भारत में आजादी भले ही 1947 में मिली परंतु इसके लिए संघर्ष लगभग सौ वर्ष पूर्व ही आरंभ हो चुका था। वास्तव में इस 1857 की क्रान्ति का स्वर्णिम इतिहास ही कालान्तर में कई स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणादायी बना। ये क्रान्ति तब हुई थी जब संचार की ज्यादा विकसित सुविधाए नहीं थी, केंद्र में अंग्रेजों की सत्ता को हिलाने के लिए कोई नेतृत्व भी नहीं था और ना ही कोई संगठित समूह या निर्धारित योजना थी, जिससे क्रान्ति को सफल बनाया जा सके। लेकिन सैन्य वर्ग से लेकर आम-जनों में अंग्रेजों के खिलाफ फैले आक्रोश को अपना लक्ष्य दिखने लगा था। उस समय ही शासक वर्ग से लेकर सैनिकों, मजदूरों, किसानों यहाँ तक कि कुछ जन-जातियों को भी स्वतंत्रता और स्वायत्ता का महत्व समझ आया। ये क्रान्ति असफल जरुर रही लेकिन इसने देश के लिए एक सुनहरे भविष्य की नीव रख दी थी। ब्रिटिश इंडिया कंपनी के सैनिकों ने सरकार के खिलाफ 10 मई 1857 को आन्दोलन शुरू कर दिया। यह संग्राम मेरठ में शुरू हुआ और जल्द ही अन्य स्थानों पर भी शुरू हो गय। इस विद्रोह में तात्कालिक भारत के उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, दिल्ली, गुडगाँव आदि के लोग शामिल थे। इन क्षेत्रों के सेनानियों ने ब्रिटिश सरकार के सामने अपने विद्रोह की चुनौती बहुत बड़े स्तर पर खड़ी की। इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है।
1857 की क्रांति की आग से उत्तर प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र उत्तराखंड अछूता नहीं रहा। उत्तराखंड में भी स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई जोर पकड़ने लगी। अंग्रेजी शासकों के कमिश्नर रैमजे हेनरी को 22 मई 1857 को उत्तराखंड में क्रांति की सूचना मिली। सूचना मिलते ही रैमजे हेनरी ने उत्तराखंड में मार्शल लॉ लागू कर दिया और आंदोलनकारियों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया।
सभी आंदोलनकारी गतिविधियों पर रोक लगा दी। कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को नैनीताल के एक गधेरे में फांसी पर लटका दिया गया, जिस गधेरे का नाम बाद में फांसी गधेरा पड़ गया। 1858 के शुरुआत में ही कुमाऊं मैं स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई उग्र हो गई। इस दौरान में कालू सिंह महरा, आनंद सिंह फर्त्याल व विशन सिंह करियाद इस संघर्ष में कूद गए। आनंद सिंह फर्त्याल व विशन सिंह को विद्रोह के जुर्म में अंग्रेजों ने गोली मार दी और कालू महरा को आजीवन जेल की सजा सुनाई। इस दौर में स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा पधारे। स्वामी सत्यदेव के कुमाऊं आगमन पर स्वतंत्रता प्राप्ति की लड़ाई और तेज हो गई, उनके आह्वान पर युवा क्रांतिकारी ज्वाला दत्त जोशी, वाचस्पित पंत, हरिराम पांडे, सदानंद सनवाल आदि प्रमुख आंदोलनकारी इस लड़ाई में कूद पड़े। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जमकर लिखने वाले समाचार पत्र अल्मोड़ा अखबार ने स्वतंत्रता आंदोलन की इस लड़ाई को और धार दी। इस समाचार पत्र के संपादक कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी व राम सिंह धोनी थे। 1857 की इस लड़ाई ने जहां पूरे उत्तराखंड में सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदला गया, वहीं समाज में स्वतंत्रता प्राप्ति की एक आग सी लगा दी।