21 Nov 2025, Fri

संघर्ष, सम्मान और साहस का प्रतीक बिरसा मुण्डा

बिरसा मुंडा ने ‘मुंडा विद्रोह’ समेत कई आंदोलनों का नेतृत्व किया और आदिवासी समाज को एकता और अधिकारों की लड़ाई के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अंग्रेजों के शोषण और अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों में जागरूकता और आत्मबल की भावना पैदा की। आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता, सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की आवाज बुलंद करने वाले भगवान बिरसा मुंडा को भारत में आदिवासियों के नायक ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में उन्हें अदम्य साहस और संघर्ष का पर्याय माना जाता है।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातू गांव में हुआ था। बिरसा बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा सालगा गांव के जर्मन मिशन स्कूल में हुई। नौ जून 1900 को क्रांतिकारी बिरसा मुंडा की मृत्यु 25 वर्ष में होगी।   उन्होंने आदिवासियों में प्रचलित अनेक बुराइयों शराबखोरी, काले जादू और अंधविश्वासों में विश्वास तथा जबरन श्रम (बेथ बेगारी) के विरुद्ध अभियान चला कर कुप्रथाओं को त्यागने का आह्वान किया। बिरसा ने आदिवासियों में स्वच्छ जीवन, स्वच्छता और आध्यात्मिक एकता को प्रोत्साहित करते हुए जनजातीय संस्कृति और सामुदायिक भूमि स्वामित्व पर गर्व करना सिखाया गया।
बिरसा मुंडा ने ‘मुंडा विद्रोह’ समेत कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1895 में बिरसा मुंडा ने ‘बिरसाइत धर्म’ की शुरुआत की, जिसका मकसद आदिवासियों की पुरानी मान्यताओं और परंपराओं को जीवित करना था। यह सिर्फ एक धर्म नहीं, बल्कि एक आंदोलन बन गया जिसने हजारों आदिवासी लोगों को जोड़ा।
बिरसा मुंडा ने 1890-1900 के बीच अनेक विद्रोही आंदोलन अंग्रेजी राज के खिलाफ किए। ये सभी विद्रोह अंग्रेजी कानूनों द्वारा आदिवासियों की पारंपरिक भूमि व्यवस्था (खुंटकटी प्रणाली) का विघटन, जिससे उनकी जमीनें छीन ली गई। जमींदारी प्रथा-बाहरी जमींदारों (दिकू) द्वारा आदिवासियों का शोषण और अधिक लगान वसूली, ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासी संस्कृति में हस्तक्षेप और धर्म परिवर्तन का प्रयास, बेगार प्रथा-आदिवासियों से जबरन बिना मजदूरी के काम कराना के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल भूमि का युद्ध छेड़ दिया। यह सिर्फ विद्रोह नहीं था। बल्कि यह आदिवासी स्वाभिमान, स्वतंत्रता और संस्कृति को बचाने का संघर्ष था। बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम -अबुआ राज’ यानि हमारा देश, हमारा राज का नारा दिया। बिरसा द्वारा आदिवासियों के हक-हकूक जल, जंगल और जमीन के लिए किए गए संघर्षों अथवा आंदोलनों को महान विद्रोह (उलगुलान) की संज्ञा दी गई।
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने आदिवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का खुलकर विरोध भी किया। भगवान बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के वो नायक रहे। जिन्हें आज भी जनजातीय सहित पूरी दुनिया के लोग गर्व से याद करते हैं। आदिवासियों के हितों के लिए उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। यही कारण है की आज भी देशभर में उनके योगदानों की चर्चा होती है। आदिवासी समाज उन्हें भगवान का दर्जा देते हैं और समाज के लिए उनके किए गए अविस्मरणीय योगदान के कारण उन्हें धरतीआबा (पृथ्वी के पिता) नाम से पुकारते हैं।
बिरसा मुंडा के संघर्ष का ही परिणाम था कि अंग्रेजी सरकार ने उनकी मृत्यु के बाद वर्ष 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित किया। आदिवासियों से गैर-आदिवासियों को भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाया गया। खुंटकट्टी अधिकारों को मान्यता दी गई और बेथ-बेगारी (जबरन श्रम) पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उनके नेतृत्व ने आदिवासियों को अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया और उन्हें अपनी पारंपरिक भूमि और संस्कृति के महत्व का एहसास कराया। भारत सरकार ने वर्ष 2021 से उनके जन्मदिन 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। जो आदिवासी समुदायों के योगदान और विरासत को सम्मानित करता है। बिरसा की प्रकृति निष्पाप एवं निश्छल थी जिसने आदिम जनजातियों पर किए जा रहे शोषण के विरुद्ध सशक्त क्रांति की नींव रखी तथा जंगल को अपना मानते हुए अंग्रेजों तथा जमीदारों द्वारा छीने गए अधिकारों को वापिस प्राप्त करने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। बिरसा वीरता एवं अदम्य साहस का पर्याय है जो जन-जन में बसी अधिकार-बोध की भावना एवं अन्याय के विरुद्ध लड़ने की विचारधारा है। जो बिरसा की तरह सदैव अमर रहेगी।

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