2 Jul 2025, Wed
  • चन्द्रशेखर तिवारी

उत्तराखंड अपनी निराली संस्कृति के लिए जाना जाता है. यहां के लोक जीवन के कई रंग और कई उत्सव हैं. ऐसा ही एक पारंपरिक उत्सव है घी संक्रांति. उत्तराखण्ड में घी संक्रान्ति पर्व को घ्यू संग्यान, घिया संग्यान और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है।

पहाड़ में यह मान्यता व्याप्त है कि पुराने राजाओं के समय शिल्पी लोग अपने हाथों से बनी कलात्मक वस्तुओं को राजमहल में राजा के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। इन शिल्पियों को तब राजा-महराजों से इस दिन पुरस्कार मिलता था।कुमाऊं में चन्द शासकों के काल में भी यहां के किसानों व पशुपालकों द्वारा शासनाधिकारियों को विशेष भेंट ‘ओलग’ दी जाती थी। गाँव के काश्तकार लोग भी अपने खेतों में उगे फल, शाक-सब्जी, दूध-दही तथा अन्य खाद्य-पदार्थ आदि राज-दरबार में भेंट करते थे। यह ओलग की प्रथा कहलाती थी। अब भी यह त्यौहार थोड़-बहुत मनाया जाता है। इसी कारणवश इस पर्व को ओलगिया त्यार भी कहा गया ।

यह पर्व भादो माह की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। मूलतः यह एक ऋतु उत्सव है, जिसे खेतीबाडी़ से जुड़े किसान व पशुपालक उत्साहपूर्वक मनाते हैं। गांव घरों की महिलाएं इस दिन अपने बच्चों के सिर में ताज़ा मक्खन मलती हैं और उनके स्वस्थ व दीर्घजीवी होने की कामना करती हैं। कुमाऊं के इलाके में इस दिन मक्खन अथवा घी के साथ बेडू़ रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है। लोकमान्यता है कि इस दिन घी न खाने वाले व्यक्ति को दूसरे जन्म में गनेल (घोंघे) की योनि प्राप्त होती है। कुमाऊं का कृषक वर्ग इस पर्व पर इन दिनों होने वाले खाद्य पदार्थ-गाबे (अरबी के पत्ते) भुट्टे, दही,घी, मक्खन आदि की ‘ओलग‘ सबसे पहले ग्राम देवता को चढ़ाता है और उसके बाद ही इन्हें अपने उपयोग में लाता है। पण्डित -पुरोहितों व नाते रिश्तेदारों को भी ‘ओलग‘दी जाती है।उत्तराखंड में इस तरह के पर्व की भांति ऋतु परिवर्तन के अनेक और भी लोक पर्व भी समय-समय पर मनाए जाते हैं।
दरअसल पुरातन सम्माज ने इन पर्वों के माध्यम से आम जनजीवन को खेती-बाड़ी की काश्तकारी व पशुपालन से सम्बद्ध उत्पादों यथा शाक सब्जी, फल, फूल.अनाज व धिनाली (दूध व उससे निर्मित पदार्थ) को इन पर्वों से जोडने का नायाब प्रयास और उसके महत्व को रेखांकित करने अनुपम कार्य करने का प्रयास किया गया है ।यथार्त में देखें तो इनके कुछ पक्ष वैज्ञानिक आधारों की पुष्टि भी कर रहे होते हैं। इस तरह के लोक विज्ञान की समझ हमारे गाँव समाज के पुरखों को भली-भांति थी।कदाचित इसी वजह से उन्होंने इन्हें पर्व-त्योहारों का रूप देने का अभिनव प्रयास किया होगा।
(लेखकः रिसर्च एसोसिएट ,दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड, देहरादून)

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