पिछले दिनों फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मुम्बई में संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत एक पहेली सी बनकर रह गई है। इसे लेकर पिछले कहीं दिनों से देश-विदेश में चर्चा छिड़ी हुई है। ….. हम जबअपराधियों की अपराधिक बेखौफ प्रवृत्ति पर विचरण करते हैं, तो पुलिस की अक्षमता,.अस्वीकार्यता से जनता में यही धारणा बनती है कि शासन-प्रशासन अपराधियों के आगे बेबस है…
सुशांत सिंह राजपूत की संदेहास्पद मौत पर तरह- तरह के कयास लगा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि मुंबई पुलिस ने आपराधिक अनुसंधान शुरू करने से पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की है। यह कहने से पहले मुम्बई पुलिस को पोस्टमार्टम की रिपोर्ट तक का इंतजार करना चाहिए था।
मुंबई पुलिस ने फिल्म जगत की तमाम बड़ी हस्तियों से पूछताछ की, परंतु सुशांत सिंह के घर रहने वाले प्रमुख व्यक्तियों से पूछताछ करना जरूरी नहीं समझा और वह भी तब जब उनकी मौत को लेकर चर्चा का माहौल पूरे देश में गर्म था। मुंबई पुलिस ने मादक पदार्थों की प्राप्ति और सेवन के बारे में भी कोई जानकारी हासिल करने की कोशिश नहीं की। सुशांत का मोबाइल फोन पुलिस के पास 25 दिनों तक रहा, परन्तु पुलिस ने एसएमएस, वाट्सएप संदेश और कॉल डिटेल्स के जरिये साक्ष्य जुटाने की कोशिश तक नहीं की। इसी मामले में पटना में केस दर्ज होने के बाद बिहार पुलिस ने भी इसकी जांच शुरू की। ऐसे में मुम्बई की कार्यशैली पर असमंजस और उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग गया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर इस मामले की जांच सीबीआई के पास है। ऐसा पहला अवसर नहीं है, जब पुलिस की कार्यशैली आलोचनाओं के दायरे में आई हो। यह पहला अवसर नहीं है, जब पुलिस की कार्यपद्धति की आलोचना की गई हो। पिछले कोरोना संक्रमण में जानमाल के बचाव के दौरान जब पालघर में उग्र भीड़ द्वारा दो साधुओं और उनके ड्राइवर की निर्मम हत्या हुई थी। महाराष्ट्र में 24 मई को पुन: ऐसी ही एक घटना शिवाचार्य नामक साधु के साथ नांदेड़ में हुई। इसके बाद 29 मई को भी पालघर में एक साधु पर जानलेवा हमला हुआ। इन हमलों से यह स्पष्ट है कि स्थानीय पुलिस का अभिसूचना तंत्र या तो बिल्कुल ही निष्क्रिय है या पुलिस किन्हीं कारणों से इस दिशा में क्रियाशील नहीं हो पा रही है, अक्षमता, अस्वीकार्यता की बात केवल महाराष्ट्र पुलिस की ही नहीं है। आज तो ऐसे कहीं तरह के मामलों में देश भर की पुलिस सवालों के निशाने पर है। इसी साल फरवरी में पूर्वी दिल्ली में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए, जो कई दिनों तक जारी रहे। इनमें 50 से अधिक लोग मारे गए थे। दिल्ली में इन दंगों के पहले कई हफ्तों से शाहीन बाग के साथ- साथ कई अन्य स्थानों पर उग्र धरने-प्रदर्शन चल रहे थे, फिर भी सभी जगहों पर पुलिस मूकदर्शक बनींं रही और कोई पूर्व सूचना हासिल नहीं कर पाई।
अभी हाल में बेंगलुरु में सोशल मीडिया की एक पोस्ट को लेकर भड़की हिंसा ने भी पुलिस की निष्क्रियता को उजागर किया। ये मामले पुलिस की निष्क्रियता के उदाहरण मात्र हैं, अन्यथा ऐसा कोई राज्य नहीं है, जहां कानून- व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटनाएं न घटती रहती हों। इन सभी घटनाओं में स्थानीय पुलिस ने वह नहीं किया,जो उससे अपेक्षा की जाती है। यदि मुंबई में समय रहते सुशांत राजपूत संदिग्ध परिस्थितियों में मौत का मामला अपराध पंजीकृत हो गया होता और जांच में सार्थक प्रयास किए गए होते, तो किसी तरह की असमंजस की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई होती। जब कभी पुलिस की जांच पर सवाल उठते हैं अथवा कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती है, तो उसका मूल कारण पुलिस के पास वांछित अधिसूचना का अभाव होता है या फिर उसका संज्ञान लेकर जरूरी कार्रवाई करने को लेकर बरती जाने वाली उदासीनता। यह स्थिति किसी भी पुलिस बल और शासन-प्रशासन के लिए आत्मघात से कम नहीं है। आखिर क्या कारण है कि दंगाई निडर होकर निरंतर जनजीवन अस्त-व्यस्त करते रहते हैं, राष्ट्र विरोधी नारे लग रहे हैं और राष्ट्र मूकदर्शक बनकर बैठा है। यह एक भयावह स्थिति है। आज अपराधियों को समय रहते यह कड़ा संदेश देने की जरूरत है कि उनकी अवांछित, राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ त्वरित एवं कठोर कार्रवाई की आवश्यकता है। जीरो टॉलरेंस की बहुत बातों को अब जमीनी स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है। पुलिस कार्यप्रणाली में ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए पर्याप्त अभिलेखीकरण, दिशानिर्देश एवं परिपत्र उपलब्ध हैं। आंतरिक सुरक्षा योजना प्रत्येक जनपद का एक अति महत्वपूर्ण अभिलेख होता है, जिसमें तनाव एवं अन्य आपात स्थिति में प्रभावी कार्रवाई के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश मौजूद रहते हैं। इनका पूर्वाभ्यास पुलिस तंत्र में महीने में एक बार किया जाना चाहिए और जहां कहीं त्रुटियां नजर आती है, उन्हें दूर किया जाने का प्रयास होना चाहिए, परंतु इस प्रकार की प्रक्रिया शायद ही कहीं पूरी की जाती होंगी। प्रशासन एवं पुलिस के ये मौलिक उपकरण हैं, जिनके माध्यम से अपराध, अपराधियों एवं कानून-व्यवस्था को भलीभांति नियंत्रित किया जा सकता है। रही कानून की बात, तो ऐसे कहीं प्रभावी अधिनियम हैं, जिनके उचित प्रयोग से न केवल अपराधियों में भय और आतंक व्याप्त होगा, अपितु उन्हें शरण देने वाले भी दुस्साहस करने से पहले कई बार सोचेंगे। यह संतोष का विषय है कि उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई दंगाइयों से करने संबंधी अधिनियम लागू कर दिया गया है। कर्नाटक और अन्य प्रदेशों ने भी इस प्रकार का अधिनियम लाने की इच्छा व्यक्त की है। उम्मीद है कि जल्द से जल्द यह अधिनियम पूरे देश में लागू होगा। एक लुंज-पुंज कानून-व्यवस्था अपराधियों, चरमपंथियों, दंगाइयों के विरुद्ध ठोस कार्रवाई करने में किंकर्तव्यविमूढ़ रहती है। इसके दूरगामी परिणाम और भी ज्यादा नकारात्मक होते हैं। जब अपराधी बेखौफ होकर विचरण करते हैं या फिर शरारती तत्व मनमाने तरीके से कानून अपने हाथ में लेते हैं, तब आम जनता में यही धारणा बनती है कि शासन- प्रशासन उनके आगे बेबस है। इस धारणा को तत्काल बदलने की आवश्यकता है। इसके लिए कड़े अधिनियम, शीघ्र विवेचना, त्वरित न्यायिक दंड प्रक्रिया आवश्यक हैं। इस कड़ी में सर्वप्रथम पुलिस कार्यशैली में सुधार करना होगा। पुलिस बल को उच्च कोटि का प्रशिक्षण भी देना होगा। जिससे वैज्ञानिक अनुसंधान के तौर-तरीकों और रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ-साथ अत्याधुनिक उपकरणों से भी लैस किया जा सकेगा। बगैर ऐसा किए कानून के शासन की स्थापना कठिन है।