✍️  कमल किशोर डुकलान ‘सरल’

समलैंगिक विवाह हमारी प्रकृति, देश, समाज, संस्कृति व धर्म के विरुद्ध ही नहीं है, बल्कि हमारे समाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं एवं विश्वास और मूल्यों के ताने-बाने के विपरीत भी है……..

समलैंगिकता का मुद्दा भारत में हमारी प्रकृति,देश,धर्म व संस्कृति के विरुद्ध सदियों से विवादास्पद रहा है। हमारे सनातन समाज ने पारंपरिक रूप से विषम लैंगिकता को सामाजिक निर्माण के रूप में बरकरार रखा है। समाज ने इसके किसी भी विचलन को कभी भी स्वीकार नहीं किया है। इस संबंध में वर्तमान तात्कालिक उभरी बहसों से एक बड़ा मुद्दा बना है कि भारत में समलैंगिक विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं।संस्कृति प्रधान देश में भारत को भोग भूमि नहीं, अपितु कर्म भूमि कहा जाता है। भारत में समलैंगिक विवाह को सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के दृष्टिकोण से विरुद्ध या यूं कहिए सामाजिक विकृति के रूप में माना जाता है। वर्तमान समय में यह मामला भारत की माननीय सर्वोच्च न्यायालय उच्चतम में बड़े ही जोर-शोर से गूंज रहा है।
भारत की सनातन संस्कृति में धार्मिक,आध्यात्मिक और नैतिक मान्यताएं गहराई से निहित हैं। भारतीय संस्कृति में वैवाहिक बंधन को एक पवित्र रिश्ता माना जाता है। इसे पुरुष और स्त्री जाति के बीच पवित्र बंधन के रूप में देखा जाता है। जो भी इस मानदंड से विचलित होता है उसे अप्राकृतिक, अधार्मिक या राक्षसी के रूप में देखा जाता है। इसलिए भारत का अधिकांश समुदाय समलैंगिक विवाह की अवधारणा से न केवल घृणा करता है बल्कि इसका तिरस्कार भी करता है। भारत में समलैंगिक विवाह को अभिशाप के रूप में देखने की सांस्कृतिक धारणा इस तथ्य से और भी बढ़ जाती है कि भारतीय सनातन परंपरा में प्रजनन और परिवार की निरंतरता को जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में देखा जाता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक व्यक्तियों के विवाह बंधन में बंधने का जो विचार प्रस्ताव के रूप में विचाराधीन है वह विचार हमारे समाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं एवं विश्वास और मूल्यों के ताने-बाने के विपरीत है।
भारत में समलैंगिक विवाह के मुद्दे को सामाजिक दृष्टिकोण से भी नकारात्मक रूप से देखा गया है। प्रकृति सृजन में सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा द्वारा नर-नारी को जोड़े के रुप में सृजित किया। समाज के सृजन में भी पुरुष और महिला जाति की भूमिका और जिम्मेदारी निहित है। मानव संरचना में दोनों की बराबरी की भागीदारी समाज व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है। भारतीय समाज में हमेशा एक प्रदाता,रक्षक और नेतृत्वकर्ता के रूप में पुरुषों और महिलाओं को महत्व दिया गया है। पुरुष और महिलाएं एक-दूसरे के सहायक की भूमिका में परिवार का पालन-पोषण एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं। जिस तरह से समलैंगिक विवाह को मान्यता देने पहल की जा रही है वह पहल हमारी पौराणिक पीढ़ियों से स्थापित सामाजिक संतुलन को बाधित करेगी। इससे समाज में अराजकता और भ्रम का वातावरण उत्पन्न होगा बल्कि हमारी स्वीकृत भूमिकाओं और सामाजिक पदानुक्रम को खंडित भी करेगा। समलैंगिक विवाह से न केवल सामाजिक एकता टूटेगी बल्कि हमारी सामाजिक संरचना कमजोर भी होगी और अनैतिकता को बढ़ावा मिलेगा।
हिंदू धर्म स्पष्ट रूप से समलैंगिकता के किसी भी रूप की निंदा करता है। उसमें समलैंगिक संबंधों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। समलैंगिक संबंध नरक का एक निश्चित मार्ग है। भारत में दूसरा सबसे प्रमुख धर्म इस्लाम भी समलैंगिकता को तिरस्कार के साथ देखता है। उसमें समान लिंगी विवाह सख्त वर्जित है। भारतीय समाज ने कभी भी समलैंगिक विवाह को स्वीकार नहीं किया है। हमारी सांस्कृतिक,सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं भारतीय लोकाचार की अभिन्न अंग रही हैं। भारतीय लोकाचार ऐसे सभी समलैंगिक विवाह बंधनों को अस्वीकार करता है जिनसे हमारा सांस्कृति, सामाजिक ताना-बाना टूटता है। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि नीति निर्माता,नागरिक समाज और अन्य हितधारक इस मामले में भारतीय प्रबुद्ध नागरिक समाज को सनातन संस्कृति का अध्ययन करते हुए समग्र बहुआयामी दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है।