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✍️ कमल किशोर डुकलान, रुड़की

राजस्थान के उदयपुर में घटित घटना यह दर्शाती है कि इतने वर्षों में समाज में कुछ नहीं बदला है जिस कारण शायद दिन-ब-दिन मनुष्य में मदद के बजाय मूकदर्शक बनने कि स्वभाव बढ़ता जा रहा है……

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो जरूरत पड़ने पर परस्पर एक दूसरे की मदद को तत्पर रहता है। आज समाज में धीरे-धीरे मनोविज्ञान में तेजगति से बदलाव रहा है जिस कारण मनुष्य असामाजिक होता जा रहा है। वर्तमान सयय में मनुष्य सामाजिक दुनिया को छोड़कर आभासी दुनिया में सिमट कर रह गया है। आजकल मनुष्य फेसबुक पर अनजान लोगों के दुख में दुख व्यक्त तो करता है लेकिन असल जीवन में किसी की मदद करना उसे किसी पचड़े में भारी पड़ना जान पड़ता है।
हम आए दिन देखते-सुनते हैं कि सड़क पर होती हिंसा को मनुष्य सिर्फ दर्शक की तरह निहारता है, मदद के लिए आगे नहीं आता। कुछ ऐसा ही विगत दिनों राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल नाम के युवक पर ताबड़तोड़ वार हो रहे थे। पहले हम देखते थे कि जब कोई सामुदायिक स्थल पर ऐसी कोई दुर्घटना होती है, तो लोग दाएं-बाएं से मदद के लिए निकल पड़ते थे।
आजकल मनुष्य की असामाजिकता के कारण समाज केवल ऐसी घटनाओं पर मदद के बजाय मूक दर्शक ही बना रहता है। भीड़ में जब दूसरे लोग खड़े होते हैं तो मनुष्य के व्यक्तित्व का विलीन होना आसान होता है। अपराधबोध भी नहीं रहता। यह एक मनोवैज्ञानिक द्वंद्व भी हो सकता है कि मदद करें कि न करें। लेकिन इस द्वंद्व से मनुष्य प्रभावित हो सकता है, भीड़ नहीं। भीड़ की कोई पहचान चेतना नहीं होती, अगर भीड़ मदद को आगे बढ़े, तो क्या मजाल कि कोई घटना घटित हो जाए। राजस्थान के उदयपुर की शायद ही घटना पहली घटना होगी और न ही आखिरी।
समाज नामक इकाई का क्षीण होना एक सतत प्रक्रिया है। मार्शल मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की परिकल्पना की थी, तो उनका अनुमान था कि विश्व में गांव के गुण परिलक्षित होंगे। गांव का एक सामूहिक चरित्र होता है। लोग एक भाषा बोलते हैं, एक जैसे परिधान धारण करते हैं और तीज-त्योहार सामूहिक रूप से मनाते हैं। शहर व्यक्तिवादी होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि संस्कृति गांव में जन्म लेती है और वहीं फलती-फूलती है। विश्व ग्लोबल तो बन गया, लेकिन विलेज न बन पाया। गांव में मदद करने का जो नैतिक साहस होता है, वह शहर में नहीं मिलता। कई बार अपराध या अपराध की आशंका की सूचना देना ही मनुष्य का अपराध बन जाता है।
सामूहिक स्थलों में जब कोई घटना घटित कोई भी व्यक्ति इन कानूनी प्रक्रियाओं में उलझना नहीं चाहता, इसलिए उसे दर्शक बन जाना आसान लगता है। पुलिस लाख कहे कि सूचना देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाएगी, लेकिन सूचना देकर देख लीजिए, पहले आप की ही पूछताछ शुरू कर दी जाएगी। कई बार तो पुलिस अपराधी को सूचना देने वाले का नाम, पता, फोन नंबर तक बता देती है और फिर अपराधी या उसके परिवार वाले आपको फोन करना शुरू कर देते हैं। पहले माफी की गुहार की जाती है और बाद में धमकियां शुरू हो जाती हैं।
कन्हैयालाल ने भी पुलिस से अपनी सुरक्षा की गुहार की थी, लेकिन खाकी ने दोनों पक्षों का राजीनामा कराकर अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया। कुछ वर्ष पूर्व अलवर में हुए सामूहिक दुष्कर्म के मामले में भी राजस्थान सरकार की खूब किरकिरी इस बात पर हुई थी कि पुलिस ने पीड़ित की शिकायत दर्ज नहीं की थी। उस घटना के बाद सरकार ने आदेश पारित किया कि हर शिकायत दर्ज की जाए। थाना न करे, तो पुलिस अधीक्षक कार्यालय में मुकदमा लिखा जाए। विगत दिनों राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल की निर्मम हत्या की घटना यह दर्शाती है कि इतने वर्षों में समाज में कुछ बदला नहीं है जिस कारण शायद दिन-ब-दिन मनुष्य के स्वभाव में दर्शक बनने का स्वभाव बढ़ता जा रहा है।