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विश्व में अब भी भारत को आशा और प्रकाश के स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में समूचे देश के लिए ज़मीनी स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है ताकि भारत का पुराना गौरव लौट आए…..



अतीत में अगर देखा जाए तो हमारा देश हजारों वर्ष तक विश्व का ज्ञान प्रदाता रहा। विश्व में भारत को आज भी आशा और प्रकाश के स्तंभ के रूप में देखा जाता रहा है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी आशा और प्रकाश के स्तंभ को पुनर्स्थापित करने हेतु सतत प्रयत्नशील हैं, ताकि भारत का पुराना वैभव लौट आए। नई शिक्षा नीति पर देश के शिक्षाविदों की परिचर्चा से एक बात तो स्पष्ट हुई है कि शिक्षा क्षेत्र में बदलाव करके ही भारत की सुप्त शक्ति को पुन: जागृत किया जा सकता है।भारत हजारों साल तक प्रकाश और आशा की किरण के रूप में पूरी दुनिया को ज्ञान प्रदाता रहा।भारतीय समाज को ज्ञान के प्रकाश का मूल आधार कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
यह सब प्रमाणित है,और चौंकाने वाली बात भी है कि हम अपनी स्वयं की महानता के बारे में कितना कम जानते हैं। प्रसिद्ध अंग्रेजी इतिहासकार ने कहा था, भारत जो कि एक आश्चर्य है, वह अब भी हमारे लिए ही नहीं बल्कि विश्व के लिए भी आश्चर्य बना हुआ है। दरअसल अंग्रेज इतिहासकार ने ऐसा इसलिए कहां,क्योंकि आज हम एक बिखरी हुई सभ्यता के ढेर पर खड़े हैं। जिसका कि पुननिर्माण इसके केवल विकास माध्यमों का विकास कर रहे हैं।
हमारे औपनिवेशिक इतिहास की सबसे बड़ी विडंबना यह रही है कि अंग्रेजों ने हमें लूटा और हमारा शोषण किया, लेकिन उनके हस्तक्षेप के बिना शायद हम अपने प्राचीन गौरव के बारे में कभी नहीं जान पाते। औपनिवेशिक इतिहास ने हमें गरीब बनाने साथ हमें पुनर्जागरण की ओर भी प्रेरित किया। 1,200 ईसवीं में नालंदा और तक्षशिला जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय ज्ञान और प्रकाश स्तंभ के रुप में उकृष्टता के कई केंद्र थे। लेकिन मुगल शासकों ने भारतीय संस्कृति और ज्ञान व्यवस्था को संरक्षण देने वाले इन यंत्रों को नष्ट कर दिया एक पत्रकार से मुगल शासकों ने भारत की ऊर्जा पूरी तरह से समाप्त करने का प्रयास किया।
वर्तमान में हमारे यहां कई विरोधाभास हैं। शिक्षा पर खर्च बढ़ने के बाद भी अपेक्षाकृत परिणाम कम प्राप्त हो रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे सभी महान विज्ञानी, कवि,दार्शनिक,लेखक और विचारक उस समय के हैं,जब हमारा देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था,मगर उनमें से केवल रबींद्रनाथ टैगोर, सीवी रमन, स्वामी विवेकानंद या महात्मा गांधी की महानता को छू पाए हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करते हुए हम स्वयं महान बन गए। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के पश्चात हम सामान्यता और पृथक्करण की ओर ही अग्रसर होते गए। हमारे विश्वविद्यालय राजनीति का अखाड़ा बनते गए, जहां पर सीमित कौशल और अनिश्चित भविष्य वाले असंतुष्ट छात्रों को आसानी से राष्ट्र-विरोधी बनने के लिए ललचाया जा सकता है। हमारी प्रारंभिक शिक्षा में भी अनेकों गड़बड़ियां हैं, खासतौर से देश के सरकारी स्कूलों में करोड़ों रुपये बहुत उम्मीद से खर्च किए जाने के बाद भी उनमें पढ़ने वाले छात्र बिना किसी प्रशिक्षण या क्षमताओं के विद्यालयों से बाहर निकलते हैं। दूसरी तरफ निजी विद्यालयों में बच्चों में शुरुआती वर्षो में ही एक विचित्र प्रकार का उकृष्टता भाव भर दिया जाता है, जिसे बाद उनमें उस भाव को दूर करना मुश्किल हो जाता है।
वर्तमान समय में हमारे सामने व्यापक और विभिन्न प्रकार की चुनौतियां हैं,जिन्हें हम भली-भांति जानते हैं। सबको शिक्षा से लेकर, देश को कौशल से परिपूर्ण करना और आजीवन शिक्षण को संभव बनाने के अलावा पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों में भी अनेक सुधार किए जाने की आवश्यकता है। सभी को उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान कर एक गुंजायमान ज्ञान आधारित समाज का निर्माण करना चाहिए,ताकि भारत फिर विश्वगुरु बन सके।
भारत को विश्वगुरु महाशक्ति बनाने के लिए कृत्रिम ज्ञान सहित तकनीक के व्यापक प्रयोग से केवल मदद नहीं मिलेगी। बल्कि हमें उसी अनुपात में बड़ी सोच और बड़े मूल्य भी चाहिए। हमें शिक्षा के सभी क्षेत्रों में उकृष्टता पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा। व्यवस्था में नियम-कानून कम किए जाने के अतिरिक्त नकारात्मक आरक्षण की ओर से वास्तविकता में वंचित लोगों को सकारात्मक सहयोग की ओर बढ़ने की आवश्यकता है।
प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह सार्वजनिक-निजी क्षेत्र आधारित सुनिश्चित की जानी चाहिए। जहां तक उच्च शिक्षा का प्रश्न है, तो यह कई समस्याओं से ग्रस्त है। सरकारी शिक्षण संस्थान अति-नियामन से ग्रस्त हैं, तो निजी संस्थान न्यून-नियामन से। हमारी व्यवस्था ने दोयम दर्जे के लोगों को बढ़ावा दिया और योग्य लोगों को एक तरफ कर दिया। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में छोटे-मोटे नहीं, बल्कि आमूलचूल परिवर्तन की दरकार है। आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के क्षेत्र में समूचे देश के लिए नीतिगत दस्तावेज बनाने के बजाय जमीनी स्तर पर आधारभूत बदलावों की ओर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
कमल किशोर डुकलान
ब्रह्मपुर रुड़की (हरिद्वार)