डॉ. सुशील उपाध्याय

केंद्र सरकार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को खत्म किए जाने के बाद भले ही दुनियाभर में ज्यादा शोर नहीं मचा, लेकिन बीबीसी के विभिन्न प्रसारणों, न्यूज पोर्टल को देखकर ऐसा लग रहा है कि इस वक्त कश्मीर ही दुनिया में सबसे बड़ा मुद्दा है। बीबीसी ने न केवल भारत विरोधी रुख अख्तियार किए रखा, बल्कि उसने भारत विरोधी तत्वों के विचारों को बेहद प्रमुखता से प्रसारित-प्रकाशित किया। अब बीबीसी ने कश्मीर से जुड़ी खबरों के लिए अपने रेडियो प्रसारणों की अवधि बढ़ाने का एलान किया है।

बीबीसी घोषित तौर पर दावा करता है कि भारत में उसकी खबरों की विश्वसनीयता उच्च स्तर की है। हम देखें तो यह भी उतना ही सच है कि बीबीसी भारत में उन तत्वों को खासी प्राथमिकता देता है जो किसी न किसी स्तर पर भारत विरोधी गतिविधियों का केंद्र बने होते हैं। ताजा उदाहरण कश्मीर से जुड़ा हुआ है। कश्मीर मुद्दे पर बीबीसी के भारत सरकार विरोधी रुख का अंदाज उसकी खबरों के कंटेंट और न्यूज स्टोरी के शीर्षकों को देखकर लगाया जा सकता है। 5 अगस्त को भारत सरकार के फैसले के बाद के दो सप्ताह में बीबीसी हिंदी ने इस मुद्दे पर 60 से अधिक स्पेशल स्टोरी प्रकाशित की है। खबरों और स्टोरीज का कंटेंट इस बात पर फोकस करता है कि अनुच्छेद 370 के प्रावधान खत्म किए जाने से भारत का संविधान संकट में पड़ गया है और कश्मीर दुनिया का सबसे ‘तनावपूर्ण और संघर्ष वाला’ क्षेत्र बन गया है। बीबीसी की कुछ स्टोरी के शीर्षक देखने से पता चलता है कि बीबीसी की खबरों का रुख लगभग पाकिस्तानी अखबार डॉन जैसा ही है। जैसे- कश्मीर में तनाव, लोगों में अफरातफरी; जम्मू-कश्मीर में क्यों मची है खलबली; कश्मीर पर सरकार के फैसले के विरोध में उतरे लोग; ‘कश्मीर पर चीन की प्रतिक्रिया को भारत नजरअंदाज न करे’; चलो कश्मीर, जमीन खरीदेंगे, बंगला बनाएंगे, लड़कियों से शादी करेंगे…..और क्या’; कश्मीर पाकिस्तान को देने को राजी थे सरकार पटेल?; कश्मीर के हालात पर क्या है इस छात्रा का दर्द; सरकार के फैसले से कश्मीर के युवाओं में गुस्सा; कश्मीर से बाहर निकलना क्यों मुश्किल हो रहा है; क्या अब कश्मीर में बढ़ सकता है तनाव; कश्मीर की बेहतरी के सरकारी दावों में कितना है दम; अनुच्छेद 370 हटाए जाने से क्यों दुखी हैं ये कश्मीरी पंडित; ‘पूरा कश्मीर ही जेल में तब्दील हो गया है, एक खुली जेल….; ‘पथराव और पैलेट से कई घायल, अस्पताल में भर्ती; कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार ने जताई चिंता; अनुच्छेद 370: कश्मीर में हिंसा और पथराव; कश्मीर: कर्फ्यू, घुटन और गुस्से के बीच जिंदगी; कश्मीर: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक; विस्थापित कश्मीरी पंडितों की घर वापसी मुश्किल आदि।

इनमें से ‘चलो कश्मीर, जमीन खरीदेंगे, बंगला बनाएंगे, लड़कियों से शादी करेंगे…..और क्या’ जैसे शीर्षक अंतर्निहित भड़काऊ मैसेज से लैस हैं। इसी तरह सरकार पटेल के बहाने यह साबित करने की कोशिश भी की गई है कि वे कश्मीर को पाकिस्तान को दिए जाने के हक में थे। दो सप्ताह की कवरेज के दौरान बीबीसी ने केवल एक बार पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। तो क्या यह मान लिया जाए कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और गिलगित-बाल्तिस्तान में हालात खुशगवार हैं और जो भी कुछ गड़बड़ियां हो रही हैं वे केवल कश्मीर तक ही सीमित हैं? बीबीसी की ज्यादातर खबरों और स्टोरीज का लहजा न केवल भारत विरोधी है, वरन अलगाववादियों के पक्ष में जाता दिखता है। बीबीसी के रिपोर्टरों ने ऐसे कश्मीरी पंडितों को खासतौर से ढूंढा है, जिन्होंने अनुच्छेद  370  हटाए जाने का विरोध किया है। कश्मीर में बीबीसी की रुचि का अंदाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि विगत एक महीने में बीबीसी द्वारा प्रकाशित-प्रसारित की गई खबरों में करीब 5580 बार कश्मीर का जिक्र आया है। इसमें वे खबरें शामिल नहीं हैं, जिन्हें आर्काइव कर लिया गया है। कश्मीर में बीबीसी की अति-सक्रियता का अनुमान जर्मन रेडियो डायचे-वैले की समाचार सामग्री की तुलना से भी लगाया जा सकता है। 5 अगस्त के बाद के दो सप्ताह में डायचे-वैले ने कश्मीर पर 23 स्पेशल स्टोरी की और विगत समय में करीब 1500 बार कश्मीर का उल्लेख किया। कश्मीर मुद्दे पर बीबीसी की अति सक्रियता का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि बीबीसी रेडियो ने कश्मीर को ध्यान में रखकर अपने उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी प्रसारणों की अवधि बढ़ाने का एलान किया है।

बीबीसी वर्ल्र्ड सर्विस के निदेशक जेमी एंगस का कहना है कि कश्मीर में डिजिटल सेवा और फोन लाइनों के बंद होने के चलते शॉर्टवेव रेडियो सेवाओं में समाचार बढ़ाए गए हैं। उनका दावा है कि इस साल संघर्ष के क्षेत्र से बीबीसी की रिपोर्टिंग काफी लोकप्रिय रही है और श्रोताओं ने उसे काफी महत्व दिया है। वे यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि कश्मीर में  ‘तनाव और संघर्ष’  की स्थिति है। उनके इस बयान से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में भी बीबीसी का कश्मीर मुद्दे पर क्या रुख होगा।

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।)