विधानसभा चुनाव को लेकर उत्तराखंड में सियासी रण की बिसात बिछने लगी है। आम आदमी पार्टी की ‘दस्तक’ और उक्रांद की ‘उछल कूद’ के बीच अंततःमुकाबला सीधे भाजपा और कांग्रेस के बीच होने जा रहा है। जहां तक मुददों का सवाल है, तो पांच साल प्रचंड जनादेश की सरकार चलाने के बाद भाजपा खाली हाथ है। कांग्रेस के पास भी गिनाने के लिए कुछ नहीं है। मुद्दों पर आक्रामक अंदाज में राजनीति करने वाली आम आम आदमी पार्टी भी नहीं है। मुद्दों की नब्ज पकड़ने के बजाय वह जनता की कमजोर नब्ज मुफ्तखोरी दबाकर अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में है।
कांग्रेस से आप तक और भाजपा से उक्रांद तक सियासत हर जगह चेहरों की है। भाजपा ने हाल ही में प्रचंड बहुमत की सरकार में चार माह में दो बार नेतृत्व परिवर्तन कर सरकार की कमान तीसरी पीढ़ी के युवा को सौंप कर बड़ा सियासी दांव चला तो जवाब में कांग्रेस ने सामूहिक नेतृत्व के फार्मूले पर हरीश रावत और प्रीतम सिंह की जुगल बंदी में ‘चतुरंगिणी’ सेना उतारी है।
दिवाकर और काशी सिंह ऐरी के बीच झूलने वाली उक्रांद कहीं दूर-दूर तक मुकाबले में नहीं है । वहीं तमाम गुणा गणित के बाद कर्नल अजय कोठियाल के सहारे, मुददों से बेखबर आम आदमी पार्टी सिर्फ प्रचार तंत्र के बूते उत्तराखंड की सत्ता का सपना देख रही है। जो बिसात बिछ रही है, उसमें साफ है कि रण मुददों का नहीं बल्कि सिर्फ समीकरणों का है। जिस तरह आलू और प्याज की सब्जियों के सीमित विकल्प हैं। ठीक वही स्थिति उत्तराखंड की सियासत की भी है।
उत्तराखंड की सियासत का एक कड़वा सच यह भी है कि हम लाख क्षेत्रीय विकल्प की बात करें, लेकिन यहां की सियासत में वर्चस्व सिर्फ भाजपा और कांग्रेस का ही है। अभी तक तो बारी-बारी से दोनों ही दल सत्ता में एक दूसरे का विकल्प बनते आए हैं।
आम धारणा है कि दोनों ही दल जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। आमजन में दोनों ही दलों की रीति-नीति के प्रति नाराजगी भी है। नाराजगी क्यों न हो ? बारी-बारी से सत्ता में आने के बावजूद दोनों ही दल दो दशक में राजनैतिक तौर पर इस राज्य की पहचान तक स्थापित नहीं कर पाए।
राज्य की अवधारणा और उसके भविष्य से जुड़ा हर अहम मसला दो दशक बाद भी अधर में लटका है। इसके बावजूद सियासी सच्चाई यह है कि सत्तर फीसदी से अधिक वोट बैंक इन दोनों ही दलों के कब्जे में है ।
सियासत की इस गुफ्तगू में भाजपा और कांग्रेस से पहले बात उन दलों की जिनका उत्तराखंड की सियासत में जिनका अपना तो कोई समीकरण नहीं बनता, मगर सियासी रण के प्रमुख योद्धाओं के समीकरण जरूर बना बिगाड़ देते हैं । पहले बात उक्रांद की..
नेताओं का मारा उक्रांद बेचाराः
उत्तराखंड की सियासत में भाजपा और कांग्रेस का स्वाभाविक विकल्प चार दशक से भी अधिक पुराने एक मात्र क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल को होना चाहिए था। विडंबना यह है कि राज्य की मूल अवधारणा को समझने वाले उक्रांद का नेतृत्व राजनैतिक विकल्प बनने का भरोसा नहीं जीत पाया।
भाजपा जैसे बड़े राष्ट्रीय दल ने जहां राज्य में नेतृत्व तीसरी पीढ़ी के हाथों में सौंपना शुरू कर दिया है, वहीं उक्रांद दशकों बादभी अभी तक काशी सिंह ऐरी और दिवाकर भट्ट से आगे नहीं बढ़ पाया है । उत्तराखंड की सियासत में उक्रांद ऐसी अंधेरी रात बन चुका है जिसकी कोई सुबह नजर नहीं आती।
ऐसा नहीं है कि उक्रांद को मौका नहीं मिला। मौका मिला, राज्य गठन के बाद साल 2002 में पहले आम चुनाव में उक्रांद को चार सीटें भी मिली। उक्रांद का नेतृत्व ईमानदार और सियासी रणनीति मजबूत होती तो यह चार सीटें आज चालीस तक पहुंच सकती थीं।मगर कमजोर और स्वार्थी नेतृत्व के गलत निर्णयों के कारण दल की आम छवि बिगड़ती चली गई।
साल 2007 में हुए आम चुनाव में दल ने तीन सीटें हासिल कर भाजपा के साथ सत्ता में भागेदारी की। सत्ता में भागेदारी पर सवाल उठा तो दल में विभाजन हो गया। किसी भी क्षेत्रीय दल के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि सत्ता के लालच में उसका शीर्ष नेतृत्व उसी दल से चुनाव मैदान में उतर जाए, जिसकी नीति रीतियों का दल विरोध करता रहा हो।
उक्रांद खुद से छल करने वाले ऐसे नेताओं से खुद भले ही न्याय नही कर पाया हो लेकिन जनता ने पूरा न्याय किया। दल से अलग हुए शीर्ष नेता दिवाकर भट्ट कैबिनेट मंत्री रहते हुए 2012 में भाजपा से चुनाव लड़े और हार गए।
जहां तक दल का सवाल है तो विभाजित हो चुका दल उक्रांद (पी) के नाम से चुनाव में उतरा और 2012 में एक सिमट पर सिमट कर रह गया। उक्रांद (पी) से अकेले जीतकर आए प्रीतम पंवार भी कांग्रेस सरकार में शामिल हो गए और पार्टी से खुद को अलग कर लिया।
इसके बाद साल 2017 में तो उक्रांद पूरी तरहसे साफ हो गई। आज राजनैतिक तौर पर उक्रांद हाशिए पर पहुंच चुका है, दल की कमान थामे नेता पुराने ढर्रे पर हैं। न वे पिछली गलतियों से सबक लेने को तैयार हैं और न नई पीढ़ी को आगे बढ़ाना की उनकी मंशा है।
आज जब भाजपा और कांग्रेस नेतृत्व की कमान युवा हाथों को सौंप रही है, वही उक्रांद ने एक बार फिर से दिवाकर के बाद काशी सिंह ऐरी को अध्यक्ष बना दिया जाता है।