स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया. एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे बिरसा मुंडा. बिरसा मुंडा ने बिहार झारखंड के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया ।अपने कार्यों और आंदोलन के कारण से बिहार और झारखंड में भगवान की तरह पूजा जाता हैं । बिरसा मुण्डा ने ‘मुण्डा विद्रोह’ पारम्परिक भू-व्यवस्था के जमींदारी व्यवस्था में बदलने के कारण किया । स्वतंत्रता सेनानी मुण्डा ने सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में आदर्श प्रस्तुत किया । उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्वरवाद का संदेश दिया । ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने विचारिजन को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया था ।बिरसा मुंडा का जन्म 1875 में लिहतु (रांची) में हुआ था । साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद उन्होंने चाईबासा इंग्लिश मिडिल विद्यालय में (Chaibasa at Gossner Evangelical Lutheran Mission school) शिक्षा प्राप्त की । बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार की नीतियों के विरोध में बचपन से ही विद्रोह की ज्वाला थी । बचपन में मुंडा स्वभाव से बेहद चंचल बालक थे । अंग्रेजों के मध्य रहते हुए वह बड़े हुए । बचपन का अधिकतर समय उन्होंने अखाड़े में बिताया । गरीबी की वजह से उन्हें रोजगार के लिए समय-समय पर अपना घर बदलना पड़ा ।चाईबासा में बीते चार वर्षों में बिरसा मुंडा के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला । वर्ष 1894 में अकाल की विभीषिका से मुंडा समुदाय और अन्य सहयोगियों को अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के आंदोलन में वह अग्रणी रहे । वर्ष 1895 तक बिरसा मुंडा एक सफल जन-नेता के रुप में उभरे । वह समाज में जागरुकता फैलाना चाहते थे ।बिरसा और उनके सहयोगियों ने अकाल पीड़ितो की सहायता करने का प्रण ले रखा था । इसी कारण उन्हें महापुरुष का दर्जा मिला । वहाँ पर रहने वाले क्षेत्रवासी उन्हें “धरती बाबा” के नाम से पुकारते और उनको पूजा करते थे । उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद से ही मुंडा समुदाय में संगठित होने की चेतना आयी।1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच अनेक छोटे बड़े युद्ध होते रहे । बिरसा मुड़ा और उसके सहयोगी व उनके विचार को मानने वालों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया । अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों के साथ खूंटी थाने पर धावा बोला । वर्ष 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेजो कि सेना से हुई । पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी, बाद में सामरिक सहायता से उस क्षेत्र के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं ।
जनवरी 1900 में जहाँ बिरसा डोम्बाडी पहाड़ी पर जनसभा को संबोधित कर रहे थे । उस्की भनक अंगेजो को हुई । उन्हें गिरफ्तार करने के लिये संघर्ष हुआ, जिसमें अनेकों औरतें व बच्चे मारे गये । बिरसा अंग्रेजों की पहुँच से दूर रहे । जबकि बिरसा के सहयोगियों की गिरफ़्तारी भी हुई । अंत में बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए ।
बिरसा ने अपनी अंतिम सांसें 9 जून, 1900 को रांची कारागर में ली । आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भारत माता के सपूत ‘बिरसा मुंडा’ को भगवान की तरह पूजा जाता हैं।