कोरोना वायरस का संक्रमण ने जिस तरह से दुनिया के समक्ष संकट पैदा किया है उससे राजनेताओं की लोकप्रियता, वादें, और उनकी बातें एवं क्षमताएं एक प्रकार से इम्तिहान बन गया।
कोरोना वायरस के संक्रमण ने दुनिया के सामने जिस तरह का संकट प्रस्तुत किया है, उसमें रहीमदास जी को याद किया जाना बहुत जरूरी है। वह कहते हैं-
रहिमन विपदा हू भली,
जो थोरे दिन होय!
हित अनहित या जगत में,
जान परत सब कोय!
यानी अगर विपदा थोड़े दिन के लिए आ जाए,तो वह बेहतर होती है, इससे इस बात का पता चलता है कि इस दुनिया में कौन हमारा सच्चा हितैषी है और कौन नहीं। हालांकि,यहां प्रसंग रहीम का नहीं, बल्कि अभी हाल ही में यू-गॉव कैंब्रिज ग्लोबलिज्म प्रोजेक्ट के एक सर्वे का है। सर्वे के नतीजे लगभग वही कह रहे हैं,जो सदियों पहले रहीमदास जी ने कहे थे।
दुनिया के 25 देशों में कराये गये सर्वे ये कहते हैं कि लोकलुभावन वादे और बड़ी-बड़ी बातें करने वाले राजनेताओं की लोकप्रियता कोरोना वायरस संकट के दौरान कैसी है?यह सर्वेक्षण एक ऐसे दौर में हुआ है,जब पिछले एक दशक से हमें यह लगने लगा है कि दुनिया भर में लोकलुभावन वादे करने वाले नेताओं का दौर लौट आया है। बेशक यह दौर कोरोना वायरस संकट से पहले ही आ गया था, लेकिन यह संकट उनके वादों,उनकी बातों और उनकी क्षमताओं की एक प्रकार से इम्तिहान बन गया।
हालांकि, यह पूरा सर्वेक्षण मूल रूप से यूरोप पर आधारित है, लेकिन पूरी दुनिया की राजनीति के लिए इसके सबक बहुत महत्वपूर्ण हैं। खासकर, उन लोकतांत्रिक देशों में,जहां खुली स्पर्धा से नेतृत्व का रास्ता तैयार होता है। एक ओर जहा समाज में खुले रुप से आगे बढ़ने की संभावनाएं अनंत रहती हैं,
तो वहीं दूसरी ओर नेताओं का खुलापन राजनीति को लोकलुभावन होने की जमीन भी देता है।
सर्वेक्षण यह बताता है कि कोरोना संक्रमण काल में ऐसे नेताओं की लोकप्रियता काफी तेजी से घटी है। जब लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि हमारे नेता हमें इस संकट से निकाल लेंगे, जबकि ऐसे नेता उम्मीद पर खरे नहीं उतरे। सर्वेक्षण में यह पाया गया कि यूरोप के जिन भी देशों में इस तरह के दलों और नेताओं की सरकारें हैं,उन सभी में ऐसे नेताओं की लोकप्रियता तेजी से घटी है। यह बात अलग है कि किसी में कम तेजी से घटी है और किसी में बहुत तेजी से। विदेशों में राजनेताओं की लोकप्रियता में गिरावट आयी है।
उन नेताओं की लोकप्रियता भी काफी गिरी है,जो जब सत्ता में नहीं थे, तो वे लोगों को यह बताते थे कि देश दो हिस्सों में बंटा हुआ है, एक तरफ, आम लोग हैं और दूसरी तरफ, भ्रष्ट प्रभु-वर्ग है, जो आम लोगों का विकास नहीं होने देता। और लोगों ने पाया कि बाद में जब ऐसे नेता खुद सत्ता में आए, तो उनकी स्थिति में जरा भी फर्क नहीं ला सके।
तो क्या इसके बाद भी हम यह मान लें कि लोग अब पूरी तरह समझ गए हैं कि भविष्य में वे किसी के भी झांसे में नहीं आएंगे? शायद इस सवाल का जवाब इतना सीधा नहीं है। सच सामने आ गया है, लेकिन बहुत खुश होने की जरूरत भी नहीं है। राजनीतिक समाजशास्त्री मथिजिस रुदजिन का कहना है कि कोरोना वायरस ने इनकी सच्चाई जरूर दिखा दी है, लेकिन कोरोना संक्रमण ने जो आर्थिक संकट भी पैदा किया है, वो भविष्य के लिए लोकलुभावन राजनीति की एक नई जमीन तैयार कर सकता है।