जोशीमठ (चमोली)। उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत विश्व धरोहर रम्माण का मंचन देखने हजारों की संख्या में लोग जोशीमठ के सलूड गांव में पहुंचे। जहां पर भुमियाल देवता के प्रांगण में रम्माण का आयोजन हुआ। विश्व सांस्कृतिक धरोहर जोशीमठ के सलूड डुंग्रा की रम्माण ने देश विदेश से आये दर्शकों को घंटों तक बांधे रखा। पहाडी ढोल दमोउ की बदलती ताल में पात्रों की नृत्य नाटिका शैली में होने वाले परिवर्तन को दर्शक मंत्र मुग्ध होकर देखते रहे। राम, सीता, लक्ष्मण, कृष्ण, हनुमान, गोपियां, माल, गोरखा आदि की नृत्य नाटिकाओं एवं बाघ, गणेश , नृसिंह के मुखौटा नृत्य को दर्शक को अपनी पुरातन नृत्य शैली एवं परंपराओं से रूबरू कराया। गांव के परंपरागत ढोल दमोउ व भ्यूवांकरों की सुर ताल में राम, सीता, लक्ष्मण, गोपियों एवं माल आदि मूक नृत्य नाटिकाओं की प्रस्तुतियां हुई।
रम्माण की उत्पत्ति आठवीं शताब्दी की मानी जाती है। मान्यता है कि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए रामायण, कृष्णलीला एवं महाभारत को नृत्य नाटिकाओं के माध्यम से प्रचारित प्रसारित किया। जिसे कालान्तर में रम्माण नाम स्थानीय लोगों ने दिया।
बता दें कि सबसे पहले रम्माण का प्रस्तुतीकरण जोशीमठ के नृसिंह मंदिर प्रांगण में हुआ था। सलूड की रम्माण में गोरखों का गढवाल में आक्रमण, मोर मोरेन, भारत तिब्बत के व्यापार, पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक कुर जोगी आदि अन्य पात्रों का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है।
जनपद चमोली के पैनखंडा जोशीमठ में प्रतिवर्ष अप्रैल (बैसाख) में रम्माण देवरे का आयोजन सलूड़-डुंग्रा, सेलंग और डुंग्री गांव में किया जाता है। शंकराचार्य युग से चली आ रही सलूड़ गांव की रम्माण सदैव ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रही है
वास्तव में रम्माण कौथिग मूक नृत्य नाटिकायें एवं मुखौटा नृत्य है ,मुखौटा नृत्य में कलाकार विविध मुखौटा पहनकर प्राचीन नृत्यकला का प्रर्दशन करते हैं। पूरी रम्माण मूक नृत्य नाटिका में में 18 मुखौटों, 18 तालों, एक दर्जन जोड़ी ढोल-दमाऊ व आठ भंकोरों के अलावा झांझर व मजीरों के जरिए भावों की अभिव्यक्ति दी जाती है। रम्माण उत्सव में जिस नृत्य शैली का उपयोग किया जाता है, वह मुखौटा नृत्य शैली है। इस में नृत्यक अपने मुख में मुखौटा पहनता है, फिर नृत्यकला का प्रदर्शन करते है। इसमें कोई भी संवाद पात्रों के बीच नहीं होता। पूरी रम्माण में 18 मुखौटों, 18 तालों, एक दर्जन जोड़ी ढोल-दमाऊ व आठ भंकोरों के अलावा झांझर व मजीरों के जरिए भावों की अभिव्यक्ति दी जाती है।
रम्माण में कुछ विशेष नृत्य भी आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख रूप से बण्या बण्याण -यह नृत्य तिब्बत के व्यापारियों पर आधारित, जिस में उन पर हुए चोरी व लूटपाट की घटना का विवरण नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है। तो वहीं म्योर-मुरैण नृत्य के माध्यम से पहाड़ो पर होने वाली दैनिक परेशानीयों जैसे पहाड़ों में लकड़ी और घास काटने के लिए जाते समय जंगली जानवरों द्वारा किए जाने वाले आक्रमण का चित्रण होता है। इसके अतिरिक्त माल-मल्ल युद्ध नृत्य के द्वारा स्थानीय लोगो व गोरखाओं के बीच हुए युद्ध का चित्रण किया जाता है। अंत में कुरू जोगी का पात्र भी सबके आकृषण का केन्द्र रहता है। बता दें कि 2 अक्टूबर 2009 को यूनेस्को ने पैनखंडा जोशीमठ की रम्माण को विश्व धरोहर का दर्जा दिया।