम्मेदार नागरिकों में ढालने में खुद को समर्पित करते हैं।
महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा है,’जो शिक्षक छात्रों को अच्छी शिक्षा देते हैं, वे उन लोगों के मुकाबले ज्यादा सम्मान के हकदार होते हैं जो उनको जन्म देते हैं।
संत कबीर के शब्दों से भारतीय संस्कृति में गुरु के उच्च स्थान की झलक मिलती है। भारतीय बच्चे प्राचीन काल से ही आचार्य देवो भवः का बोध-वाक्य सुनकर ही बड़े होते हैं। माता-पिता के नाम के कुल की व्यवस्था तो सारे विश्व के मातृ या पितृ सत्तात्मक समाजों में चलती है, परन्तु गुरुकुल का विधान भारतीय संस्कृति की अनूठी विशेषता है। कच्चे घड़े की भांति स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को जिस रूप में ढालो, वे ढल जाते हैं। वे स्कूल में जो सीखते हैं या जैसा उन्हें सिखाया जाता है, वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है, जैसा वह अपने आस-पास होता देखते हैं। सफल जीवन के लिए शिक्षा बहुत उपयोगी है, जो गुरु द्वारा प्रदान की जाती है। गुरु का संबंध केवल शिक्षा से ही नहीं होता, बल्कि वह तो हर मोड़ पर अपने छात्र का हाथ थामने के लिए तैयार रहता है। उसे सही सुझाव देता है और जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
शिक्षक बगीचे के उस माली के समान है,जो भिन्न-भिन्न रूप-रंग के फूलों से सजाता है। शिक्षक छात्रों को कठिनाइयों भी मुस्कुराकर चलने को प्रोत्साहित करता है। उन्हें जीने की वजह समझाता है। शिक्षक के लिए सभी छात्र समान होते हैं और वह सभी का कल्याण चाहता है। शिक्षक ही वह धुरी है,जो छात्रों को सही-गलत, अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए छात्रों की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। वह प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा उसके सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरु ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण कर सकता है।ऐसी परंपरा हमारी संस्कृति में है, इसलिए कहा गया है कि-
“गुरु ब्रह्मा,गुरुर्विष्णु
गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुःसाक्षात परब्रह्म
तस्मैःश्री गुरुवेः नमः।”
कई ऋषि-मुनियों ने अपने गुरुओं से तपस्या की शिक्षा को पाकर जीवन को सार्थक बनाया। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना मानस गुरु मानकर उनकी प्रतिमा को अपने सक्षम रख धनुर्विद्या सीखी। यह उदाहरण प्रत्येक शिष्य के लिए प्रेरणादायक है।
गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है,जिसके कई स्वर्णिम उदाहरण इतिहास पन्नों में दर्ज हैं। वर्तमान समय में अनेकों ऐसे शिक्षक हैं, जिन्होंने हमेशा समाज के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। प्राय: सख्त और अक्खड़ स्वभाव वाले यह शिक्षक अंदर से बेहद कोमल और उदार होते हैं। हो सकता है कि किसी छात्र के जीवन में कभी ना कभी एक ऐसे गुरु या शिक्षक का आगमन हुआ हो,जिसने उसके जीवन की दिशा बदल दी या फिर जीवन जीने का सही ढंग सिखाया हो। वर्तमान समय में शिक्षकों को अपना पुराना समयमान स्थापित करने की आवश्यकता है।
कमल किशोर डुकलान
ब्रह्मपुर रुड़की (हरिद्वार)