15 Mar 2025, Sat

मानव एवं प्रकृति के पारम्परिक सम्बन्धों का ऋतु पर्व फूलदेई


कमल किशोर डुकलान ‘सरल’  (रुड़की हरिद्वार, उत्तराखंड)


“कौन हो तुम वसंत के दूत,‍

           विरस पतझड़ में अति सुकुमार।

  घन तिमिर में चपल की रेख, 

            तपन में शीतल मंद बयार।”

हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ में लिखी गई उक्त पंक्तियाँ उत्तराखंड के लोकपर्व ‘फूलदेई’ या ‘फूल संक्रान्ति’ की सटीक व्याख्या करती हैं। देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न संस्कृतियों को समेटे एक विशाल सभ्यता का नाम है। कई तरह की जाति और जनजातियों के मिश्रण से बना यह राज्य अपने नैसर्गिक रूप में ही नहीं बल्कि अपने त्यौहारों के माध्यम से भी अपनी सुन्दर सांस्कृतिक धरोहरों को पर्वों के रुप में आज भी बयाँ करता है। उत्तराखंड में हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र मास की संक्रान्ति को मनाया जाने वाला फूलदेई पर्व एक विशेष सभ्यता से जुड़ा पर्व है। खेतों में फसल को बोने से लेकर काटने तक,स्थानीय ग्राम्य देवताओं की पूजा एवं विवाहिता महिलाओं के मायके से आने और जाने पर अलग-अलग त्यौहारों को मनाने का पृथक पर्वतीय अंचल उत्तराखंड में खूब प्रचलन है।

मानव शरीर पंचतत्वों से बना है और पंचतत्वों में प्रकृति का एक विशेष महत्व है। प्रकृति के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं। ये प्रकृति ही है, जो हमें खुद से जोड़े रखती है। उत्तराखंड के लोक जीवन में प्रकृति का विशेष महत्व है,यहां की पावन भूमि को अपनी खूबसूरत वादियों, झीलों,ऊंचे ऊँचे पहाड़, नदियों व खूबसूरती से भरे हिमालय दर्शन के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न तीज एवं त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है। प्रकृति द्वारा बिना कहे दिए जाने वाले अनगिनत उपहारों के बदले प्रकृति को धन्यवाद देने हेतु यहां अनेक त्यौहार मनाए जाते है। उन्हीं में से एक त्यौहार चैत्र महीने की संक्रांति से मनाया जाने वाला पर्वतीय अंचल का लोकपर्व फूलदेई या फूल संक्रांति पर्व है। चैत्र मास में खास तौर से फूलदेई लोकपर्व का बच्चों को लंबा इंतजार रहता है। फूल संक्रांति से बच्चे सुबह-सुबह घर-घर जाकर घरों और मंदिरों की देहरी पर रंगबिरंगे फूल,चावल आदि बिखेरते हैं। इसी दिन से लोग होली के फाग की खुमारी में मस्त होल्यार ऋतुरैण और चैती गायन में डूबने लगते हैं।

लोक जीवन में चैत्र मास की फूल संक्रांति का सबसे बड़ा महत्व ये भी देखने को मिलता है कि हिन्दू मान्यता में नये वर्ष को ठीक पतझड़ की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। और महीने भर चलने वाला यह लोकपर्व वैशाखी के दिन समाप्त हो जाता है। यह समय नवीन ऊर्जा के संचार का होता है। खेतों में हरे गेहूँ और पीली सरसों नव वर्ष का स्वागत करते हैं। सर्दियों के मौसम की विदाई के उपरांत पहाड़ की ऊँची चोटियों पर पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है। वनों में वृक्षों पर नई कोंपल आनी शुरू हो जाती हैं और हर फलदार वृक्ष फूलों से भर जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड की पहचान विशेष रूप से खेतों की मुंडेर पर उगने वाले पीले फ्योंली के फूलों और जंगल में खिलने वाले लाल बुराँस के फूलों से की जा सकती है। ये दोनों फूल इतने खूबसूरत होते हैं कि कई लोक गीतों में प्रेमी और प्रेमिका के सौंदर्य की तुलना फ्योली और बुरांस के फूलों से की जाती है। चारों ओर बसंत ऋतु पर रंग बिरंगे सफेद फूलों से बसंत के इस मौसम को बासंती बना देते है।

फ्योंली के फूल के बिना उत्तराखंड राज्य का सौंदर्य अधूरा है और साथ ही फूल संक्रान्ति का यह त्यौहार भी। बंसत ऋतु के आगमन के साथ पहाड़ के कोनों-कोनों में फ्योंली का पीला फूल खिलने लगता है। फ्योंली पहाड़ में प्रेम और त्याग की सबसे सुन्दर प्रतीक मानी जाती है। उत्तराखंड की लोक संस्कृति के प्राण सुप्रसिद्ध लोकगायक, गढरत्न श्रद्धेय श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी बसंत ऋतु के आगमन पर गाया गया गीत “म्यरा डांडी कांठ्युं का मुलुक जैलु, बसंत ऋतु माँ जैई।” की उक्त पंक्तियां फूलदेई,फूल संक्रांति पर्व पर सटीक बैठती हैं।

प्रकृति के सम्मान का पर्व फूलदेई ऋतुराज बसंत के आगमन पर प्रकृति उत्सव के तौर पर उत्तराखंड में मनाया जाता है। उत्तराखंड के लोक जीवन में,यहां की संस्कृति में फूलदेई,फूल संक्रांति की खास जगह है।आज लोगों को पर्यावरण बचाने के लिए जन जागरण के तौर पर अनेकों अभियान चलाने पड़ रहे हैं,लेकिन उत्तराखंड में ये मुहिम सदियों से चली आ रही है। बच्चों को फूलदेई लोकपर्व के माध्यम से पहाड़ से,पेड़-पौधों,फूल-पत्तियों और नदियों से प्रेम करने की सीख दी जाती है। फूलदेई की परंपरा लोकगीतों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती रही है। सनातन धर्म में हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र महीने को नये साल के रुप में मनाने की परम्परा है। नए साल और बसंतोत्सव का स्वागत उत्तराखंड में प्रतिवर्ष फूलदेई के त्योहार के रुप में मनाया जाता है।

दुर्भाग्य से पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड वासियों की शिक्षा,स्वास्थ्य,सड़क एवं रोजगार के लिए पहाड़ों से पलायन करना मजबूरी बन चुका है,जिसका नतीजा यह है कि मूलभूत सुविधाओं के अभाव में अब पहाड़ धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं। यहाँ के घर-गाँवो में सदियों से मनाए जाने वाले खुशियों और नव वर्ष के इस फुलारी/फूलदेई पर्व को भी पलायन ने अपनी चपेट में ले लिया है। पहाड़ के कई गाँवों में अब इस त्यौहार को मनाने के लिए बच्चे ही नहीं हैं,क्योंकि इन गाँवों में केवल कुछ बुजुर्ग ही बाकी रह गए हैं,जो बस खंडहरों के प्रहरी की तरह अपने घरों की रखवाली करते नजर आते हैं।उम्मीद है कि यह सभ्यता सोशल मीडिया तक सिमटने से पहले एक बार फिर जरूर गुलज़ार होगी। ऋतुराज बसंत आगमन एवं नववर्ष के स्वागत का प्रतीक लोकपर्व फूलदेई हमारे नये उत्साह और उम्मीद का भी प्रतीक है,शायद पहाड़ अपने बसंत के दूतों की चहचहाहट से फिर जरूर महकेगा।

 

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