कमल किशोर डुकलान, रुड़की (हरिद्वार)


नेताओं की गलत बयानबाजी से राजनीति और जनमानस, दोनों को ही भटकाते हैं बल्कि राजनीति में ऐसी उदासीनता, लापरवाही, जमीनी अध्ययन एवं तैयारी में कमी से देश या समाज के साथ-साथ स्वयं राजनीतिक बिरादरी की सेहत के लिए नुकसानदायक है…..

कोई भी राष्ट्र हो, नेताओं में सजग नेतृत्व मन, वचन, कर्म के प्रति जिम्मेदारी का एहसास सबसे जरूरी है। लोकतांत्रिक देशों में तो यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि नेतागण जो भी बोलें, संभलकर बोलें। जब कोई दिग्गज नेता बोल रहा होता है, तब लोग दरअसल लोग उसके कहें वाक्यों को इतिहास में दर्ज कर रहे होते हैं। मिसाल के तौर पर,कल जब ब्रिटेन की संसद में भारत में आजकल चल रहे किसान आंदोलन का मुद्दा उठा, तब ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के जवाब ने सबको अचरज में डाल दिया। शायद उन्हें यह पता ही नहीं था कि लेबर पार्टी के ब्रिटिश सिख सांसद तनमनजीत सिंह धेसी ने क्या मुद्दा उठाया है। एक सामान्य नेता को भी संसद जैसी जगह पर हर पल सचेत रहना चाहिए, खासकर प्रधानमंत्री को तो और भी सावधानी से सबकी बात पर गौर करना चाहिए। ब्रिटिश सांसद ने भारत में चल रहे विरोध प्रदर्शन पर सवाल पूछा, लेकिन जॉनसन ने जवाब दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी विवाद का हल द्विपक्षीय बातचीत से हो सकता है। जॉनसन से हुई यह गलती तत्काल चर्चा का विषय बनी और दुनिया ने देखा कि एक लोकतांत्रिक देश के चुने हुए नेता भी संसद में भी कितनी उदासीनता के साथ मौजूद रहते हैं।
अव्वल तो इससे यह भी पता चलता है कि भारत के संबंध में ब्रिटिश नेताओं को कितनी कम जानकारी है। ब्रिटिश सांसद का सवाल तो खैर गलत था ही, ब्रिटिश प्रधानमंत्री भी सचेत नहीं थे। उन्हें भारत जैसे लोकतांत्रिक और सेकुलर देश के बारे में बात करते हुए पूरी सावधानी से चर्चा करनी चाहिए थी। लेकिन किसान आंदोलन को सिर्फ सिखों का मामला समझ लेना और ब्रिटिश सिखों की ओर से चिंता या सवाल का इजहार करना कतई प्रशंसनीय नहीं है। भारत में किसान आंदोलन को केवल सिखों का आंदोलन कैसे माना जा सकता है? सिर्फ सिखों के प्रति चिंता का इजहार कैसी राजनीति है?
यह हमारे लिए चिंता का समय है, जब दुनिया में अनेक नेता किसी मामले को पूरा जाने बगैर बयान देने की जल्दबाजी करन लगे हैं। ऐसी ही जल्दबाजी कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडेव ने भी दिखाई थी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो अपने बयानों के लिए खासे चर्चित रहे हैं। जो भी मन में आए,बोल देने और कथनी-करनी में भेद रखकर चलने की रियायत किसी भी तंत्र के लिए खतरनाक है। पूरी जानकारी न रखने वाले नेताओं में भी बढ़ता बड़बोलापन शर्मनाक है। आए दिन ऐसे बयान आते हैं कि बयानबाज नेता की सामान्य बुद्धि पर भी संदेह होता है। पहले माना जाता था कि विपक्ष के नेता आलोचना में कुछ भी बोल सकते हैं,लेकिन अब सत्ता पक्ष की ओर से भी तथ्य-तर्क से परे बयानबाजी आम हो गई है। सत्ता पक्ष का ही एक हिस्सा नरमी की बात करता है,तो दूसरा आग में घी डालने में कसर नहीं छोड़ता। नेता ऐसा करते हुए राजनीति और जनमानस,दोनों को भटकाते हैं। एक ओर,कहा जाता है,किसान देश में कहीं भी अनाज बेच सकता है,तो दूसरी ओर से यह बयान आता है कि दूसरे राज्यों के किसान आए,तो खैर नहीं। राजनीति में ऐसी उदासीनता, लापरवाही,जमीनी अध्ययन और तैयारी की कमी देश या समाज ही नहीं,स्वयं राजनीतिक बिरादरी की सेहत के लिए नुकसानदायक है। लोग यही चाहेंगे कि उनके नेतृत्वकर्ता पर्याप्त जानकारी के बाद ही किसी मुद्दे पर मुंह खोलें।